बुधवार, अगस्त 14, 2019

राष्ट्र के सम्मान से जुड़े सभी विषय एक समान : चम्पत राय

विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष चम्पत राय श्रीराम जन्मभूमि को राष्ट्र के सम्मान से जुड़ा मानते हैं। इसलिए वे उस स्थान पर भव्य मंदिर निर्माण के पक्ष में हैं। श्रीराम जन्मभूमि मसले पर जब सुप्रीम कोर्ट ने नियमित सुनवाई शुरू कर दी है, उन्हें भरोसा है कि इस पर निर्णय में अब विलंब नहीं होगा। श्रीराम जन्मभूमि के मुद्दे पर विहिप नेता के साथ हिन्दुस्थान समाचार के मुख्य संवाददाता पवन कुमार अरविंद ने बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश- 


अनुच्छेद-370 और श्रीराम जन्मभूमि विवाद, इन दोनों प्रकरणों में आप किसको ज्यादा पेंचीदा मानते हैं?
अनुच्छेद-370 को निष्प्रभावी बनाना संपूर्ण भारत की एकात्मता और अखंडता का आवश्यक तत्व है। दुनिया में इसके कारण हिन्दुस्तान का सम्मान बढ़ेगा। हम अपनी समस्याओं को खुद हल करने में समर्थ हैं। हमने दुनिया को संदेश दिया है कि भारत के आंतरिक विषयों में किसीबाहरी शक्ति का हस्तक्षेप उचित हीं है। हमसे पूर्व में जो भी भूलें हुईं, हमने उनका परिमार्जन किया है। अनुच्छेद-370 के मुद्दे से हिन्दुस्तान का सम्मान जुड़ा है। राम जन्मभूमि के मुद्दे से भी हिन्दुस्तान का सम्मान जुड़ा है। 1528 में विदेशी आक्रांता बाबर ने हमारे एक श्रद्धा स्थान को गिराया या गिरवाया और उसी स्थान पर उसी के मलबे का प्रयोग करके अपनी उपासना का एक स्थान तैयार किया, ये भी राष्ट्रीय अपमान थातो उस स्थान पर पहले जैसा मंदिर बनाना, यह भी राष्ट्र के सम्मान से जुड़ा हुआ विषय है। कोई छोटा, कोई बड़ा मैं इस दृष्टि से नहीं देख रहा हूं। राष्ट्र के सम्मान से जुड़े सभी विषय एक समान हैं। कोई आज हल हुआ, कोई कल हल होगा।

विवादित भूमि पर मंदिर बनना चाहिए, यह विचार कब आया?
देखिए, चार लोग हैं जिन्होंने मुकदमे दायर किए। पहला मुकदमा क्रमांक-एक 16 जनवरी 1950 को दायर हुआ। याचिकाकर्ता ने कोर्ट से मांग की कि मैं रोज दर्शन करने आता हूंभगवान का भक्त हूं मेरे दर्शन में कोई बाधा नहीं पहुंचाए। जिन ठाकुर के दर्शन करता हूं उन्हें कोई उठाए नहीं, हटाए नहीं। केवल इतनी रिलीफ पहले मुकदमे में याची ने कोर्ट से की उनकी मांग आज तक चली आ रही है, उनके दर्शन पूजन होते हैं। पहले मुकदमे की बातें पूरी हो रही हैं। निर्मोही अखाड़े ने 17 दिसंबर 1959 को मुकदमा दायर किया। 1950 के बाद दर्शनार्थी दर्शन करने आने लगे तो कुछ न कुछ पैसा भी चढ़ाने लगे। तब उसके प्रबंधन की आवश्यकता पड़ी। भगवान की आरती, शयन आरती और भोग समय पर हों, इसके लिए वहां एक रिसीवर बैठाया गया। रिसीवर ने सारी व्यवस्थाओं का प्रबंध किया। ये सब 1950 में ही हो गया। लेकिन नौ साल के बाद निर्मोही अखाड़े को ध्यान आया कि इसका प्रबंध तो हमको करना चाहिए। उन्होंने अपने मुकदमे में कहा कि रिसीवर को हटाओ और ढांचे के नीचे जो भगवान की पूजा-आरती हो रही है, इसके प्रबंधन की जिम्मेदारी हमको सौंपें। न्होंने कहीं भी राम जन्मभूमि मंदिर शब्द का प्रयोग नहीं किया। नया मंदिर बनाएंगे, इसका कोई विचार नहीं है। वर्ष 1949 में भगवान प्रगट हुए। 1950 में रिसीवर बैठाए गए, दर्शन-पूजा चलती रही, लगभग 12 साल के बाद सुन्नी वक्फ बोर्ट को ध्यान में आता है कि ये स्थान हमारी मस्जिद थी। इसे सार्वजनिक मस्जिद घोषित किया जाए। भगवान हटाए जाएं, पूजा सामग्री हटाई जाए। निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ट के मुकदमे को हाईकोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को खारिज कर दिया। नो रिलीफ, शूट डिसमिस्ड। अंतिम मुकदमा है स्वयं भगवान रामलला का, जो उन्होंने अपने अभिन्न मित्र (Next friend) के माध्यम से दायर की। उस मुकदमे में उन्होंने कहा कि य मेरी जन्मभूमि है। मैं यहां पैदा हुआ हूं। मेरे भक्त यहां मंदिर बनाना चाहते हैं। मंदिर बनाने की अनुमति दी जाए। कोई मुझे यहां से हटा न दे, इसकी व्यवस्था की जाए। ये मुकदमा जीता है। हाईकोर्ट के तीनों न्यायाधीशों ने इस जीते हुए वाद क्रमांक-5 रामलला विराजमान के मुकदमे में से थोड़ी-थोड़ी जमीन निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड को दी है। उनके मुकदमे में उन्हें जमीन नहीं मिली है। उनका मुकदमा तो पूरी तरह से रद्द हुआ है। विषय ये है कि क्या यह किया जा सकता था? वाद क्रमांक-5 कोई संपत्ति के बंटवारे का मुकदमा नहीं था। हमने बंटवारे की बात नहीं की थी। निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी बंटवारा नहीं मांगा था। बंटवारे की गवाही नहीं हुई। बंटवारे का दस्तावेज नहीं है। बंटवारे पर कोई इश्यू तैयार नहीं हुआ। हमने बंटवारा कहा ही नहीं था। हमारे मुकदमे में बंटवारा क्यों कर दिया गया। यह गलत है। यही कानून का एक बिंदु है जिसकी चर्चा सुप्रीम कोर्ट में होगी। मोल्डिंग आफ रिलीफ। आपने राहत कैसे दे दी, आपने अपने मन से मुकदमा बदल कैसे दिया। ये नहीं किया जा सकता था। यह बात महत्व की है, ये बात समाज को भी समझनी होगी।

यानी, मुकदमा था जन्मभूमि के स्वामित्व का, लेकिन हाईकोर्ट ने बंटवारा कर दिया?
देखिए, आज की 2019 की परिभाषा में स्वामित्व शब्द 1528 में कहां था। आज रेवेन्यू है, दाखिल-खारिज हैकिसके नाम खसरा-खतौनी में जमीन लिखी है, इसको कहते हैं स्वामित्व। 1528 में तो ये व्यवस्था ही नहीं थी। मुकदमा है एक मंदिर तोड़ा गया, उसको तोड़कर उसके मलबे से एक ढांचा बनाया गया। 1528 में जिसका मंदिर था, उसी का स्वामित्व होगा। इसे स्वामित्व का मुकदमा कहकर भी गलत दिशा मिलती है। बात बस इतनी है कि एक मंदिर था वो तोड़ा गया, हमें वो जमीन वापस चाहिए। हम मंदिर फिर से बनाएंगे। मंदिर था, स्वामित्व हमारा। कागज में क्या लिखा है ये महत्व की बात नहीं है। महत्व की बात है कि वहां मंदिर था या नहीं था।


जहां रामलाल विराजमान हैं, हाईकोर्ट के फैसले में वह हिस्सा रामलला को ही दी गयी है। क्या यह 2.77 एकड़ में से दी गयी है?
इसमें एक बात सुधार करने लायक है। वह यह है कि 2.77 एकड़ नाम की कोई शब्दावली अब नहीं है। कभी रही होगी। दिसंबर 1991 के बाद ही यह शब्दावली खत्म हो गयी। यूपी गवर्नमेंट ने उस विवादित ढांचे के चारों ओर 2.77 एकड़ भूमि अधिग्रहित की थी, उस अधिग्रहण को चुनौती दी जो स्वीकार कर ली गयीअधिग्रहण रद्द हो गया तो 2.77 एकड़ की बात ही खत्म हो गयी। 2.77 एकड़ ये शब्द प्रयोग गलत है। इसका कोई अस्तित्व नहीं है, ये शब्द प्रयोग भ्रम फैलाता है। बंटवारा हुआ है उतनी जमीन का जितना हाईकोर्ट ने विवादग्रस्त माना है। उसकी लंबाई-चौड़ाई है उत्तर-दक्षिण दिशा में- 135 फुट अधिक से अधिक 140 फुट। पूर्व-पश्चिम दिशा में 95 फुट अधिक से अधिक 100 फुट। 140 को 100 से गुणा करने पर क्षेत्रफल आता है- 14 हजार वर्गफुट यानी 0.3 एकड़। यही अदालत ने भी लिखा है। यही वह विवादित भूमि है जिसमें से हाईकोर्ट ने बंटवारा किया है। जो तीन गुंबदों वाले ढांचे के बीच का गुंबद था उसको तीनों न्यायाधीशों ने रामलला के लिए समर्पित माना है।

30 सितंबर 2010 के हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी। उसकी सुनवायी नौ साल बाद शुरू हो रही है। इस पर आपका क्या कहना है?
इसका दुख तो हमको भी है कि जनवरी 2011 से जुलाई 2017 तक हमारी अपीलों की फाइलें ही कभी नहीं खोली गयीं। इसका कारण तो न्यायपालिका से जुड़े हुए विद्वान बताएं। उस समय के न्यायपालिका का मार्गदर्शन करने वाले न्यायाधीश बताएं। उन्होंने सात साल तक क्यों बंद कमरे में पड़ा रखा। सुप्रीम कोर्ट में 17 डिब्बों में कागज है। कमरा शिल्ड है। आखिर क्यों ऐसा हुआ। इतने महत्वपूर्ण मुकदमे के साथ सात वर्षों तक यह अन्याय क्यों हुआ। इसका उत्तर न्यायालय के उन लोगों को बताना होगा जिन पर उस कालखंड में इस मुकदमे को सुनने या नहीं सुनने की जिम्मेदारी थी। हमें इसका कष्ट है। देश को भी इसका कष्ट है। नरेंद्र मोदी जी के सत्ता में आने के बाद 2017 से इसकी सुनवायी शुरू हो गयी। इतना ही संतोष है। इसमें दुख ये है कि सुप्रीम कोर्ट के बड़े लंबे अनुभवी वकीलों ने इस मुकदमे को चुनाव से जोड़ा और 2017 में कह दिया कि सुनवाई 2019 के चुनाव के बाद हो। ये उन वकील को बताना होगा कि इसको चुनाव से जोड़कर उन्होंने देश की कितना सेवा की, देश का कितना भला किया। सभी वकीलों के अपने-अपने तर्क होते हैं, लेकिन वही तर्क सही है जो समाज की भलाई के लिए हों अच्छा इतना ही हुआ है कि सब प्रकार की बाधाओं को पार करते हुए अब वर्तमान मुख्य न्यायाधीश महोदय ऐसा लगता है कि इस मुकदमे का निपटारा करने का मन बनाए हैं। अगर यह होता है तो उन पर भगवान की बड़ी कृपा ही होगी।

हाईकोर्ट के आदेश के बाद 2003 में पांच महीने उत्खनन चला। उसकी रिपोर्ट से क्या यह सिद्ध होता है कि वहां राममंदिर था?
वर्ष 1993 में तत्कालीन राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से एक सवाल किया कि हमें यह सलाह दी जाए कि अयोध्या में उस विवादित भूमि पर 1528 के पहले कोई मंदिर था या नहीं। लगभग 20 महीने सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीशों ने इस पर चर्चा की। अंत में राष्ट्रपति का सवाल बिना कोई उत्तर दिये सम्मानपूर्वक वापस कर दिया गया। यह सवाल अटका ही रह गया कि 1528 के पहले क्या कोई मंदिर था? तब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साइंस एवं टेक्नोलॉजी का सहारा लिया। टेक्नोलॉजी के लोगों ने कहा कि यदि कोई बिल्डिंग किसी स्थान पर रही है और किसी ने उसको गिराया है तो जमीन के ऊपर का हिस्सा (सुपर स्ट्रक्चर) गिराया जाता है। सरकार भी जब बिल्डिंग गिराती है तो जमीन के ऊपर का हिस्सा गिराती है। इसलिए अगर कुछ गिराया गया होगा तो उसकी नींव और कुछ न कुछ अंश जमीन में जरूर मिलेंगी। इसलिए जमीन के नीचे फोटोग्राफी कराने की प्रक्रिया तय हुई। कनाडा के एक एक्सपर्ट ने फोटोग्राफी की। अपनी रिपोर्ट में कनाडा के एक्सपर्ट ने लिखा कि दूर-दूर तक जमीन के नीचे एक विशाल भवन है। मुझे दिख रहा है। तो जो वैज्ञानिक को दिख रहा है वह कोर्ट देखना चाहता है। इसलिए उत्खनन हुआ। उत्खनन से यह सिद्ध हो गया कि जमीन खाली या बंजर नहीं थी। वहां कोई बिल्डिंग था उस बिल्डिंग को तोड़कर ही नया भवन बना था। यह सिद्ध हुआ कि- इट वाज ए रिलीजियस स्ट्रक्चर। ये कोई फैमिली के रहने की जगह नहीं थी। 

राजीव गांधीचंद्रशेखर और नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्व काल में इस विवाद को सुलझाने के प्रयास हुए। सभी विफल हो गए। क्या कारण आप मानते हैं?
वार्तालाप पहली बार राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में हुई। बूटा सिंहजी और शीला दीक्षित जी वार्तालाप में बैठा करती थीं। सैयद शहाबुद्दीन साहब ने यह कह दिया था कि अगर ये पता लग जाए कि वहां कोई मंदिर था और उसे तोड़ा गया तो उसे हम स्वेच्छा से सौंप देंगे। एक दूसरे मुस्लिम नेता जो वहां बैठे थे, उन्होंने कहा था कि यह कोई माचिस कि डिब्बी नहीं है जो दे देंगे।  यह मौखिक वार्तालाप होती थी इसलिए इसका रिकॉर्ड नहीं है। लेकिन सरकार के रिकॉर्ड में यह लिखा है कि कुछ मुस्लिम नेताओं ने ये वन दिया कि यदि ये सिद्ध हो गया कि यह मंदिर था तो वह इस पर दावा छोड़ देंगे। इस रिकॉर्ड में किसी का नाम नहीं है। किसी तारीख का भी जिक्र नहीं है। वार्तालाप का सबसे ईमानदार प्रयास चंद्रशेखर जी के कार्यकाल में हु था चंद्रशेखर जी ने चार मध्यस्थ नियुक्त किये। राजस्थान, महाराष्ट्र एवं उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री क्रमशः- भैरोसिंह शेखावत, शरद पवार, मुलायम सिंह और तत्कालीन गृह राज्यमंत्री सुबोधकांत सहाय। इन चार लोगों की उपस्थिति में वार्ता होती थी। एक आईपीएस अफसर कुणाल किशोर ओएसडी के रूप में नियुक्त हुए। इस वार्तालाप का रिकॉर्ड मिलता है। हमारे पास भी है। इसके बाद 1992 में पीवी नरसिम्हा राव की प्रेरणा से वार्ता हुई, परंतु पत्राचार के द्वारा। ये पत्राचार उपलब्ध है। ये वार्ता किसीनिष्कर्ष पर पहुंची ही नहीं और छह दिसम्बर आ गया। इसलिए तीन बार के वार्तालाप का इतिहास है।  

सुप्रीम कोर्ट का तीन सदस्यीय मध्यस्थता पैनल अपने उद्देश्यों में विफल हो गया। आपका क्या कहना है?
मध्यस्थता पैनल की यह इच्छा थी कि इस वार्ता को गुप्त रखा जाए। हमने उसका पालन किया, अन्य लोगों ने भी किया। अभी वार्तालाप में क्या हुआ, क्या सवाल-जवाब हुए, क्या वो चाहते थे, क्या हम नहीं चाहते थे, इन सभी बातों का खुलासा करने का यह उपयुक्त समय नहीं है। समय आने पर जरूर बताया जाएगा कि यह वार्ता क्यों विफल हुई। ये देश के सम्मान की लड़ाई है, किसी व्यक्ति की लड़ाई नहीं है। इसलिए वार्तालाप सफल नहीं हो पा रही है। ये समाज के सम्मान से जुड़ा हुआ विषय है। समाज एक बहुत व्यापक शब्द है। इसलिए वार्ता में मुस्लिम पक्ष को भी कठिनाई हो रही है। वार्तालाप में इस स्थान को छोड़ना उनके सम्मान को ठेस पहुंचाएगा। उन पर उन्हीं के समाज के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के आरोप लगाएंगे। हम तो वार्तालाप की शर्तें स्वीकार कर ही नहीं सकते। परंतु वार्तालाप की शर्तें स्वीकार करना मुस्लिम समाज के नेताओं के लिए भी घातक होता। इसलिए जो हुआ, ठीक हुआ।

सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मुकदमे में ये 14 पक्षकार कौन-कौन हैं?
देखिए, जिन्होंने मुकदमा दायर किया, उन्हीं के पक्ष में कोई राहत मिलती है। वो कुल हैं चार। 1950 में गोपाल सिंह विशारद, 1959 में निर्मोही अखाड़ा, 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड और 1989 में रामलला विराजमान। शेष अन्य जितने भी हैं वो सब या तो प्रतिवादी हैं, या जिन्होंने बीच में इंटरवेंशन (हस्तक्षेप) किया है, हस्तक्षेप करके जो अंदर आए हैं। इन्हें कोई राहत नहीं मिलती। ये मूल मुकदमे के पक्षकार नहीं माने जाते। हां, किसी न किसी पक्ष को ये लाभ या हानि पहुंचाते हैं। इसलिए ये जो चार वादी हैं, समर्थ हैं, सक्षम हैं। पूरी तैयारी से मुकदमा लड़ रहे हैं। इसलिए जो बाकी के 10 लोग हैं, वो हमारे लिए कोई बहुत ज्यादा चिंता का विषय नहीं हैं।

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस नवंबर में रिटायर हो जाएंगे। क्या आपको विश्वास है कि तब तक यह फैसला आ जाएगा?
उत्तर- यह मुकदमा कोई बहुत लंबा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को अपने समय का महत्व पता है। कोर्ट में एक मिनट की बात को एक दिन में कहना, ये वकील की भी अयोग्यता का प्रतीक है। या वकील जानबूझकर समय बर्बाद कर रहा है। अगर कोर्ट ने इसको नियंत्रित किया, सूत्र रूप में बातें रखी गयीं, विस्तार से लिखकर दो, मौखिक कम समय लो, अगर सब लोगों ने इसका पालन किया तो मुझे विश्वास है कि यह मामला अक्टूबर में समाप्त हो जाएगा।

पिछले दिनों अनुवाद का मुद्दा उठा था, अनुवाद न होने के कारण सुनवाई स्थगित कर दी गयी, इसके पीछे का क्या कारण है?
बस, समय बर्बाद करना था। अनुवाद हो चुका था। अनुवाद को सुन्नी वक्फ बोर्ड के स्थानीय वकीलों ने स्वीकार कर लिया। इसके बाद भी एक बड़े बुजुर्ग वकील अनुवाद का बहाना लेकर खड़े हो गए, शायद उनकी आयु के कारण या जोर-जोर से बोलने के कारण, ये समय बर्बाद हो गया। अब फिर से उन्होंने अनुवाद के विषय को लगभग समाप्त कर दिया है। जनवरी-फरवरी 2018 में ही अनुवाद का चैप्टर क्लोज हो चुका है।  

सोमनाथ मंदिर के प्रबंधन के लिए एक ट्रस्ट बनाया गया। क्या राममंदिर बन जाने के बाद भी इसके संचालन के लिए ट्रस्ट बनेगा?
यह भविष्य की बातें हैं। यह सब डिपेंड करेगा सरकार पर या कोर्ट पर। हम पर डिपेंड ही नहीं करेगा। हां, सरकार सोचे इस बारे में, हम तो नहीं सोचते।

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