बुधवार, दिसंबर 29, 2010

साम्यवाद का बिगड़ैल पुत्र है नक्सलवाद !

पवन कुमार अरविंद

दुनिया की कोई भी विचारधारा हो, यदि वह समग्र चिंतन पर आधारित है और उसमें मनुष्य व जीव-जंतुओं सहित सभी प्राणियों का कल्याण निहित है; तो उसको गलत कैसे ठहराया जा सकता है। इस पृथ्वी पर साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसके संदर्भ में गभीर चिंतन-मंथन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसके प्रेरणा पुरुषों ने यह नया वैचारिक रास्ता खोजते समय समग्र चिंतन नहीं किया। मात्र कुछ समस्याओं के आधार पर और वह भी पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर, इस रास्ते को खोजा। यही कारण है कि साम्यवाद एक कृत्रिम विचारधारा के सदृश प्रतीत होती है। यदि दुनिया में इस विचारधारा का प्रभाव और उसके अनुयायियों की संख्या तेजी से घट रही है तो फिर अनुचित क्या है ?

सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक; कोई भी विचारधारा रही हो, उसका सदा-सर्वदा से यही कार्य रहा है कि वह समाजधारा को अपने अनुकूल करे। लेकिन यह कार्य बड़ा कठिन है या यूं कहें कि यह तपस्या के सदृश है। इस कठिन तपस्या के डर से लोग शार्ट-कट अपनाते हैं। समाज के लोगों को शीघ्र जुड़ता न देख साम्यवाद का झंडा लेकर चलने वाले अधीर कार्यकर्ताओं ने एक नए विकल्प की तलाश की। इन्हीं शार्ट-कट की परिस्थितियों में नक्सलवाद का जन्म हुआ। साम्यवाद ही नक्सलवाद की बुनियाद है।

मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थितियां आती हैं कि पुत्र जब ज्यादा बिगड़ जाता है तो पिता लोक-लाज के भय से उसको अपना मानने से ही इन्कार कर देता है। ठीक वैसी ही स्थिति साम्यवाद और नक्सलवाद के साथ है। साम्यवाद का बिगड़ैल (Spoiled) पुत्र है नक्सलवाद! साम्यवाद के कर्ता-धर्ता भले ही इससे इन्कार करें, लेकिन सत्य भी यही है। नक्सलवाद की नींव में साम्यवादी ईंट का जमकर प्रयोग हुआ है।

आज नक्सलवाद देश के लिए विध्वंसक साबित हो रहा है। इन कथित क्रांतिकारियों की गतिविधियों से देश की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। सुरक्षाबल और पुलिस के सैंकड़ों जवानों सहित अनगिनत निर्दोष लोग; इस कथित आंदोलन के शिकार हुए हैं। इन्हीं खूनी नक्सलियों का समर्थन करने वाले व उनकी गतिविधियों में सहायक की भूमिका निभाने के आरोप में डॉ. विनायक सेन को छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने 24 दिसम्बर को देशद्रोही करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। डॉ. सेन के साथ प्रतिबंधित नक्सली नेता नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।

विदित हो कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा चलाए गए सलवा जुडूम नामक अभियान के खिलाफ डॉ. सेन काफी मुखर रहे हैं। यह अभियान नक्सलियों के सफाए के लिए चलाया गया था। उन्होंने इस अभियान के खिलाफ धरती-आसमान एक कर दिया था। डॉ. सेन पेशे से चिकित्सक एवं ‘पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरटीज’ की छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव हैं। वे मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में ज्यादा चर्चित हैं। इस बात की भी प्रबल संभावना है कि उन्होंने चिकित्सा की आड़ में भोले-भाले गरीब आदिवासी व वनवासियों को नक्सलवाद से जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने जेल में बंद नक्सली नेता नारायण सान्याल के लिए व्यक्तिगत पोस्टमैन की भूमिका अदा की और जेल अधिकारियों के पूछने पर उनका उत्तर रहता था कि “मैं तो सान्याल के घर का हूं, उनका हालचाल जानने आया हूं।” लेकिन यह झूठी सूचना ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी।

डॉ. सेन के संदर्भ में वामपंथी वुद्धिजीवियों और अंग्रेजी मीडिया के एक वर्ग को अदालत का यह फैसला नागवार गुजरा है। इन्हीं वुद्धिजीवियों में से कुछ ने सोमवार को नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दिया और उनकी रिहाई की मांग की। वामपंथी प्रदर्शनकारियों का कहना था कि डॉ. सेन को जबरन फंसाया गया है। वे यह कतई मानने को तैयार नहीं है कि यह अदालत का फैसला है और इसके बाद अभी ऊपरी अदालतों का फैसला आना शेष है। आखिर सत्र न्यायालय के फैसले के आधार पर ही सेन साहब को दोषी कैसे मानलिया जाए ? तो फिर ये वामपंथी चिंतक इतने अधीर क्यों हैं ? उनको धैर्य पूर्वक शीर्ष अदालत के फैसले का इंतजार करना चाहिए। जब तक सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं आ जाता, सेन साहब सचमुच निर्दोष हैं।

वामपंथी बुद्धिजीवियों को भारतीय न्यायिक प्रणाली के तहत अब तक हुए निर्णयों पर भी ध्यान देना चाहिए। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज तक कभी भी कोई निर्दोष व्यक्ति कठोर सजा का भागी नहीं हुआ है। भारतीय न्याय प्रणाली की यह एक बहुत बड़ी विशेषता है। यही विशेषता उसकी रीढ़ है। भले ही न्याय देर से क्यों न मिले लेकिन इस देरी के पीछे मुख्य कारण यह है कि कोई निरपराध व्यक्ति न्यायालय की तेजी का शिकार न हो जाए।

तो फिर वामपंथी वुद्धिजीवी इतने अधीर क्यों हो रहे हैं ? उनको न्याय प्रणाली पर भरोसा रखना चाहिए। उनको यह भी विश्वास करना चाहिए कि यदि वास्तव में डॉ. सेन ने देशहित का कार्य किया है तो अंतिम न्यायालय का निर्णय अन्यायपूर्ण नहीं होगा। लेकिन जिस प्रकार वामपंथी वुद्धिजीवियों ने कानून का उपहास किया है और फैसले पर आपत्ति की है, वह स्वस्थ परम्परा का द्योतक नहीं कहा जा सकता है। कानून का उपहास करना और न्यायप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना देश की सम्प्रभुता के खिलाफ माना जाना चाहिए। धीरे-धीरे यही कदम देश की सम्प्रभुता के समक्ष मजबूत चुनौती पेश कर सकती है। इसलिए खतरनाक है।

गुरुवार, दिसंबर 23, 2010

गांधीवाद और गांधीत्व में बड़ा फर्क है

पवन कुमार अरविंद

देखो भई; जब भ्रष्टाचार करना हो तो कम से कम गांधी टोपी को उतार दिया करो। गांधी टोपी को पहन कर ही ऊल-जुलूल हरकतें करना और नीयत में खोट लाना, गांधी को गाली देने के ही बराबर है। यह सरासर अनुचित है।

आखिर देश के राष्ट्रपिता कहे जाने वाले महात्मा गांधी से भ्रष्टाचारियों का क्या सम्बंध है ? समझ में नहीं आता कि गांधी के नाम की टोपी को बार-बार भ्रष्टाचार की काली करतूतों के पीछे क्यों घसीटा जाता है। जब किसी भ्रष्टाचारी नेता का कार्टून बनाना हो, कांग्रेस के विरोध में किसी नेता का पुलता फूंकना हो और ऐसे ही अन्य मौकों पर गांधी टोपी का प्रयोग जरूर किया जाता है। आखिर ऐसा क्यों है ? हालांकि ऐसा सभी कार्टूनों में नहीं होता। फिर भी ज्यादातर भ्रष्टाचारी नेताओं के कार्टूनों में गांधी टोपी का प्रयोग किया जाता है। ऐसा करना उनके विचारों को चिढ़ाने वाला ही प्रतीत होता है। क्या गांधी जी और भष्टाचार को आप एक ही सिक्के के दो पहलू मानते हैं? गांधी जी ने जीवन भर आत्मपरिष्कार और सुचिता पर विशेष ध्यान दिया और त्याग, सत्य व अंहिसा का अनूठा उदाहरण समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया। फिर भी उनकी टोपी को सरेआम क्यों नीलाम किया जा रहा है। यह किसी के भी समझ से परे है।

हालांकि, गांधी टोपी से कांग्रेस का भी कोई सम्बंध नहीं है। क्योंकि उसने स्वतंत्रता के तत्काल बाद गांधी को नजरअंदार कर दिया था। गांधी ने कहा था कि अब तो देश स्वतंत्र हो चुका है; लिहाजा इस कांग्रेस नामक संस्था को भंग कर दिया जाए। क्योंकि यह कांग्रेस आजादी की लड़ाई लड़ने का एक सामूहिक मंच थी। इस मंच से सभी विचारधाराओं के लोगों का जुड़ाव था। लेकिन इस संदर्भ में कांग्रेसियों ने गांधी की बात नहीं मानी और आजादी के बाद से ही गांधीत्व को ठोकर मारनी शुरू कर दी थी। दरअसल, गांधी को यह आशंका थी कि स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सेदारी की ढोल पीटकर कांग्रेस अपने नाम का दुरुपयोग कर सकती है। इसलिए कांगेस नामक संस्था को भंग करने के लिए गांधी ने बार-बार आग्रह किया।

वैसे गांधी जी कोई भगवान नहीं थे कि उनके अंदर एक भी दोष न हों, वह भी आदमी ही थे। इसलिए जीवन में उनसे भी कई गलतियां जरूर हुई होंगी। इस संदर्भ में यदि देखा जाए तो ‘गांधीत्व’ और ‘गांधीवाद’ में बड़ा फर्क है। ‘गांधीवाद’ जहां गांधी जी के जीवन के नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं पर आधारित विचारों का समुच्चय है, वहीं ‘गांधीत्व’ शब्द का अभिप्राय केवल सकारात्मक तत्व और उसके समुच्चय से है। यानी गांधी के सम्पूर्ण जीवन पर आधारित विचार को गांधीवाद का नाम दिया जा सकता है। जबकि उनके सम्पूर्ण जीवन के केवल सकारात्मक पहलुओं पर आधारित विचार को गांधीत्व के नाम से पुकारा जा सकता है। अर्थात; गांधीवाद का सकारात्मक पक्ष ही गांधीत्व है। गणित की भाषा में कहें तो गांधीवाद विचारों का एक समुच्चय है; जबकि गांधीत्व उसका उप-समुच्चय। लेकिन यह उप-समुच्चय होते हुए भी गांधीवाद रूपी समुच्चय से काफी बड़ा है।

गांधी टोपी पहनने के बाद व्यक्ति की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है; क्योंकि यह केवल टोपी नहीं बल्कि एक विचार का प्रतिनिधित्व करता है। गांधी टोपी पहनना यानी ‘गांधीवाद’ नहीं बल्कि ‘गांधीत्व’ का आचरण करना है। लेकिन वर्तमान कांग्रेसी एक ऐसे गांधी टोपी को धारण किए हैं जिसका न तो गांधीवाद से कोई संबंध है और न ही गांधीत्व से। हालांकि कांग्रेस में गांधीत्व का आचरण करने वाले नेताओं की भी कोई कमी नहीं है, लेकिन ऐसे लोग संगठन और सरकार में हाशिए पर रखे जाने के कारण दिखाई कम पड़ते हैं। ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं जो गांधी टोपी धारण नहीं करते; पर गांधी के पक्के भक्त हैं। ऐसे लोगों के लिए गांधी टोपी पहनने या न पहनने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि ऐसे लोगों का जीवन ही गांधीत्व का अनुपम उदाहरण है। ऐसे ही लोग गांधीत्व की रीढ़ हैं।

फिलहाल, गांधी टोपी धारण कर भ्रष्टाचार की अविरल गंगा प्रवाहित करने वाले नेताओं के आचरण से तो यही लगता है कि यह टोपी अब गांधी के विचार का नहीं बल्कि उनकी पार्थिव देह का प्रतीक बनकर रह गया है। यानी टोपी धारण करना केवल दिखावा भर है।

जरा सोचिए, जो व्यक्ति या संगठन गांधी को पूर्ण रूपेण आत्मसात कर लेगा, उसको भ्रष्टाचार से कुछ भी लेना-देना रह जाएगा क्या ? वह भ्रष्टाचार पर मौन कैसे रह सकेगा ? यदि कांग्रेसजन गांधी को अपना लिए होते, तो ‘भ्रष्टाचार की अविरल गंगा’ प्रवाहित क्यों करते ? इसके पीछे मुख्य कारण गांधीत्व को अंगीकार न करना ही है। यदि आप गांधी के विचारों की बार-बार दुहाई देते हैं और गांधी टोपी भी पहनते हैं; फिर भी आप भ्रष्टाचार करने से बाज नहीं आए, तो इसका स्पष्टीकरण मात्र एक ही शब्द में किया जा सकता है कि आप ढपोरसंख हैं। आपके लिए गांधी टोपी केवल मलाई काटने व चाटने का एक यंत्र भर है। इसलिए अच्छा यही होगा कि गांधी को बदनाम मत करिए, उनको चैन की सांस लेने दीजिए।

बुधवार, दिसंबर 15, 2010

श्रीरामचरितमानस का डच भाषा में अनुवाद करने वाले श्री रामदेव कृष्ण से पवन कुमार अरविंद की बातचीत-

भारतीय मूल के हालैंड निवासी अध्यापक व प्रसिद्ध नाट्यकर्मी श्री रामदेव कृष्ण ने तुलसीदास की श्रीरामचरितमानस का डच भाषा में अनुवाद किया है। यह गद्य रुप में है। इसका लोकार्पण 14 जनवरी 2011 को सूरीनाम में पहली बार आयोजित होने वाले कुंभ मेले के दौरान वहां के राष्ट्रपति श्री देसी बोतरस द्वारा किया जाएगा। श्री रामदेव इस सप्ताह अपने त्रि-दिवसीय दौरे पर भारत आए थे। इस दौरान उन्होंने दिल्ली के संकटमोचन आश्रम में सोमवार (13 दिसम्बर) को आयोजित एक सादे समारोह में डच भाषा में अनूदित ग्रंथ की पाण्डुलिपि की सीडी विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल को सौंपी। इस कार्यक्रम के तत्काल बाद पवन कुमार अरविंद ने श्री रामदेव से विस्तृत बातचीत की है। प्रस्तुत है बातचीत के अंश-

Que. तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस का डच भाषा में अनुवाद करने की प्रेरणा आपको कहां से मिली ?

Ans. श्रीरामचरितमानस के अनुवाद की प्रेरणा मुझे वैरागी अखाड़ा के संत स्वामी ब्रह्मस्वरूपानंद उपाख्य स्वामी ब्रह्मदेव से मिली। उन्होंने ही मुझे इस कार्य के लिए प्रेरित किया और समय-समय पर आवश्यक सुझाव दिए, जिसके कारण आज ये संभव हो पाया है। स्वामी जी भारतीय संत हैं। उनका मुख्य आश्रम त्रिनिडाड में है। इसके अतिरिक्त अमेरिका, नार्वे, सूरीनाम, फ्लोरिडा; आदि देशों में भी आश्रम है। वे पिछले कई वर्षों से विदेशों में रामकथा व भागवतकथा के माध्यम से भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रचार-प्रसार के कार्य में सक्रिय हैं।

Que. अनुवाद के दौरान आपको भाषा की क्या-क्या दिक्कतें आईं ?

Ans. मैं अपने जीवन के 18-19 वर्षों तक हिंदी और डच भाषा नहीं जानता था। हिंदी में केवल हाँ और ना की ही जानकारी थी। डच भाषा को मैं राक्षसी भाषा मानता था। लेकिन यह जानकारी जब स्वामी ब्रह्मस्वरूपानंद जी को हुई; तो उन्होंने मुझे कहा कि शर्म करो, तुम भारतीय मूल के हो; फिर भी हिंदी नहीं जानते। स्वामी जी के इस कथन के बाद मैंने हिंदी के साथ डच भाषा भी सीखी। इसके बाद मैंने डच और हिंदी भाषा की एक किताब लिखी, ताकि डच लोग भी हिंदी सीख सकें।

Que. डच भाषा की लिपि क्या है ?

Ans. रोमन।

Que. श्रीरामचरितमानस की विषय-वस्तु को जानने-समझने में यदि किसी और माध्यम या व्यक्ति ने आपकी मदद की हो, उसके बारे में बताइए ?

Ans. श्रीरामचरितमानस और उसके प्रमुख पात्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के व्यक्तित्व को जानने-समझने में डीडी-1 चैनल पर प्रसारित होने वाले रामानंद सागर की प्रसिद्ध हिंदी धारावाहिक रामायण ने मुख्य भूमिका अदा की। रामानंद सागर के धारावाहिक को मैंने अपना गुरू माना। इसके पहले मैंने कभी रामायण नहीं पढ़ी थी। लेकिन धारावाहिक देखने के बाद मैं रामायण पढ़ने के लिए उत्सुक हुआ। जितनी बार पढ़ता, उतनी बार कुछ न कुछ नयी जानकारियां मिलीं। जिससे अनुवाद में काफी सहूलियत हुई।

Que. अनुवाद का कार्य आपने कितने दिनों में पूरा किया ?

Ans. अनुवाद करने में कुल 20 महीने का समय लगा। मैं प्रतिदिन 18 घंटे कार्य करता था और शेष 6 घंटे सोने और नियमित दिनचर्या में लगाता था। इस दौरान मेरी पत्नी श्रीमती नसीम कृष्ण का विशेष सहयोग मिला। बिना उनके सहयोग के यह कार्य संभव नहीं था। वे कॉफी बना-बनाकर मुझे देती रहती थीं और मैं केंद्रित होकर अनुवाद के कार्य में लगा रहता था। अनुवाद के साथ ही पुस्तक के लिए लेआउट, तुलसीदास जी की पेंटिग्स, बजरंगबली की पेंटिग्स भी बनाया।

Que. क्या आप श्रीरामचरितमानस के बाद भी किसी अन्य ग्रंथ या साहित्य का डच भाषा में अनुवाद करने की सोच रहे हैं ?

Ans. इसके बाद मैं तुलसीदास रचित एक अन्य साहित्य “वैराग्य संदीपनी” का डच भाषा में अनुवाद करुंगा। मेरा प्रयास होगा कि यह कार्य भी शीघ्र सम्पन्न हो जाए।

Que. इसके अतिरिक्त आपकी और क्या योजनाएं हैं ?


Ans. मेरी योजना भगवान श्रीराम के जीवन से जुड़ी “फ्राम हे राम टू श्रीराम” नामक एक नाटक पर कार्य करने की है। यह तीन भागों में होगा। जिसमें इतिहास, रामचिरतमानस और महात्मा गांधी से जुड़ी विषय-वस्तु का समावेश होगा।

Que. यह नाटक लिखने का आपका क्या उद्देश्य है ?

Ans. इस नाटक के माध्यम से मैं यह बताना चाहता हूं कि जब 150 से 170 वर्षों पूर्व हमारे पूर्वज गिरमिटिया मजदूर के रूप में सूरीनाम, हॉलैंड, त्रिनिडाड आदि देशों में आए तो क्या कारण था कि श्रीरामचरितमानस को भी साथ लाये। महात्मा गांधी ने क्यों मरते वक्त हे राम का उच्चारण किया था, आदि। इन सब बातों से जुड़े प्रश्नों का विस्तृत ढंग से वर्णन करूंगा। ताकि लोग राम के महत्व को आसानी से समझ सकें।

Que. इसके अलावा आपकी कोई और उपलब्धि हो, तो बताइए ?


Ans. श्रीरामचरितमानस का अनुवाद कार्य शुरू करने से पूर्व मैंने रामलीला का आयोजन किया था, जिसमें सभी पात्र हिंदी में बोलते थे। मैं समझता हूं कि पात्रों का हिंदी में वाद-संवाद करना मेरी बड़ी उपलब्धि है। इसके अतिरिक्त हनुमान चालीसा का डच में अनुवाद करूंगा।

Que. अपने बारे में कुछ बताइए ?


Ans. मेरी पैदाइश सूरीनाम में हुई। शिक्षा-दीक्षा सूरीनाम और हॉलैंड में हुई। मैं हॉलैंड के माडर्न स्कूल में अध्यापक हूं। मेरे पूर्वज भारतीय राज्य राजस्थान की राजधानी जयपुर के रहने वाले और मेरी पत्नी के पूर्वज कलकत्ता के निवासी हैं। वे लोग गिरमिटिया मजदूर के रूप में करीब 150 से 170 वर्षों पूर्व सूरीनाम और त्रिनिडाड गए थे और वहीं के होकर रह गए।

बुधवार, दिसंबर 01, 2010

स्थितप्रज्ञ हुए मनमोहन

पवन कुमार अरविंद

देश के जाने माने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह जब से प्रधानमंत्री बने हैं तभी से ‘स्थितप्रज्ञ’ गति को प्राप्त हो गए हैं। उन्होंने यूपीए-1 की सरकार का सफल नेतृत्व तो किया ही, यूपीए-2 की सरकार का भी नेतृत्व बड़े ही सहज और सफलता के साथ करते दिखाई दे रहे हैं। बड़े-बड़े ऋषि मुनियों को कठोर तपश्चर्या के बाद ही स्थितप्रज्ञता की अवस्था प्राप्त होती है; लेकिन मनमोहन ने बहुत ही आसानी से यह मुकाम हासिल कर लिया है। यह उनकी व्यक्तिनिष्ठा का प्रभाव ही कहा जाएगा कि वे ऐसी अवस्था को बिना कठोर तपश्चर्या के ही हासिल कर पाए हैं। जब वे स्वयं को भूल गए तो उन्होंने पराक्रम की बजाय परिक्रमा शुरू कर दी। फलतः परिणाम आज सबके सामने है।

इस अवस्था में पहुंच जाने के कारण ही मनमोहन को कुछ भी दिखाई नहीं देता। जब किसी ऐसे विषम अथवा असामान्य स्थिति का आभास होता है तो वे अपनी आंख, कान और नाक बंद कर लेते हैं। यहां तक उनको किसी के संदर्भ में कुछ बोलना भी पसंद नहीं है। वे इस सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने ही समान ईमानदार मानते हैं। देश-दुनिया में क्या हो रहा है और उनके मंत्रिपरिषद के सदस्य क्या कर रहे हैं, उनको इससे कुछ भी लेना-देना नहीं। ऐसा इसीलिए है क्योंकि उन्होंने अपनी आत्मा को स्वयं में ही संतुष्ट रखने की महारत हासिल कर ली है।

यह उनकी तपश्चर्या की सिद्धि ही कही जाएगी कि कई घोटाले उनकी नाक के नीचे हुए फिर भी वे अपने को इससे अलग रखने में कामयाब रहे। चाहे 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन के रूप में देश का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला हो या फिर राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों व अन्य मदों में किए गए हजारों करोड़ के हेर-फेर का मामला, इन सभी स्थितियों में उनकी स्थितप्रज्ञता कमाल की रही।

दरअसल ‘स्थितप्रज्ञ’ शब्द की चर्चा श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में की गई है। गांडीवधारी अर्जुन लीलापुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि हे केशव, स्थितप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं ? श्रीकृष्ण कहते हैं- “हे पार्थ, जब व्यक्ति अपने मन में स्थित सभी कामनाओं को त्याग देता है और अपने आप में ही अपनी आत्मा को संतुष्ट रखता है, जो दुःख से विचलित नहीं होता और सुख से उसके मन में कोई उमंगे-तरंगें नहीं उठतीं, जो व्यक्ति इच्छा व तड़प, डर व गुस्से से मुक्त हो। अच्छा या बुरा कुछ भी पाने पर, जो ना उसकी कामना करता है और न उससे नफरत करता है, ऐसे व्यक्ति की बुद्धि ज्ञान में स्थित है। उदाहरण के तौर पर जैसे कछुआ अपने सारे अँगों को खुद में समेट लेता है, वैसे ही जिसने अपनी इन्द्रियों को उनके विषयों से निकाल कर खुद में समेट लेता है, ऐसे धीर मनुष्य को ही ‘स्थितप्रज्ञ’ कहा जाता है।” तो धन्य हैं मनमोहन सिंह। (व्यंग्य)

रविवार, नवंबर 28, 2010

सोनिया की चुप्पी और मनमोहन का ‘धृतराष्ट्रवाद’

पवन कुमार अरविंद

महाभारत में द्यूत क्रीड़ा के समय हस्तिनापुर राज्य के राजभवन में कौरव पुत्र अपने कुटिल मामा शकुनि के नेतृत्व में पांचों पाण्डवों के खिलाफ छल व कपट से पूर्ण पासे फेंक रहे थे। राजभवन में महाराज धृतराष्ट्र और गण्यमान्य लोगों सहित मंत्री, नायक, सेनानायक व राज्यसभा के सभी सदस्य उपस्थित थे। द्यूत क्रीड़ा देखकर पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, कुलगुरू कृपाचार्य और विदुर सहित धर्म-कर्म के सैंकड़ों मर्मज्ञ महापुरुष स्तब्ध थे। सभी के चेहरे पर गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था। कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं था। सभी गंभीर चिंतन के कारण चिंतित नजर आ रहे थे। हालांकि स्थिति इतनी भी गंभीर नहीं थी कि कुछ बोला ही न जा सके। धृतराष्ट्र तो चुप थे ही, अपनी प्रतिज्ञा से इस पृथ्वी को हिला देने वाले भीष्म भी चुप थे। भई कोई बोले भी क्यों ? राजा का नमक जो खाया था, इसलिए किसी न किसी तरह उसका मूल्य तो चुकाना ही था। अतः चुप्पी साधकर सभी धुरंधर गण्यमान्य महापुरुष अपने-अपने नमक का कर्ज चुका रहे थे।

राजभवन में द्यूत क्रीड़ा चल रही थी। अंदर से छन-छनकर खबरें बाहर आ रही थीं। हस्तिनापुर की प्रजा हैरान थी और जानना चाहती थी कि अंदर हो क्या रहा है व आगे क्या होने वाला है ? लेकिन इतना सब होते हुए भी प्रजा को भीष्म पर भरोसा था। क्योंकि उनकी त्याग, तपस्या, पराक्रम और शौर्य से सभी भलीभांति परिचित थे। सब जानते थे कि जब तक राजभवन में भीष्म उपस्थित रहेंगे, तब तक कुछ भी ऐसा नहीं होगा जिससे राजतंत्र की महिमा और गरिमा को ठेस पहुंचे।

राज्य की प्रजा को जितना भीष्म पर भरोसा था उतना अपने महाराजा धृतराष्ट्र पर नहीं था। क्योंकि उन्होंने पाण्डु की मृत्यु के बाद हस्तिनापुर की सत्ता पर एकाधिकार जमा लिया था और अभिषिक्त राजा की तरह व्यवहार करने लगे थे। उनका आचार-व्यवहार सत्ता उत्तराधिकार की “अग्रजाधिकार विधि” के अनुसार विधिसम्मत नहीं था। कुछ समय बाद वे अपने पुत्र दुर्बुद्धि दुर्योधन के मोह में पाण्डु पुत्रों को सत्ता का उचित हक देने से भी कतराने लगे थे। इसलिए राज्य की प्रजा उनको भरोसे के काबिल नहीं समझती थी। यहां तक कि राजभवन में उपस्थित द्रोणाचार्य, कृपाचार्य व अन्य ऋषि सदृश शूरवीरों पर भी जनता को भीष्म जैसा भरोसा नहीं था। चूंकि भीष्म उपस्थित थे, इसलिए प्रजा के चेहरे पर शांति का एक सुरक्षात्मक भाव था।

हस्तिनापुर की जनता को तब गहरा धक्का लगा जब भीष्म की उपस्थिति में ही सारी लोकमर्यादाएं तार-तार हो गईं। पाण्डव अपना खांडव प्रदेश सहित सारा राजपाट जुए के खेल में हार चुके थे। हारने के बाद राजपरिवार की बहू द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया गया था। द्रौपदी का चीरहरण तक हुआ। ये सब बातें जानकर प्रजा हैरान थी कि आखिर ऐसा कैसे हो गया। भीष्म उपस्थित थे फिर भी...? क्या भीष्म ने सत्तालोलुपों और भ्रष्टाचारियों को रोकने की जरा सी भी चेष्टा नहीं की ? ये सारी बातें प्रजा के मन में चल रही थीं।

यह सत्य है कि भीष्म के पास उस समय कोई राजकीय पद नहीं था, लेकिन वे कुरुवंश के सबसे वरिष्ठ, प्रभावशाली व पराक्रमी शूरवीर थे। वे अपने पिता शांतनु के शासनकाल से ही हस्तिनापुर की राजनीति के बारे में रग-रग से परिचित थे। सत्ता व राज्य की प्रजा में उनकी गहरी पकड़ थी। लेकिन कुरुवंश की प्रतिष्ठा पर कलंक लगते समय उनका मौन धारण किए रहना चिंताकारक था। यदि वे इस पापाचार के खिलाफ आवाज उठाते तो दुर्योधन, कर्ण और शकुनि की क्षमता नहीं थी कि वे उनकी मानहानि करते। इतना सब होते हुए भी वे चुप थे। यह मौन ही था जो महाभारत होने के प्रमुख कारणों में से एक गिना गया था। क्योंकि अपमानित द्रुपद-सुता द्रौपदी अपना केश खोलकर उसको दुःशासन के लहू से धोने तक, न बांधने का संकल्प ले चुकी थीं।

ठीक इसी प्रकार श्रीमती सोनिया गांधी भी चुप रहीं। वे सरकार में कुछ नहीं होते हुए भी उसकी सबकुछ हैं। सत्ता की सारी शक्ति उनमें निहित है। सारे संघीय मंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री भी, उनकी बातों का अक्षरशः पालन करते हैं। इसी कारण विपक्षी दलों के नेता उनको ‘सुपर पी.एम.’ कहते हैं और डॉ. मनमोहन सिंह को ‘रबर स्टैंप पी.एम.’। यानी केंद्रीय मंत्रिपरिषद के नाम मात्र के प्रमुख डॉ. सिंह हैं, जबकि वास्तविक प्रमुख सोनिया। इसी कारण मंत्रिपरिषद के सदस्य मनमोहन की अपेक्षा सोनिया की बातों पर ज्यादा ध्यान देते हैं।

जब ए. राजा ने सरकार को ब्लैकमेल करना शुरू किया तो ऐसा नहीं है कि सोनिया इससे बे-खबर थीं। राजा ने मनमानी करने के लिए मनमोहन पर लगातार दबाव बनाया। मनमोहन ने राजपाट जाने के डर से उनकी बातें मान ली। फलतः वर्ष 2006-07 में 2जी स्पेक्ट्रम के आवंटन का मामला मंत्रिमंडल समूह के विषय से परे कर दिया गया। अब ए. राजा वास्तव में “राजा” बन गए थे। उन पर कोई बंदिश नहीं रह गई थी। वह 2जी स्पेक्ट्रम की बंदरबाँट करने के लिए स्वतंत्र हो गए थे। चूँकि, वह यू.पी.ए. सरकार की सहयोगी पार्टी के नेता थे, इसलिए उनकी स्वतंत्रता कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी। वह सरकार से भी मजबूत दिखने लगे थे। उनके क्रियाकलापों पर न तो ईमानदार कहे जाने वाले मनमोहन को चिंता थी और न ही सोनिया को।

दरअसल, सत्ता के वैभव में एक ऐसा आलोक होता है जिसके प्रचण्ड तेज में अनेक प्रतिभावान और ईमानदार व्यक्ति विलुप्त हो गए हैं। लगता है कि मनमोहन भी इसी के शिकार हो गए थे। हालांकि मनमोहन ने जब स्पेक्ट्रम का मामला मंत्रिमंडल समूह से परे रखने का फैसला किया, तो ऐसा नहीं था कि सोनिया को इसकी जानकारी नहीं थी। इस विषय पर मनमोहन ने अकेले निर्णय ले लिया होगा, यह बात भी आसानी से हजम होने वाली नहीं है। यानी भीष्म की तरह ‘राजमाता’ सोनिया भी पापाचार के दौरान मौन रहीं और सारा खेल-तमाशा देखती रहीं। फलतः राजा ने 1.76 लाख करोड. रुपए का चूना लगा दिया, जो देश का सबसे बड़ा घोटाला सिद्ध हो रहा है।

अब प्रश्न यह उठता है कि यदि सोनिया इस पापाचार का विरोध करतीं तो सत्ता व संगठन का कोई भी व्यक्ति उनकी अवज्ञा करने की जुर्रत नहीं करता। फिर भी वे चुप रहीं, यह चिंताकारक है। साथ ही लोकमानस में कई प्रकार की आशंकाओं को भी जन्म देता है। इस घोटाले से भारत की जनता महाभारतकालीन हस्तिनापुर की प्रजा की तरह हैरान है। जैसे भीष्म की चुप्पी से द्रौपदी अपमानित हुई थीं, ठीक उसी प्रकार सोनिया के मौन से लोकतंत्र अपमानित हुआ है। प्रचलित लोक-मानदंडों के अनुसार, मौन होकर भ्रष्टाचार का खेल देखने वाला व्यक्ति भ्रष्टाचारी के समान ही दोषी कहा जाता है। इसलिए लोक का धन लुटता हुआ देखने वाले सोनिया और मनमोहन लोक-अपराधी हैं। इसके लिए जनता उनको कभी माफ नहीं करेगी।

रविवार, नवंबर 14, 2010

कांग्रेस : सत्य से जंग, असत्य के संग

पवन कुमार अरविंद

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निवर्तमान सरसंघचालक कुप्पहल्ली सीतारामैया सुदर्शन ने कांग्रेस नेत्री श्रीमती सोनिया गांधी के संदर्भ में जो कुछ भी कहा है वह कोई नई बात नहीं है। इसके पहले भी इस तरह की चर्चाएं कई बार हो चुकी हैं। श्री राजीव गांधी की हत्या के बाद देश भर में चौराहों और चायखानों पर इस तरह की चर्चा होना आम बात थी। यही नहीं इस प्रकार की चर्चा करने वालों में कई बड़े लोग भी शामिल थे। लेकिन ऐसा पहली बार ही है कि सोनिया के संदर्भ में सुदर्शन जी जैसे बड़े व्यक्तित्व ने इस प्रकार की चर्चा सार्वजनिक रूप से की है। उन्होंने सोनिया गांधी पर इंदिरा गांधी व राजीव गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया और उनको ‘सीआईए की एजेंट’ और ‘अवैध संतान’ भी करार दिया था। उन्होंने यह बयान कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की हिंदू विरोधी नीतियों के खिलाफ संघ द्वारा भोपाल में 10 नवम्बर को आयोजित एक धरना सभा के बाद पत्रकारों से बातचीत में दिया।

श्री सुदर्शन ने कहा था- “सोनिया के जन्म के समय उनके पिता जेल में थे। इस बात को छिपाने के लिए ही वे अपनी जन्मतिथि 1944 के बजाय 1946 बताती हैं। सोनिया का असली नाम सोनिया माइनो है। वे सीआईए की एजेंट थीं। राजीव ने ईसाई धर्म अपनाकर राबर्ट नाम से उनसे शादी की। बाद में इंदिरा गांधी ने वैदिक पद्धति से उनकी शादी कराई। इंदिरा गांधी को इस बात की भनक लग गई थी कि सोनिया सीआईए की एजेंट हैं। पंजाब में आतंकवाद के चरम पर पहुंचने पर सोनिया ने इंदिरा की हत्या का षड्यंत्र रचा। इंदिरा की सुरक्षा से सतवंत सिंह को हटाने की बात हुई थी। लेकिन सोनिया ने यह नहीं होने दिया। इंदिरा गांधी को गोली लगने के बाद वे उन्हें करीब के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में ले जाने की जगह वे एम्स ले गई थीं, जो काफी दूर है। फिर राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के बाद इंदिरा गांधी की मृत्यु की घोषणा की गई। राजीव को भी सोनिया पर शक हो गया था। वे उनसे अलग होने का मन बना रहे थे। सोनिया के इशारे पर ही श्रीपेरुंबुदूर की सभा में राजीव को जेड प्लस सुरक्षा नहीं दी गई।” श्री सुदर्शन ने यह भी बताया कि ये सारी जानकारी एक कांग्रेस नेता ने उन्हें दी है। लेकिन उन्होंने इस नेता के नाम का खुलासा नहीं किया।

राजीव गांधी की हत्या के बाद शुरू हुई इन चर्चाओं का दूसरा दौर उस समय प्रारम्भ हुआ जब पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली सत्ताधारी कांग्रेस 1996 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गई थी। चुनाव बाद कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को नरसिम्हा राव में कांग्रेस का भविष्य नहीं दिख रहा था। अतः गांधी परिवार में निष्ठा रखने वाले कांग्रेसी नेताओं ने सत्ता की तीव्र आकांक्षा के कारण सोनिया गांधी से पार्टी का नेतृत्व करने का आग्रह किया था। लेकिन सोनिया ने पार्टी में भीषण गुटबाजी देखकर नेतृत्व से इन्कार कर दिया था। हालांकि श्रीमती गांधी ने कांग्रेस के 1997 के कोलकाता राष्ट्रीय अधिवेशन में पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और 1998 में पार्टी की अध्यक्ष बनीं। कोलकाता अधिवेशन में सदस्यता ग्रहण करने के बाद एक बार फिर इस प्रकार की चर्चाएं हुई थीं।

श्रीमती सोनिया गांधी के संदर्भ में पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री व जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने सुदर्शन जी के बयान के बहुत पहले ही अपने पार्टी की अधिकृत वेबसाइट (www.janataparty.org) पर इस प्रकार की जानकारी का उल्लेख कर दिया था। फिर सुदर्शन जी का बयान नया कैसे कहा जा सकता है? क्या इसके पूर्व कांग्रेसी नेताओं को डॉ. स्वामी के वेबसाइट की जानकारी नहीं थी? सुदर्शन जी के वक्तव्य और उससे उपजे गतिरोध के बाद डॉ. स्वामी ने तो उनके द्वारा सोनिया पर लगाए गए आरोपों को न्यायालय में सिद्ध कर देने का दावा किया। हालांकि, सोनिया पर लगाए गए ऐसे आरोप कितने सही हैं, यह सोनिया के सिवाय और कौन बता सकता है ? लेकिन उनके संदर्भ में इस प्रकार के आरोपों का धुंआ बार-बार उठने से यह आशंका भी उत्पन्न होती है कि ये आरोप कहीं सत्य तो नहीं हैं? सोनिया पर लगाए गए ये आरोप चाहे उनके व्यक्तिगत जीवन से ही क्यों न जुड़ी हों, यदि ये राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित कर रही हैं तो जनता को इसकी सत्यता जानने का अधिकार है। सुदर्शन जी को बहुत-बहुत धन्यवाद कि उन्होंने एक ऐसे बहस को पुनर्जीवित कर दिया है जिस पर निर्णय बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था।

सुदर्शन जी ने श्रीमती गांधी के संदर्भ में जो कुछ भी कहा है उसके लिए प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस पार्टी व उसके प्रमुख कर्ता-धर्ता हैं। क्योंकि कांग्रेस और उसके नेता संघ और हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों को बदनाम करने के अभियान में निरंतर लगे हुए हैं। इस कुत्सित अभियान में लगे कांग्रेसी नेताओं को तनिक भी मर्यादा का ख्याल नहीं रहा, जो मुंह में आया, बेधड़क बोलते गए और सारे लोकतांत्रिक मूल्य और मर्यादाएं तार-तार हो गईं।

इस कुत्सित अभियान में लगे ‘महारथियों’ में से एक हैं कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह जी। ये महाशय अपने विवादित बयानों के लिए ही जाने जाते हैं और हर विषय को विवादित बनाकर प्रस्तुत करते हैं। ऐसा करते-करते उनको ‘बिना सिर पैर की बातें’ करने में महारत हासिल हो गई हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने उनको महासचिव का ओहदा भी इसी कार्य हेतु थमा रखा है। कांग्रेस के दूसरे ‘महारथी’ हैं केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम जी। उनको कांग्रेस का सौम्य और गंभीर चेहरा माना जाता है। उनके सौम्यता व गंभीरता की पोल तब खुली जब उन्होंने एक निरर्थक बयान दे डाला। उन्होंने हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों को बदनाम करने के निमित्त ‘हिंदू आतंकवाद’ और ‘भगवा आतंकवाद’ सरीखे नए शब्दों का प्रयोग किया। उनके बयान की देश भर में जबर्दस्त आलोचना हुई। देश के करीब सभी बुद्धिजीवी, विद्वतजन और लेखकों ने इन शब्दों के प्रयोग को अवांछित मानते हुए सिरे से ही खारिज कर दिया।

हद तो तब हो गई जब कांग्रेस के एक ‘नवजात महारथी’ राहुल गांधी ने संघ और प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी को एक समान करार दिया। उनके इस प्रकार के बयान से स्वयं उन्हीं को घाटा उठाना पड़ा। देश भर के करीब सभी बुद्धिजीवियों ने राहुल को देश की संस्कृति व सभ्यता से अनभिज्ञ मानते हुए उनको अपरिपक्व व नौसिखुआ राजनेता करार दिया। इसी प्रकार के सैकड़ों बयान कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के अन्य पदाधिकारियों ने संघ व हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों को बदनाम करने के उद्देश्य से दिए। हालांकि, इन निरर्थक बयानों के बाद कांग्रेस ने खेद तक प्रकट करना उचित नहीं समझा। वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सुदर्शन जी के बयान को दुर्भाग्यपूर्ण मानते हुए आधिकारिक रूप से दो बार खेद प्रकट किया। सर्व प्रथम संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख श्री मनमोहन वैद्य ने 11 नवम्बर को कहा, "पूज्य सुदर्शन जी के नाम से कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के विषय में जो समाचार प्रकाशित हुआ है, वह संघ का मत नहीं है। संघ में किसी भी स्तर पर इन बातों पर न तो कोई चर्चा हुई है और न ही संघ के पास ऐसी कोई जानकारी है।"

श्री मनमोहन वैद्य के बाद सरकार्यवाह श्री सुरेश जोशी उपाख्य भैयाजी जोशी ने सुदर्शन जी के बयान पर खेद प्रकट करते हुए 12 नवम्बर को कहा, “यह हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि भावनाओं को आहत करने वाली कथित टिप्पणी से जुड़ा सारा घटनाक्रम दुर्भाग्यपूर्ण है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह के नाते मैं अंतःकरण से खेद प्रकट करता हूँ और समस्त देशवासियों से इस घड़ी में संयम एवं शांति बनाए रखने का आह्वान करता हूँ।” संघ का यह आधिकारिक बयान विपरीत परिस्थितियों में भी उसको देश व समाज के हित में कार्य करने वाला सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। यह उसकी देश और समाज के प्रति रचनात्मक गंभीरता को भी प्रदर्शित करता है। लेकिन कांग्रेस में इन बातों का घोर अभाव देखने को मिला है।

दरअसल, सुदर्शन जी के बयान को कांग्रेस ने इसलिए लपक लिया क्योंकि पूरी पार्टी अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण निरुत्तर है। राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श हाउसिंग सोसायटी के फ्लैट्स आवंटन और टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में वह अपने दामन उजाला रखने की जवाबदेही में प्रथम दृष्टया ही फंसती हुई नजर आ रही है। इन्हीं कारणों से वह विपक्षी दलों को विषयों से भटकाने के लिए पूरे जी-जान से लगी है और सुदर्शन जी के बयान को तूल दे रही है। उनके बयान के बाद कांग्रेस और उसके कार्यकर्ताओं का जो रवैया है वह ध्यान देने योग्य है। कांग्रेसजन सुदर्शन जी के बयान की निंदा और भ‌र्त्सना ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे हिंसा और तोड़फोड़ भी कर रहे हैं।

महात्मा गांधी के शांति व अहिंसा के आदर्शों पर चलने का सदैव दम्भ भरने वाली कांग्रेस इन बयानों के बाद हिंसक कैसे हो गई है, यह चिंतनीय है। हालांकि कांग्रेस के लिए हिंसा का प्रदर्शन करना कोई नई बात नहीं है। वर्ष 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भी उसके कार्यकर्ताओं ने उग्र रूप धारण कर लिया था, जिसमें सैंकड़ों सिख मारे गए थे। यदि कांग्रेस को लग रहा है कि सुदर्शन जी को उनकी दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी के लिए दंडित किया जाना चाहिए तो वह उनके खिलाफ हर संभव कानूनी कार्रवाई के लिए स्वतंत्र है, लेकिन हिंसा का सहारा लेना तो अनुचित है ही, लोकतांत्रिक मूल्यों के भी खिलाफ है।

इन बयानों के संदर्भ में महत्वपूर्ण यह नहीं कि किसने क्या कहा और किस परिप्रेक्ष्य में कहा है ? बल्कि महत्व इस बात का है कि इन दुर्भाग्यपूर्ण बयानों के बाद उत्पन्न परिस्थितियों में उन कथित नेताओं से संबंधित संगठनों ने अपने नेताओं के प्रति कैसा आचरण व व्यवहार प्रदर्शित किया। इन समूचे घटनाक्रमों की विशेषता यह रही कि बयान देने वाले सभी नेता व कार्यकर्ता अपने-अपने संगठनों के या तो शीर्ष पदाधिकारी हैं या रह चुके हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता के ‘कर्मयोग’ नामक तीसरे अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि- “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥” अर्थात- “श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।”

श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद रूपी इस उक्ति से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो लोग किसी संगठन में या सरकार के बड़े पदों पर बैठे हैं, उनकी देश व समाज के प्रति जिम्मेदारी भी उतनी ही बड़ी है। क्योंकि इन बड़े लोगों से देश की जनता सदैव प्रेरणा लेती है। इसलिए सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संगठनों के ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और बड़े पदाधिकारियों को इस बात का मंथन सदैव करते रहना चाहिए कि वे क्या करते तथा बोलते हैं ? ऐसा करना देशहित में ही होगा।

बुधवार, अक्तूबर 27, 2010

कांग्रेस की विध्वंसक राजनीति

पवन कुमार अरविंद

कांग्रेस शासित राजस्थान पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने अजमेर धमाके की जाँच पूर्ण किए बिना ही इन्द्रेश कुमार का नाम उछाल दिया है। इन्द्रेश कुमार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं। उनको संघ के निष्ठावान व समर्पित कार्यकर्ताओं में गिना जाता है। संघ के हजारों कार्यकर्ता कार्य की दृष्टि से उनसे प्रेरणा लेते हैं।

यह भी ध्यान देने वाली बात है कि श्री कुमार पिछले कई वर्षों से “राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच” के बैनर तले देश के राष्ट्रवादी मुसलमानों को संगठित करने के कार्य में जुटे हुए हैं। इस कार्य में उनको काफी सफलता भी मिली है। उनके भगीरथ प्रयास से हजारों मुसलमान इस संगठन से जुड़ चुके हैं। उनके इस प्रयास के कारण ही भारत के अधिकांश मुसलमानों की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति धारणा सकारात्मक हुई है।

राष्ट्रवादी मुसलमानों को एक मंच पर लाने के लिए संघ का यह कार्य अब तक का सबसे अनोखा कार्य है, इसलिए कांग्रेस पार्टी को कैसे पच सकता है। इसी कारण श्री कुमार पिछले कई वर्षों से कांग्रेस की नजरों में चढ़े हुए हैं। कांग्रेस उनको अपने वोटबैंक के लिए प्रमुख खतरा भी मानने लगी है। इसलिए विस्फोट के रूप में यह सारा वितंडावाद खड़ा किया जा रहा है। ताकि ऐन-केन-प्रकारेण श्री इन्द्रेश कुमार को लपेटे में लेकर उनके द्वारा चलाया जा रहे राष्ट्रवादी मुस्लिमों को संगठित करने के कार्य को प्रभावित करते हुए संघ को बदनाम किया जा सके।

उल्लेखनीय है कि राजस्थान के अजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिस्ती की विश्व प्रसिद्ध दरगाह परिसर में 11 अक्टूबर 2007 आतंकवादी धमाके हुए थे। इन धमाकों में तीन लोगों की मौत हो गई थी और 15 घायल हुए थे। इस मामले की जाँच एटीएस कर रही है। एटीएस ने 22 अक्टूबर को मामले से संबंधित 806 पृष्ठों का आरोप पत्र दायर किया है। इसमें विस्तार से धमाकों की साजिश का खुलासा करने का प्रयास किया गया है। इसमें 133 गवाहों के बयान दर्ज किए गए हैं। इस आरोप पत्र में छह आरोपियों के नाम हैं। इनमें से तीन- देवेंद्र गुप्ता, चंद्रशेखर लवे और लोकेश शर्मा की अप्रैल में गिरफ्तारी हुई थी। ये तीनों पूछताछ के लिए अभी न्यायिक हिरासत में हैं। शेष तीन आरोपियों में से दो- संदीप डांगे व रामजी कलसांगरे को फरार बताया जा रहा है और जबकि एक आरोपी सुनील जोशी की बहुत पहले ही मध्य प्रदेश में हत्या हो चुकी है।

आरोप पत्र में इन्द्रेश कुमार का भी नाम है, लेकिन उनको आरोपी नहीं बनाया गया है। इसका केवल एक ही कारण है कि इन्द्रेश कुमार के खिलाफ एटीएस को अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिल सका है। हालांकि जाँच अभी चल रही है और एटीएस यह पता लगाने की कोशिश कर रही है कि इन्द्रेश कुमार का इस मामले से कोई संबंध है भी, या नहीं। आरोप पत्र के अनुसार, बम विस्फोट की साजिश जयपुर में रची गई है। आरोप पत्र में यह भी कहा गया है कि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों ने बदला लेने की नीयत से अजमेर, हैदराबाद और महाराष्ट्र के मालेगाँव को धमाकों के लिए चुना।

अब प्रश्न यह उठता है कि कांग्रेस शासित राज्य के एटीएस द्वारा लगाए गए ये आरोप कितने सही हैं और कितने गलत ? इसको जानने के लिए मामले की जाँच पूरी हो जाने और सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना होगा। तभी दूध का दूध और पानी का पानी हो सकेगा। लेकिन विडंबना यह है कि मामले की जाँच पूरी होने और आखिरी अदालत से फैसला आने के पूर्व ही कांग्रेस सहित कुछ कथित सेकुलरवादियों द्वारा आरोपियों को दोषी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यहाँ तक कि जिसका नाम आरोपियों की सूची में नहीं है, उसको भी दोषी मान लिया गया है।

हालांकि, कांग्रेस द्वारा सरकारी जाँच एजेंसियों का अपने हित में दुरुपयोग करने की बात कोई नया नहीं है। आजादी के बाद से ही वह अपने राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए जाँच एजेंसियों का दुरुपयोग करती रही है। वह एजेंसियों के दुरुपयोग के मामले में सिद्धहस्त हो चुकी है। इस मामले में उसके जैसा और कोई दूसरा नहीं है। ये भी किसी से छिपा हुआ नहीं है कि गुजरात में सोहराबुद्दीन कथित फर्जी मुठभेड़ मामले में सीबीआई ‘कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन’ की तरह कार्य कर रही है। अभी हाल ही में सम्पन्न निकाय चुनावों में जनता ने कांग्रेस को भारी बहुमत से हराकर उसको उसके किए की सजा सुना दी है।

दरअसल, अजमेर विस्फोट मामले में यह अधूरा आरोप पत्र जानबूझकर बिहार चुनावों के वक्त दायर करवाया गया है। ताकि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों को बदनाम करके इसका तत्काल चुनावी लाभ लिया जा सके। बिहार में कांग्रेस की हालत खस्ता है। चुनाव जीतने का उसके पास और कोई दूसरा चारा नहीं है। राहुल गाँधी का सारा करिश्मा असफल साबित हो रहा है। वास्तव में कांग्रेस के पास देशहित में कोई मुद्दा नहीं बचा है। इसीलिए वह केंद्र द्वारा विभिन्न योजनाओं में दिए गए धन का हिसाब मांग रही है। चुनाव के पहले उसको केंद्र द्वारा दिए गए धन की चिंता नहीं थी। वह बिहार के संदर्भ में अभी तक सोई हुई थी और अचानक चुनाव में नींद खुली है।

आरोप पत्र दायर करवाने का एक और कारण है। वह है संसद का शीतकालीन सत्र, जो नवंबर मास में प्रारम्भ हो रहा है। इसके हंगामेदार रहने की प्रबल संभावना है। क्योंकि ‘भ्रष्टमंडल’ खेलों में कथित भ्रष्टाचार के कारण पूरी कांग्रेस पार्टी की साँस अटकी हुई हैं। वह अपने दामन अजाला रखने की जवाबदेही में प्रथम दृष्टया ही फंसती हुई नजर आ रही है। इन परिस्थितियों में वह विपक्षी दलों को विषयों से भटकाने के लिए पूरे जी-जान से लग गई है। भाजपा नेता सुधांशु मित्तल के यहाँ छापेमारी की घटना उसके इसी अभियान का हिस्सा है। जबकि सत्यता यह है कि मित्तल की कंपनी ने ‘भ्रष्टमंडल’ खेलों की तैयारियों में मात्र 29 लाख रूपए का ही कारोबार किया है।

दूसरा पहलू यह है कि कांग्रेस अयोध्या फैसले का कोई राजनीतिक लाभ नहीं उठा सकी है। फैसले के बाद से ही वह बैकफुट पर नजर आ रही थी। उसने हाथ-पाँव मारने की बहुत कोशिश की, लेकिन मामला परवान नहीं चढ़ सका। इसलिए पार्टी के महासचिव राहुल गाँधी ने अल्पसंख्यक वोटों को साधने के लिए प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी की तुलना देशभक्त राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कर डाली। हालांकि, उनके बयान का देश भर में काफी विरोध हुआ और करीब-करीब सभी बुद्धिजीवियों ने उनको अपरिपक्व बताते हुए उनके बयान को अनुचित नहीं माना।

राहुल के अलावा कांग्रेस के एक दूसरे राष्ट्रीय महासचिव हैं दिग्विजय सिंह जी, जो विवादित बयान देने के लिए ही प्रसिद्ध हैं। वह किसी भी मामले को विवादित बनाकर ही बयान देते हैं। उनकी वाणी में गंभीरता नाम की कोई चीज नहीं होती है। ऐसा प्रतीत होता है पार्टी ने केवल विवादित बयान देने के लिए ही उनको राष्ट्रीय महासचिव का ओहदा थमाया है। हालांकि, कांग्रेस बहुत पहले से ही संघ को बदनाम करने के लिए भूमिका बनाने में जुट गई थी। भगवा व हिंदू आतंकवाद शब्दों का प्रयोग और संघ से सिमी की तुलना, उसके इसी अभियान का हिस्सा था। कांग्रेस का यह सारा अभियान उसको घोर साम्प्रदायिक पार्टी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। क्योंकि सत्ता में ऐन-केन-प्रकारेण बने रहने के लिए उसका जैसा कार्य-व्यवहार है, उसके लिए कोई दूसरा विशेषण उपयुक्त नहीं होगा।

सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

पूर्ण विलय के पश्चात जनमत संग्रह का औचित्य ?

पवन कुमार अरविंद
जम्मू-कश्मीर में आत्मनिर्णय या जनमत संग्रह कराने की मांग का कहीं कोई औचित्य नहीं है। ये मांगें किसी भी प्रकार से न तो संवैधानिक हैं और न ही मानवाधिकार की परिधि में ही कहे जाएंगे। अलगाववादियों द्वारा इस विषय को मानवाधिकार से जोड़ना केवल एक नाटक भर है। क्योंकि इससे विश्व बिरादरी का ध्यान ज्यादा आसानी से आकृष्ट किया जा सकेगा। यह सारा वितंडावाद विशुद्ध रूप से कश्मीर को हड़पने के लिए पाकिस्तानी नीति का ही एक हिस्सा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत आगमन से पूर्व पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी गतिविधियों में यकायक बढ़ोतरी हुई है। यहाँ तक कि कश्मीर घाटी के अलगाववादी संगठन और उसके नेता भी ज्यादा सक्रिय दिखने लगे हैं। अलगाववादी हुर्रियत नेता गिलानी का नई दिल्ली में “आजादी ही एक मात्र रास्ता” विषयक सेमीनार में शिरकत करना विश्व बिरादरी का ध्यान आकृष्ट कराने के अभियान का ही एक हिस्सा है। सेमीनार की खास बात यह रही कि इसमें कश्मीरी अलगाववाद के समर्थक कई जाने-माने बुद्धिजीवी भी भारत के खिलाफ जहर उगलने के लिए उपस्थित थे। सेमीनार में गिलानी के बोलने से पहले ही उनके सामने कुछ राष्ट्रवादी युवकों ने जूता उछाल दिया। इससे भारी शोर-शराबा हुआ, जिसको देखते हुए सेमीनार बीच में ही रोकना पड़ा। इस कारण से अलगाववादियों की सारी सोची-समझी रणनीति धरी की धरी रह गई।

ओबामा की भारत यात्रा के मद्देनजर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी रणनीतिक दृष्टि से अमेरिका में थे। यहां पर कुरैशी ने अमेरिका से कश्मीर मसले के समाधान के लिए भारत-पाकिस्तान के बीच दखल देने का अनुरोध किया। लेकिन अमेरिका ने पाकिस्तान के अनुरोध को सुनने से ही इन्कार कर दिया। अमेरिका का कहना है कि कश्मीर मसला दो देशों के बीच का मामला है। इसलिए दोनों देशों के बीच में दखल देना या मध्यस्थता करना उसके लिए संभव नहीं है। इस तरह से अमेरिका ने कश्मीर मसले पर भारत के रुख का ही समर्थन किया है।

जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में पाकिस्तान समर्थित अलगाववादियों की मांगे विशुद्ध रूप से भारत के एक और विभाजन की पक्षधर हैं। आत्मनिर्णय के अधिकार या जनमत संग्रह और मानवाधिकार की बड़ी-बड़ी बातें तो अलगाववादियों का महज मुखौटा भर है। क्योंकि जम्मू-कश्मीर का “सशर्त विलय” नहीं बल्कि “पूर्ण विलय” हुआ है। जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर 1947 को एक विलय पत्र पर हस्ताक्षर करके उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था। 27 अक्टूबर 1947 को भारत के गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन द्वारा इस विलय पत्र को उसी रूप में तुरन्त स्वीकार कर लिया गया था। यहाँ इस बात का विशेष महत्व है कि महाराजा हरिसिंह का यह विलय पत्र भारत की शेष 560 रियासतों से किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं था और इसमें कोई पूर्व शर्त भी नहीं रखी गई थी।

प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देशहित को अनदेखा करते हुए इस विलय को राज्य की जनता के निर्णय के साथ जोड़ने की घोषणा करके अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की। कश्मीर के संदर्भ में नेहरू की दूसरी बड़ी भूल 26 नवंबर 1949 को संविधानसभा में अनुच्छेद-370 का प्रावधान करवाना है, जिसके कारण इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त हुआ। विशेष बात यह है कि राज्य को अपना संविधान रखने की अनुमति दी गई। भारतीय संसद के कानून लागू करने वाले अधिकारों को इस राज्य के प्रति सीमित किया गया, जिसके अनुसार, भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी कानून राज्य की विधानसभा की पुष्टि के बिना यहां लागू नहीं किया जा सकता। इन्हीं सब कारणों से उस दौर के केंद्रीय विधि मंत्री डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इस अनुच्छेद को देशहित में न मानते हुए इसके प्रति अपनी असहमति जताई थी। संविधान सभा के कई वरिष्ठ सदस्यों के विरोध के बावजूद नेहरू जी ने हस्तक्षेप कर इसे अस्थाई बताते हुए और शीघ्र समाप्त करने का आश्वासन देकर पारित करा लिया।

हम सब जानते हैं कि भारत का संविधान केवल एक नागरिकता को मान्यता प्रदान करता है लेकिन जम्मू-कश्मीर के नागरिकों की नागरिकता दोहरी है। वे भारत के नागरिक हैं और जम्मू-कश्मीर के भी। इस देश में दो विधान व दो निशान होने का प्रमुख कारण यह कथित अनुच्छेद है। सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि 17 नवबंर 1956 को जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा विधिवत चुनी गई संविधान सभा ने इस विलय की पुष्टि कर दी। इसके बावजूद भी यह विवाद आज तक समाप्त नहीं हो सका है।

तत्कालीन कांग्रेस नेताओं की अदूरदर्शिता का परिणाम आज हमारे सामने है कि महाराजा द्वारा किए गए बिना किसी पूर्व शर्त के विलय को भी शेख की हठधर्मिता के आगे झुकते हुए केन्द्र सरकार द्वारा ‘जनमत संग्रह’ या ‘आत्मनिर्णय’ जैसे उपक्रमों की घोषणा से महाराजा के विलय पत्र का अपमान तो किया ही साथ-साथ स्वतंत्रता अधिनियम का भी खुलकर उल्लघंन हुआ है। इस स्वतंत्रता अधिनियम के अनुसार, राज्यों की जनता को आत्मनिर्णय का अधिकार न देते हुए केवल राज्यों के राजाओं को ही विलय के अधिकार दिए गए थे।

ये बातें एकदम सिद्ध हो चुकी हैं कि 63 वर्षों बाद भी यदि जम्मू-कश्मीर राज्य की समस्या का समाधान नहीं हो सका है तो इसके जिम्मेदार कांग्रेसी राजनेता हैं। नेहरू का कश्मीर से विशेष लगाव होना, शेख अब्दुल्ला के प्रति अत्यधिक प्रेम और महाराजा हरिसिंह के प्रति द्वेषपूर्ण व्यवहार ही ऐसे बिंदु थे, जिसके कारण कश्मीर समस्या एक नासूर बनकर समय-समय पर अत्यधिक पीड़ा देती रही है, उसी तरह समस्या के समाधान में अनुच्छेद-370 भी जनाक्रोश का विषय बनती रही है।
इस विघटनकारी अनुच्छेद को समाप्त करने की मांग देश के बुद्धिजीवियों और राष्ट्रवादियों द्वारा बराबर की जाती रही है। दूसरी ओर पंथनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले इसे हटाए जाने का विरोध करते रहे हैं। अस्थाई रूप से जोड़ा गया यह अनुच्छेद-370 गत 61 वर्षों में अपनी जड़ें गहरी जमा चुकी है। इसे समाप्त करना ही देशहित में होगा, नहीं तो देश का एक और विभाजन तय है।

अलगाववाद को शह दे रही है कांग्रेस
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हाल ही में अलगाववाद का समर्थन करते हुए जो बयान दिया था, वास्तव में उस बयान के बाद उनको मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का कोई लोकतांत्रिक और नैतिक अधिकार नहीं रह गया है। उमर ने कहा था- “जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय नहीं बल्कि सशर्त विलय हुआ है। इसलिए इस क्षेत्र को भारत का अविभाज्य अंग कहना उचित नहीं है। यह मसला बिना पाकिस्तान के हल नहीं किया जा सकता है।”

उमर के इस प्रकार के बयान से वहां की सरकार और अलगाववादियों में कोई अंतर नहीं रह गया है। जो मांगे अलगाववादी कर रहे हैं, उन्हीं मांगों को राज्य सरकार के मुखिया उमर भी दुहरा रहे हैं। आखिर, सैयद अली शाह गिलानी व मीरवाइज उमर फारूख सहित अन्य अलगाववादी नेताओं और राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला में क्या फर्क बचा है ?

यदि उमर अब्दुल्ला अलगाववादी भाषा बोलने के बाद भी राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं, तो इसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदार कांग्रेस है। क्योंकि कांग्रेस के समर्थन से ही अब्दुल्ला सरकार टिकी हुई है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि जम्मू-कश्मीर मसले पर बातचीत के लिए केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकार भी उमर अब्दुल्ला की ही तरह अलगाववादी भाषा बोल रहे हैं। इस पूरे मामले में कांग्रेस का रुख संदेहास्पद प्रतीत हो रहा है।

अब यह प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस भी पंडित नेहरू के ही नक्शे-कदम पर चल पड़ी है ? सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के तत्काल बाद कबाइलियों के भेस में पाकिस्तानी आक्रमण के दौरान कश्मीर की जीती हुई लड़ाई को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक भूल की थी। ठीक उसी प्रकार की भूल कांग्रेस भी कर रही है। इतिहास गवाह है कि यदि पंडित नेहरू कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले गए होते तो आज अपने पूरे जम्मू-कश्मीर पर भारत का ध्वज फहराता और ‘पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर’ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं होता।

शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010

‘तोता-रटंत’ राहुल के निरर्थक बोल

कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने देशभक्त संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित और कुख्यात आतंकी संगठन सिमी से करके अपने नासमझी और अपरिपक्वता का ठोस परिचय दिया है। अभी तक उनकी नासमझी व अपरिपक्वता को लेकर देश की जनता में कुछ संदेह था, लेकिन श्री गांधी ने इस प्रकार का बयान देकर उस संदेह को भी दूर कर दिया है।

हालांकि, 40 वर्षीय श्री गांधी ऐसा बचकाना बयान देंगे, यह किसी ने भी नहीं सोचा था। इसलिए उनका बयान हैरत में डालने वाला है। वह देश के लिए एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। केवल सांसद हैं इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि वह ऐसे खानदान का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसने पंडित नेहरू सहित इस देश को तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए हैं। इसलिए राहुल महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। संसदीय लोकतंत्र में ऐसे बयान को किसी भी सूरत में मर्यादापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यह हर स्थिति में लोकतंत्र की गरिमा को तार-तार करने वाला है।

अब प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति आतंकी संगठन और सामाजिक संगठन में अंतर न समझ पाता हो, उस व्यक्ति को भविष्य में यदि कभी देश का नेतृत्व करने का मौका मिले, तो वह देश की बागडोर ठीक से संभाल सकेगा, इस बारे में लोगों को सदैव संदेह बना रहेगा। ध्यातव्य है कि राहुल ने मध्य प्रदेश के त्रि-दिवसीय प्रवास के दौरान कहा था कि कांग्रेस के कार्यकर्ता सिमी और आरएसएस से दूर रहें, क्योंकि ये दोनों संगठन कट्टरवाद के समर्थक हैं और दोनों की विचारधारा में कोई खास फर्क नहीं है।

राहुल ने टिप्पणी तो कर दी लेकिन उनको शायद ही आरएसएस का इतिहास पता हो। वह आरएसएस के संस्थापक का ही ठीक से पूरा नाम नहीं बता सकते। हालांकि, वह आरएसएस को कितना जानते हैं यह बताने के लिए उनका बयान ही काफी है। राहुल के इस प्रकार के ऊल-जुलूल बयान से यह स्पष्ट हो गया है कि उनको इस देश के इतिहास-भूगोल की भी कोई जानकारी नहीं है। राहुल की विशेषता अब केवल स्वर्गीय श्री राजीव गांधी का बेटा होना भर ही रह गया है।

राहुल को यह जानना चाहिए कि सिमी पर भाजपा नीत राजग सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। उसके बाद उनकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने उस प्रतिबंध को आगे बढ़ा दिया। क्योंकि वह खूंखार आतंकी संगठन है और देश में हुए कई आतंकी विस्फोटों में उसका हाथ है। सिमी पर अमेरिका ने भी प्रतिबंध लगा रखा है। राहुल की नजर में आरएसएस यदि सिमी जैसा संगठन है तो उनको अपनी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार से उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहना चाहिए। यदि आरएसएस सचमुच में सिमी के समान है, तो उनकी सरकार ने आरएसएस पर बिना प्रतिबंध लगाए क्यों छोड़ रखा है, यह सोचने वाली बात है ?

दरअसल, राहुल को स्वयं नहीं पता होता है कि वह क्या बोल रहे हैं। वह हमेशा लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं और भाषण में जो कुछ भी लिखा होता है, उसी को वह पढ़ डालते हैं।

हालांकि, राहुल गांधी के बयान से आरएसएस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। हां, इतना अवश्य है कि राहुल ऐसा बोलकर स्वयं ‘हल्के’ पड़ गए हैं। क्योंकि इस देश की जनता किसी भी राजनेता या श्रेष्ठ व्यक्तित्व से सदैव मर्यादित व संयमित व्यवहार तथा भाषा की अपेक्षा करती है।

कहा जाता है कि आदमी का बड़प्पन जीवन के किसी भी स्थिति, परिस्थित और मनःस्थिति में धैर्य व धीरज बनाए रखते हुए मर्यादापूर्ण आचरण व व्यवहार करने में होता है। लेकिन सामान्य स्थितियों में ही धैर्य खोकर विक्षिप्तावस्था में आ जाना और ऊल-जुलूल बातें करना, यह मनुष्य के व्यक्तित्व के एक वास्तविक पहलू को ही दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति से देश के लिए और देशहित में किसी बड़े काम की उम्मीद नहीं की जा सकती।

मंगलवार, अक्तूबर 05, 2010

अयोध्या और पाकिस्तान

हामिद मीर

बाबरी मस्ज़िद विवाद के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर किसी पाकिस्तानी मुसलमान के लिये निष्पक्ष टिप्पणी करना बेहद मुश्किल है। पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमान मानते हैं कि यह ‘कानूनी’ नहीं ‘राजनीतिक’ फैसला है। फैसला आने के तुरंत बाद मैंने अपने टीवी शो ‘कैपिटल टॉक’ के फेसबुक पर आम पाकिस्तानी लोगों की राय जानने की कोशिश की।

बहुत से पाकिस्तानी इस फैसले से खुश नहीं थे लेकिन मैं एक टिप्पणी को लेकर चकित था, जिसमें कहा गया था कि “इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय मुसलमानों को बचा लिया।” कुछ पाकिस्तानियों ने मुझे लिखा कि “यह उचित फैसला है।”

इन ‘अल्पसंख्यक’ लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणियों ने मुझे एक भारतीय समाचार माध्यम के लिये लिखने को प्रेरित किया।

सबसे पहले तो मैं अपने भारतीय पाठकों को साफ करना चाहूंगा कि पाकिस्तानी मीडिया ने कभी भी इस फैसले को लेकर हिंदुओं के खिलाफ नफरत फैलाने की कोई कोशिश नहीं की। पाकिस्तान के सबसे बड़े निजी टेलीविजन चैनल जिओ टीवी पर इसका कवरेज बेहद संतुलित था। जिओ टीवी ने मुस्लिम जज जस्टिस एस.यू. खान के फैसले को प्रमुखता दी, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों कौमों को अयोध्या की जमीन बराबरी से देने पर सहमत थे।

पाकिस्तानी मुसलमानों में अधिकांश सुन्नी विचारधारा के लोग हैं। सुन्नी बरेलवी मुसलमानों में सर्वाधिक सम्मानित विद्वान मुफ्ती मुन्नीबुर रहमान 30 सितंबर की रात 9 बजे के जीओ टीवी के न्यूज बुलेटिन में उपस्थित थे। उन्होंने फैसले पर अपनी राय देते हुये कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला राजनीतिक है लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों से अपील की कि “उन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखना चाहिये और इस्लाम के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा से उन्हें दूर रहना चाहिये।”

मैं 1992 में बाबरी मस्ज़िद के गिराये जाने के बाद पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर किये गये हमले को याद करता हूं। पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों ने उस त्रासदी का खूब फायदा उठाया। असल में चरमपंथी इस विवाद के सर्वाधिक लाभ उठाने वालों में थे, जो यह साबित करने की कोशिश में थे कि भारत के सभी हिंदू भारत के सभी मुसलमानों के दुश्मन हैं, जो सच नहीं था। 2001 तक बाबरी मस्ज़िद विवाद बहुत से लेखकों और पत्रकारों के लेखन का विषय था।

9/11 की घटना ने पूरी दुनिया को बदल दिया और पाकिस्तानी चरमपंथी गुटों की निगाहें भारत से मुड़कर अमरीका की ओर तन गईं। 2007 में पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद के लाल मस्ज़िद पर किये गये हमले के बाद तो बाबरी मस्ज़िद विवाद का महत्व और भी कम हो गया। अधिकांश पाकिस्तानी मुसलमानों की सही या गलत राय थी कि अपदस्थ किये गये पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में वकीलों के आंदोलन से ध्यान हटाने के लिये यह परवेज मुशर्रफ द्वारा खुद ही रचा गया ड्रामा था।

मुझे याद है कि 2007 में बहुत से मुस्लिम विद्वानों ने यह कहा था कि हम उन अतिवादी हिंदुओं की भर्त्सना करते हैं, जिन्होंने बाबरी मस्ज़िद पर हमला किया लेकिन अब पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद में एक मस्ज़िद पर हमला किया गया है, तब हम क्या कहें?

लाल मस्ज़िद ऑपरेशन ने पाकिस्तान में ज्यादा अतिवादिता फैलाई और वह एक नये दौर की शुरुआत थी। चरमपंथियों ने सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले शुरु कर दिया और कुछ समय बाद तो वे उन सभी मस्ज़िदों पर भी हमला बोलने लगे, जहां सुरक्षा बल के अधिकारी नमाज पढ़ते थे।

मैं यह स्वीकार करता हूं कि भारत में गैर मुसलमानों द्वारा जितने मस्ज़िद तोड़े गये होंगे, पाकिस्तान में उससे कहीं अधिक मस्ज़िदें तथाकथित मुसलमानों द्वारा तोड़ी गयीं।

मेरी राय में किसी भी पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ या मजहबी गुट को बाबरी मस्ज़िद विवाद का फायदा उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। इस विवाद को भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को पर छोड़ देना चाहिये, जो अपने कानूनी प्रक्रिया से इसे सुलझायेंगे। सुन्नी वक्फ़ बोर्ड फैसले से खुश नहीं है लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में सुलह की उम्मीद देख रहा है। एक पाकिस्तानी के तौर पर हम क्या कर सकते हैं?

मैं सोचता हूं कि बतौर पाकिस्तानी हमें अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों को और अधिक कानूनी, राजनीतिक और नैतिक संरक्षण दें; सत्ता और विपक्ष में शामिल अपने कई मित्रों को मैंने पहले भी सुझाव दिया है कि हम पाकिस्तानी हिंदुओं, सिक्खों और इसाइयों के हितों का और ख्याल रखें। वो जितने मंदिर या चर्च बनाना चाहें, हम इसकी अनुमति उन्हें दें। हमें पाकिस्तान के ऐसे भू-माफियाओं को हतोत्साहित करने की जरुरत है, जो सिंध और मध्य पंजाब के हिंदू मंदिरों और गिरजाघरों पर कब्जे की कोशिश करते रहते हैं। जब हम पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को अधिक से अधिक संरक्षण देंगे तो भारतीय भी ऐसा ही करेंगे और वे अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों की ज्यादा हिफाजत करेंगे।

पाकिस्तानियों को अपने मस्ज़िदों की हिफाजत करनी चाहिये। आज की तारीख में हमारे मस्ज़िद हिंदू अतिवादियों के नहीं, मुस्लिम अतिवादियों के निशाने पर हैं। अतिवाद एक सोच का तरीका है।। इनका कोई मजहब नहीं होता। लेकिन कभी ये इस्लाम के नाम पर, कभी हिंदू धर्म के नाम पर तो कभी इसाइयत के नाम पर हमारे सामने आते हैं। हमें इन सबकी भर्त्सना करनी चाहिये।

(लेखक : पाकिस्तानी चैनल जिओ टीवी के संपादक हैं।)

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

अयोध्या फैसले के बाद …

“बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो कतरा ए खून न निकला।”

उपरोक्त कथन श्रीराम जन्मभूमि स्वामित्व विवाद के फैसले के बाद सच ही साबित हो रहा है। क्योंकि इसके पहले इस फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। कहा जा रहा था कि फैसले के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क सकती है। दंगे-फसाद हो सकते हैं।

संभावित हिंसा के मद्देनजर देश के सभी सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता व नेतृत्वकर्ता, मीडियाकर्मी व राजनेता और यहां तक कि अभिनेता भी समाज के सभी वर्गों से शांति व भाईचारा बनाए रखने की अपील कर रहे थे, या करते हुए देखे जा रहे थे। सभी उपदेशक की भूमिका में आ गए थे। मानो समाज इन्हीं लोगों के नियंत्रण में है और इन्हीं लोगों के आदर्शों एंव आदेशों से संचालित हो रहा हो।

भारत एक लोकतंत्रिक देश है, इस कारण उन नेताओं का उपदेश कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, जो प्रत्यक्ष चुनाव में जीतकर जनता के प्रतिनिधि बने हैं। लेकिन ऐसे नेताओं का उपदेश हास्यास्पद ही कहा जाएगा जो केवल मनोनीत होते आ रहे हैं। इन मनोनीत होने वालों में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी शामिल हैं। हालांकि, प्रधानमंत्री की बात अलग है, उनको ऐसा अपील करने का अधिकार है। वे देश के प्रमुख पद पर बैठे एक प्रमुख व्यक्ति हैं। कहने का मतलब है कि फैसले को लेकर ऐसे लोग भी उपदेशक की भूमिका निभाने लगे थे जिनका जनता में कहीं कोई आधार या जनाधार नहीं है।

इन नेताओं के उपदेश से ऐसा लग रहा था कि फैसले के बाद जनता सचमुच में हिंसा फैला देगी या तोप-तमंचा लेकर इसके लिए तैयार बैठी है। दरअसल, वास्तविकता यह है कि जनता को केवल फैसले का इन्तजार था और फैसले के किसी भी स्थिति में वह शांति व सौहार्द बनाए रखने के लिए उद्यत थी। क्योंकि 6 दिसम्बर 1992 के दिन से अयोध्या के सरयू का जल करोड़ों किलोमीटर की लम्बी दूरी तय कर चुका है। इस लंबे समयावधि में जनता का मिजाज भी बदला है और व्यवहार भी। जनता अब परिपक्व हो चुकी है। खास बात यह है कि आज का युवा भी शांतिप्रिय है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग अपने करियर को संवारने में लगाना चाहता है। सभी लोग सुख, शांति और समृद्धि के ख्वाहिशमंद हैं। इतना तक तो ठीक है और इन बातों से किसी को कोई शिकवा या शिकायत भी नहीं है। लेकिन शिकायत है तो केवल उन नेताओं से जो चाहते थे कि फैसले के बाद हिंसा भड़क जाए और इसको आधार बनाकर हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सके तथा इसके आधार पर इन संगठनों को प्रतिबंधित किया जा सके।

लेकिन देश की शांतिप्रिय जनता ने फैसले के बाद कहीं कोई खटर-पटर की आवाज तक नहीं की। हिंसा फैलने के सारे दावे और आशंकाएं धूल चाटती नजर आईं। राजनेताओं की सारी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। प्रतिबंध तो दूर की कौड़ी रही, इन हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों पर कोई प्रश्नचिन्ह तक नहीं लग सका।

मामले पर फैसला आने के बाद एक प्रतिष्ठित चैनल के एंकर अपने लखनऊ स्थित संवाददाता से ये बातें बार-बार पूछ रहे थे कि ‘फैसले के बाद कहीं कोई हिंसा तो नहीं भड़की है।’

उस एंकर ने 25 मिनट में ये वाक्य करीब चौदह या पंद्रह बार दुहराया होगा। लखनऊ संवाददाता से बार-बार यही जवाब मिलता रहा कि- ‘नहीं, शांति व सौहार्द कायम है, कहीं कोई ऐसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है’।

अब प्रश्न उठता है कि यह समाचार चैनल आखिर किस अभियान में लगा हुआ था ? हिंसा भड़काने में या लोगों को ये बातें याद दिलाने में कि हिंसा भड़काने का समय आ गया है, तैयार हो जाओ। हालांकि, कुछ को छोड़कर करीब-करीब सभी चैनलों का ऐसा ही रुख देखने को मिला। और भी कई बातें ऐसी थीं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि चैनलों का रवैया देश और समाज के हित में नहीं था।

उल्लेखनीय है कि अयोध्या मामले का फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने सुनाया। इस कारण राजधानी सहित पूरे प्रदेश को हिंसा की दृष्टि से काफी संवेदनशील माना जा रहा था। इसके साथ ही देश के कई प्रमुख स्थानों पर संभावित खतरों के मद्देनजर सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे।

चाहे जो कुछ भी हो लेकिन इस फैसले के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े हुए विभिन्न हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के प्रति समाज की धारणा और सकारात्मक हुई है। समाज की यह सकारात्मक सोच और विश्वास इन संगठनों को एक नई ऊर्जा देगी, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है। इसलिए इस फैसले को इनके लिए रामबाण कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

शनिवार, सितंबर 25, 2010

आदर्श पत्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय

यूं तो इस धरा पर ईश्वर अनेक विभूतियों को जन्म देता है, सृजन करता है। इनमें प्रत्येक को कोई न कोई विशिष्ट गुण अवश्य प्रदान करता है, पर; कुछ ऐसे विभूति सम्पन्न व्यक्ति भी जन्म लेते हैं जिनकी प्रतिभा बहु-आयामी होती है। यदि उन्हें विकसित होने का अवसर मिले तो वे महान होने का गौरव प्राप्त करते हैं। दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे।

अति सामान्य दिखने वाले इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि कितनी ही प्रतिभाएं समाहित थीं। यह बात अलग है कि प्रमुख रूप से उनका संगठन कौशल्य ही अधिक उजागर हो सका। हालांकि, उनकी गणना उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी होती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व को समझने के लिए सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी होगी कि दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी, व्यवसाय नहीं।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।

स्वाभाविक ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय में भी एक मिशनरी पत्रकार का ही दर्शन होता है, व्यावसायिक पत्रकार का नहीं। वैसे उनकी पत्रकारिता का प्रारम्भ राष्ट्रधर्म और पाञ्जन्य के प्रकाशन से ही प्रकाश में आया था। राष्ट्रधर्म का पहला अंक 31 अगस्त 1947 को तथा पांचजन्य का पहला अंक 14 जनवरी 1948 को निकला था। किस तरह से राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य व दैनिक स्वदेश शुरू हुआ। इन पत्रिकाओं को चलाने में दीनदयाल जी औपचारिक रूप से न सम्पादक थे और न ही स्तंभकार, लेकिन इन पत्रों के वे सबकुछ थे। वे लिखते भी थे।

बाद में आर्गेनाइजर और पाञ्चजन्य साप्ताहिक में उनके दो लेख छपने लगे। पाञ्चजन्य में पराशर और आर्गेनाइजर में पालिटिकल डायरी। आर्गेनाइजर में प्रकाशित पालिटिकल डायरी स्तम्भ का कुछ समय बाद पुस्तक संकलन प्रकाशित हुआ। इस संकलन की भूमिका डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी। भूमिका में दीनदयाल जी ने कैसे-कैसे लेख लिखे हैं, उसकी डॉ. सम्पूर्णानन्द ने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है। कुछ लेख ऐसे हैं जो दूर तक जाने वाले हैं और कुछ ऐसे हैं जो कालजयी हैं।

लेख के माध्यम से दीनदयाल जी कहते हैं- “चुगलखोर और संवाददाता में अंतर है। चुगली जनरुचि का विषय हो सकती है, किन्तु सही मायने में वह संवाद नहीं है। संवाद को सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् तीनों आदर्शों को चरितार्थ करना चाहिए। केवल सत्यम् और सुंदरम् से ही काम नहीं चलेगा। सत्यम् और सुंदरम् के साथ संवाददाता शिवम् अर्थात कल्याणकारी का भी बराबर ध्यान रखता है। वह केवल उपदेशक की भूमिका लेकर नहीं चलता, वह यथार्थ के सहारे वाचक को शिवम् की ओर इस प्रकार ले जाता है की शिवम् यथार्थ बन जाता है। संवाददाता न तो शून्य में विचरता है और न कल्पना जगत की बात करता है। वह तो जीवन की ठोस घटनाओं को लेकर चलता है और उसमें से शिव का सृजन करता है।”

पिछले लगभग 200 वर्षों की पत्रकारिता के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस इतिहास पर विभाजन रेखा खींच दी जाती है; स्वतन्त्रता के पहले की पत्रकारिता और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता। स्वतंत्रता के पहले की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक व्रत था और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक वृत्ति है। यानी व्रत समाप्त हो गया है और वृत्ति आरम्भ हो गई। जो दोष आज हम पत्रकारिता में देखते हैं, उनकी तरफ दीनदयाल जी अपने बौद्धिक और लेखों के माध्यम से ईशारा किया करते थे।

वर्तमान पत्रकारिता का जब हम अवलोकन करते हैं तो उपरोक्त कथन ठीक मालूम पड़ता है कि पत्रकारिता वृत्ति बन गई है। दीनदयाल जी आजादी के बाद के पत्रकारों में भी थे। लेकिन आजादी के बाद भी दीनदयाल जी पत्रकारों के पत्रकार और सम्पादकों के सम्पादक थे। उनकी पत्रकारिता में उन वृत्तियों का कहीं पता नहीं चलता है। यहां तक कि कोई लक्षण भी देखने को नहीं मिलता है जिनसे आज की पत्रकारिता ग्रसित है।

व्रतयुक्त पत्रकारिता में ऐसा नहीं है कि केवल दीनदयाल जी ही थे, कई और पार्टियों के ऐसे अखबार उस जमाने में निकलते थे। कम्यूनिस्ट पार्टी के अखबार, दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों के अखबार, डॉ. राममनोहर लोहिया और अशोक महतो के अखबार, पत्रिकाएं आदि। उनमें भी उस तरह का त्याग और उसी तरह का विलक्षण वौद्धिक वैभव व मौलिकता थी, जो दीनदयाल जी की पत्रकारिता में देखने को मिलती थी।

दीनदयाल जी के हर प्रकार के लेखों के विषय वस्तु एवं विवेचना के प्रकारों का वर्णन भी यहां किया जा सकता है। उनमें उनकी चिन्तनशैली में विद्वता एवं अध्ययन क्षमता तो परिलक्षित है ही, पत्रकारीय दायित्वबोध व शालीनता भी उनकी रेखांकनीय विशेषता है। वर्तमान में प्रोफेशनलिज्म के नाम पर पत्रकारिता के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह चिन्ता उत्पन्न करने वाला है।


(यह आलेख ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक के पूर्व सम्पादक स्वर्गीय श्री भानुप्रताप शुक्ला के साथ मेरी 2004 में हुई बातचीत और दीनदयाल उपाध्याय से संबंधित साहित्य के संक्षिप्त अध्ययन पर आधारित है। मैंने दीनदयाल जी को कभी नहीं देखा। मेरे जन्म लेने के कई वर्षों पूर्व ही वे गोलोकवासी हो गए थे। दीनदयाल जी के व्यक्तित्व के बारे में केवल पुस्तकों का अध्ययन और उनके समकालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की जुबानी सुनकर ही जान पाया हूँ। - पवन कुमार अरविंद)

मंगलवार, सितंबर 21, 2010

अयोध्या फैसले के निहितार्थ

बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का,
जो चीरा तो कतरा ए खून न निकला।

ठीक इसी प्रकार 24 सितम्बर को श्रीराम जन्मभूमि के स्वामित्व विवाद मामले में अदालती फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। इन आशंकाओं में देश भर में हिंसा भड़कना भी शामिल है।

कहा जा रहा है कि देश भर में काफी बावेला मच सकता है। फैसला जिसके पक्ष में नहीं आएगा, वह पक्ष खूनी खेल खेल सकता है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होगा। यदि सामान्य तौर पर सोचा जाए तो हिंसा भड़कने का कहीं कोई आधार नहीं दिखता है, क्योंकि यह अदालत का आखिरी फैसला नहीं है। इसके बाद भी कई प्रकार के न्यायिक और लोकतांत्रिक विकल्प शेष हैं।

इस मामले में फैसला जिसके पक्ष में नहीं आएगा वह पक्ष उच्चतम न्यायालय में निश्चित रूप से अपील करेगा, इसमें कहीं कोई शंका नहीं है। इस संदर्भ में पूरे देश भर में झूठ में चिल्ल-पों मची हुई है। वास्तविकता यह है कि होगा कुछ नहीं।

क्योंकि 1992 के बाद से गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती में काफी पानी बह चुका है। एक 1992 का दौर था और एक आज का दौर है। इतने वर्षों में एक पीढ़ी बदल चुकी है और यदि नहीं बदली तो बूढ़ी जरूर हो चुकी है। इसके साथ ही दोनों पीढ़ियों के लोगों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है।

एक यह बात भी पते की है कि आज का युवा ‘सामाजिक’ कम और ‘प्रोफेशनल’ ज्यादा हो गया है। हर क्षण उसको अपने ‘करियर’ की ही चिंता लगी रहती है। इस कारण भी उसका इस प्रकार के संघर्षों में ऱूचि नहीं के बराबर है। दुनिया का कोई राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन हो या संघर्ष हो, उसमें युवाओं की ही प्रमुख भूमिका देखी गई है। बिना युवाओं की भागीदारी के इस प्रकार के कार्यक्रम या अभियान सफल नहीं हो सकते।

युवाओं का यदि ऐसा रुख है तो उसका भी एक कारण है। आज का युवा शांति का पक्षधर ज्यादा है। इसके अलावा भी सभी शांति चाहते हैं। सुख-चैन की जिंदगी सबको प्रिय है। हालांकि, सुख व चैन की जिंदगी जीने की मनुष्य की इच्छा कोई नई बात नहीं है, यह उसकी सदा-सर्वदा से इच्छा रही है। तो आखिर ये बावेला कौन मचाएगा ?

लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी जब सत्य और असत्य का प्रश्न आएगा तो पूरा देश उठ खड़ा होगा। इस बात को किसी भी तर्क से काटा नहीं जा सकता। क्योंकि सत्य और असत्य क्या है, सब जानते हैं। सबको भलीभांति मालूम है।

इस सृष्टि में जो कुछ भी है उसका होना सत्य है और जो कुछ भी नहीं है उसका न होना सत्य है। यह होने और न होने का क्रम समय के साथ-साथ चलता ही रहता है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी भी परिस्थितियां आती हैं कि जो दिखता है वह सत्य नहीं होता। हर पीली दिखने वाली वस्तु सोना नहीं हुआ करती।

सत्य यही है कि दशरथ नन्दन श्रीराम सूर्यवंश के 65वें प्रतापी राजा थे। वह इस सृष्टि के आदर्श महापुरुष योद्धा थे। उनका जन्म अयोध्या में अपने पिता महाराजा दशरथ के राजमहल में हुआ था। फिरभी उनके जन्मस्थान के स्वामित्व का मामला वर्षों से अदालत में लंबित है। सभी जानते हैं कि सत्य क्या है। फिरभी मामला लंबित है। लेकिन न्यायालय को इस सत्यता से क्या लेना देना। न्यायालयीन प्रक्रिया के लिए केवल सबूत की आवश्यकता होती है। विश्वास, आस्था और श्रद्धा न्यायालय के विषय नहीं हैं।

हालांकि, मुकदमेबाजी की पूरी प्रक्रिया को सत्य के अपमानित होने का कालखंड कह सकते हैं। लेकिन सत्य केवल अपमानित ही हो सकता है, पराजित नहीं। यह सृष्टि का नियम है। न्यायालय के हर फैसले में देशवासियों की पूर्ण श्रद्धा है। न्यायालय ईश्वर का दूसरा रूप है। इसलिए फैसला किसी के भी पक्ष में आए, वह ईश्वरीय माना जाएगा। और इस कारण अन्ततः भगवान श्रीराम की ही विजय होगी।

सृष्टि का एक यह भी सत्य है कि ‘सत्य’ की लड़ाई अंत तक और ‘सत्य’ को पा लेने तक लड़ी जाती है। धैर्य, उत्साह व स्वाभिमानपूर्वक लड़ी गई लड़ाई ही तपस्या है और सफलता के लिए तपस्या आवश्यक है। इसलिए शांति बनी रहेगी।

सोमवार, सितंबर 13, 2010

Ram-Janmbhoomi : Details of Legal Battle

चम्पतराय

वैसे तो सम्पूर्ण अयोध्या मन्दिरों की ही नगरी है, हजारों मन्दिर हैं, लगभग सभी मन्दिर प्रभु राम को समर्पित हैं या भगवान राम की जीवनलीलाओं से जुड़े हुए हैं। अयोध्या में एक रामकोट नामक मोहल्ला है जिसमें चारदीवारी (Boundary wall) से घिरा एक स्थान था, जो उत्तर दक्षिण दिशा में लगभग 130 फीट लम्बा तथा पूरब पश्चिम दिशा में 90 फीट चौड़ा था। इस परिसर में चारदीवारी के अन्दर ही उत्तर दक्षिण दिशा में लगभग बीचोबीच में एक दीवार थी। इस दीवार में एक लोहे का दरवाजा लगा रहता था। दरवाजे पर ताला भी लगा रहता था, जो परिसर को दो भागों में बांट देती थी। दीवार के पश्चिम वाला भाग भीतरी आंगन (Inner courtyard) तथा दीवार के पूरब वाला भाग बाहरी आंगन (Outer courtyard) कहलाता था। भीतरी आंगन में तीन गुम्बदों वाला एक ढांचा था, जो दूर से देखने पर मस्जिद जैसा लगता था।

मुस्लिम समाज इसी ढांचे को बाबरी मस्जिद कहता था, इसके विपरीत हिन्दू समाज इस सम्पूर्ण परिसर को भगवान राम की जन्मभूमि मानता था। मस्जिद जैसा दिखने वाले इस ढांचे के साथ अजान देने के लिए कोई मीनार तथा हाथ-पैर साफ करने अर्थात वजू करने के लिए पानी का कोई प्रबन्ध नहीं था। परिसर के बाहरी आंगन में एक छोटा सा चबुतरा था, जो संभवत: 20 फीट लम्बा और 15 फीट चौड़ा था तथा 5 फीट ऊँचा था। इस पर भगवान राम का विग्रह रखा रहता था। हिन्दू समाज इसकी पूजा करता था। यह चबुतरा 'रामचबुतरा' कहलाता था। भगवान के विग्रह की हवा, वर्षा, धूप आदि से रक्षा के लिए इस पर एक छप्पर या टीन की झोपड़ीनुमा छाया रहती थी।

इस रामचबुतरे पर किसी को कोई आपत्ति नहीं थी और ऐसा कहते हैं कि यह अकबर के शासनकाल से चला आ रहा है। समस्त विवाद तीन गुम्बदों वाले ढांचे पर था। हिन्दू मानता था कि यह सम्पूर्ण परिसर भगवान राम की जन्मभूमि है, यहाँ कभी एक बड़ा मन्दिर था, जिसे 1528 ई0 में मुस्लिम आक्रमणकारी बाबर के आदेश से उसके सेनापति मीरबांकी ने तोड़ा और उसी के मलबे का प्रयोग करके मस्जिद जैसा दिखने वाला यह ढांचा बनाया। हिन्दू समाज का प्रतिकार बहुत जबरदस्त था, इसी कारण वहाँ मीनार व वजू करने का स्थान नहीं बनाया जा सका। इस भीतरी आंगन वाले परिसर को प्राप्त करने के लिए हिन्दू निरन्तर लड़ता रहा।

1947 ई0 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अयोध्या के वैरागी साधुओं और जनता में इस स्थान को प्राप्त करने की ललक और बढ़ गई। दिनांक 22 दिसम्बर, 1949 की अर्ध रात्रि में 50-60 युवकों और साधुओं की टोली रामचबुतरे और ढांचे के बीच की दीवार को फांद कर भीतरी आंगन में घुस गए और तीन गुम्बदों वाले ढाँचे के बीच वाले गुम्बद में भगवान का विग्रह रखकर कीर्तन करने लगे। अयोध्या में शोर मच गया कि जन्मभूमि में रात को भगवान प्रकट हो गए हैं।

उत्तर प्रदेश पुलिस के एक सिपाही माता प्रसाद की मौखिक सूचना के आधार पर 23 दिसम्बर, 1949 की प्रात:काल अयोध्या पुलिस स्टेशन में रात्रि को घटी इस घटना की FIR (प्रथम सूचना रपट) लिखाई गई। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अयोध्या का कोई भी स्थानीय मुस्लिम थाने में अपनी आपत्ति/शिकायत/एफ. आई. आर. लिखाने नहीं पहुँचा। उस समय फैजाबाद के जिलाधिकारी श्री के. के. नायर (आई.सी.एस., मूल केरल निवासी) थे।

भगवान के प्राकटय के बाद अयोध्या-फैजाबाद के अतिरिक्त सिटी मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) श्री मार्कण्डेय सिंह ने स्वयं प्रेरणा से (Suo-moto) भीतरी आंगन वाले परिसर को 29 दिसम्बर, 1949 को अपने एक आदेश द्वारा अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत कुर्क कर लिया। परन्तु अपने आदेश में किसी हिन्दू या मुसलमान का नामोल्लेख नहीं किया अपितु लिखा कि अयोध्या के मोहल्ला रामकोट में बाबरी मस्जिद/राम जन्मभूमि में पूजा तथा मालिकाना हक पर विवाद है। यह विषय अत्यन्त नाजुक और गम्भीर है अत: मैं विवाद के निपटारे तक इस भवन के कुर्की के आदेश देता हूँ और आदेश दिया जाता है कि ''सभी सम्बंधित पक्ष भवन के अधिकार के सम्बन्ध में अपने लिखित वक्तव्य दे।''

भीतरी आंगन में स्थित तीन गुम्बदों वाले ढांचे को सिटी मजिस्ट्रेट ने नगरपालिका अध्यक्ष श्री प्रियदत्त राम के अधिकार में सौंपकर प्रियदत्त राम को रिसीवर घोषित कर दिया। यह भी आदेश दिया कि रिसीवर महोदय इस सम्पत्ति के प्रबन्ध की व्यवस्था की स्कीम प्रस्तुत करेंगे। रिसीवर बाबू प्रियदत्त राम ने बीच वाले गुम्बद के नीचे रखे भगवान रामलला की पूजा अर्चना तथा प्रबन्ध व्यवस्था की लिखित योजना प्रस्तुत की, जो स्वीकार की गई। और इस प्रकार भगवान की पूजा-अर्चना निर्बाध प्रारम्भ हो गई। 23 दिसम्बर, 1949 की प्रात:काल से ही भक्तगण दरवाजे के बाहर कीर्तन करने बैठ गए जो 6 दिसम्बर, 1992 तक रात और दिन अखण्ड रूप से चलता रहा।

मुकदमों का विवरण
पहला मुकदमाऩ : यह मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 2/1950) एक दर्शनार्थी भक्त गोपाल सिंह विशारद (उत्तर प्रदेश के तत्कालीन जिला गोण्डा, वर्तमान जिला बलरामपुर के निवासी तथा हिन्दू महासभा, गोण्डा जिलाध्यक्ष) ने 16 जनवरी, 1950 ई. को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में दायर किया था। गोपाल सिंह विशारद 14 जनवरी, 1950 को जब भगवान के दर्शन करने श्रीराम जन्मभूमि जा रहे थे, तब पुलिस ने उनको रोका, पुलिस अन्य दर्शनार्थियों को भी रोक रही थी। 16 जनवरी, 1950 को ही गोपाल सिंह विशारद ने जिला अदालत में अपना वाद प्रस्तुत करके अदालत से प्रार्थना की कि-


''प्रतिवादीगणों के विरुद्ध स्थायी व सतत् निषेधात्मक आदेश जारी किया जाए ताकि प्रतिवादी स्थान जन्मभूमि से भगवान रामचन्द्र आदि की विराजमान मूर्तियों को उस स्थान से जहाँ वे हैं, कभी न हटावें तथा उसके प्रवेश द्वार व अन्य आने-जाने के मार्ग बन्द न करे और पूजा-दर्शन में किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न डाले।''

(An injunction restraining the defendants from removing the idols installed in the building and from closing the entrance and passage or from interfering with the Puja and Darshan.)

अदालत ने सभी प्रतिवादियों को नोटिस देने के आदेश दिए, तब तक के लिए 16 जनवरी, 1950 को ही गोपाल सिंह विशारद के पक्ष में अन्तरिम आदेश जारी कर दिया। भक्तों के लिए पूजा-अर्चना चालू हो गई। सिविल जज ने ही 3 मार्च, 1951 को अपने अन्तरिम आदेश की पुष्टि कर दी। मुस्लिम समाज के कुछ लोग इस आदेश के विरुध्द इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चले गए। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मूथम व न्यायमूर्ति रघुवर दयाल की पीठ ने 26 अप्रैल, 1955 को अपने आदेश के द्वारा सिविल जज के आदेश को पुष्ट कर दिया। ढाँचे के अन्दर निर्बाध पूजा-अर्चना का अधिकार सुरक्षित हो गया। इसी आदेश के आधार पर आज तक रामलला की पूजा-अर्चना हो रही है।

दूसरा मुकदमा : पहले मुकदमे के ठीक समान प्रार्थना के साथ दूसरा मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 25/1950) अयोध्या निवासी रामानन्द सम्प्रदाय के एक साधु परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज (परमहंस जी के साथ प्रतिवादि भयंकर विशेषण लगाया जाता था, कालान्तर में वे श्रीराम जन्मभूमि न्यास के कार्याध्यक्ष तथा श्री पंच रामानन्दीय दिगम्बर अनी अखाड़ा के श्रीमहंत बने) ने 5 दिसम्बर, 1950 को सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में ही दायर किया और गोपाल सिंह विशारद के मुकदमें के प्रतिवादियों को इस मुकदमें में भी परमहंस जी ने प्रतिवादी बनाया। अदालत ने गोपाल सिंह विशारद को दी गई सुविधा परमहंस जी को भी प्रदान की। पहला और दूसरा अर्थात दोनों मुकदमें एक दूसरे के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए जोड़ दिए गए। उपर्युक्त दोनों मुकदमों में सिविल जज, फैजाबाद के द्वारा 3 मार्च, 1951 को स्थायी स्थगनादेश हो जाने के पश्चात सिटी मजिस्ट्रेट ने 30 जुलाई, 1953 को अपने एक आदेश के द्वारा अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अन्तर्गत की गई कार्यवाही को बन्द कर दिया परन्तु मजिस्ट्रेट के द्वारा नियुक्त किए गए रिसीवर को भगवान की दर्शन-पूजा का प्रबन्ध एवं उस ढांचे की देखभाल का अधिकार बना रहा। (विशेष नोट : परमहंस जी ने अपना यह मुकदमा वर्ष 1992 में वापस ले लिया।)

तीसरा मुकदमा : उपर्युक्त दोनों मुकदमों में अभी कोई विधिक प्रक्रिया प्रारम्भ नहीं हुई थी, वे लम्बित (Pending) ही थे कि तीसरा मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 26/1959) पंच रामानन्दी निर्मोही अखाड़ा ने अपने महंत के माध्यम से 17 दिसम्बर, 1959 को दायर किया और अपने वादपत्र में बिन्दु क्रमांक 14 में उन्होंने अदालत से राहत माँगी कि ''जन्मभूमि मन्दिर के प्रबन्धन तथा सुपुर्दगी से रिसीवर को हटाकर उपर्युक्त कार्य वादी निर्मोही अखाड़े को सौंपने के पक्ष में आदेश जारी किया जाए।'' प्रार्थना का अंग्रेजी प्रारुप नीचे लिखा है।

14 - Plaintiffs pray for the following reliefs :- (a) A decree be passed in favour of the plaintiffs against the defendants for removal of the defendant no.1 from the management and charge the said temple of Janma Bhoomi and for delivering the same to the plaintiff through its Mahant and Sarbarhakar (सरवराहकार) Mahant Jagannath Das.

चौथा मुकदमा : यह मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 12/1961) उत्तर प्रदेश सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड की ओर से 18 दिसम्बर, 1961 को जिला अदालत, फैजाबाद में दायर करके निम्नलिखित राहत की माँग की -
1. वादपत्र के साथ नत्थी किए गए नक्शे में ए.बी.सी.डी. अक्षरों से दिखाई गई सम्पत्ति को सार्वजनिक मस्जिद घोषित किया जाए, जिसे सामान्यतया बाबरी मस्जिद कहा जाता है तथा उसके सटी हुई भूमि को कब्रिस्तान घोषित किया जाए।
2. यदि अदालत की राय में इसका कब्जा दिलाना सही समाधान नजर आता है तो ढांचे के भीतर रखी मूर्ति और अन्य पूजा वस्तुओं को हटाकर उसका कब्जा दिलाने का आदेश भी दिया जाए।
3. रिसीवर को आदेश दिया जाए कि वह अनधिकृत रूप से खड़े किए गए निर्माण को हटाकर वह सम्पत्ति वादी सुन्नी वक्फ बोर्ड को सौंप दे। इन प्रार्थनाओं का अंग्रेजी प्रारुप नीचे लिखा है।
Relief Claimed
(a) A declaration to the effect that the property incicated by letters ABCD in the sketch Map attached to the plaint is public Mosque Commonly known as 'Babari Masjid' and that the land adjoining the Mosque shown in the sketch Map by letters EFGH is a public Muslim graveyard as specified in para 2 of the plaint may be decreed.
(विशेष नोट : 23 फरवरी, 1996 को सुन्नी मुस्लिम वक्फ बोर्ड के लिखित आवेदन देकर कब्रिस्तान की माँग को वापस ले लिया, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।)

(b) That in case in the opinion of the Court delivery of possession is deemed to be the proper remedy, a decree for delivery of possession of the Mosque and graveyard in suit by removal of the idols and other articles which the Hindus may have placed in the Mosque as objects of their worship be passed in plaintiff's favour, against the defendants.

(bb) That the statutory Receiver be Commanded to hand over the property in dispecte describing in the Schedule 'A' of the plaint by removing the unauthorised structures errected there on.

सिविल जज, फैजाबाद के द्वारा दिनांक 6 जनवरी, 1964 को दिए गए आदेश के माध्यम से उपरोक्त चारों मुकदमें सामूहिक सुनवाई के लिए एक साथ जोड़ दिए गए।

श्रीराम जन्मभूमि पर भीतरी और बाहरी आंगन के बीच की उत्तर दक्षिण दिशा वाली दीवार के दरवाजे में लगे ताले को खुलवाने के लिए रामजानकी रथों के माध्यम से जन जागरण का निर्णय सन्तों ने लिया। व्यापक जन जागरण हुआ। फैजाबाद के एक अधिवक्ता श्री उमेश चन्द पाण्डेय ने जनवरी, 1986 में सिविल जज, फैजाबाद की अदालत में ताले को अवैध मानते हुए उसे हटाए जाने की मांग की। अधिवक्ता उमेश चन्द पाण्डेय ने अदालत को कहा कि शान्ति व्यवस्था के नाम पर ताला लगाया गया है जबकि ताले का शान्ति व्यवस्था से कोई सम्बन्ध नहीं है। तत्कालीन जिला न्यायाधीश श्री के. एम. पाण्डेय ने तत्कालीन प्रशासन से पूछा कि ताला हटाने पर शान्ति व्यवस्था बनाई रखी जा सकती है क्या ? प्रशासन का उत्तर सकारात्मक था, परिणामस्वरूप न्यायाधीश महोदय ने उसी दिन आधे घण्टे में ताला हटा देने का आदेश दिया। 1 फरवरी, 1986 को सायंकाल 4.30 बजे ताला खोल दिया गया।

ताला खोले जाने के इस आदेश के विरुद्ध भी कुछ मुस्लिम व्यक्ति उच्च न्यायालय में गए। न्यायालय ने यह प्रार्थना पत्र सुरक्षित कर लिया और 31 जुलाई, 2010 तक उसका फैसला नहीं हुआ है। 1992 की घटना के बाद तो अब यह आवेदन ही निरर्थक हो गया है।

पाँचवां मुकदमा : इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल ने रामलला विराजमान को स्वयं वादी बनाते हुए तथा उस स्थान को देवता तुल्य मानकर वादी बनाते हुए, दोनों वादियों की ओर से 1 जुलाई, 1989 को जिला अदालत में अपना मुकदमा (नियमित वाद क्रमांक 236/1989) दायर किया और अपने वादपत्र के पैराग्राफ 39 में अदालत से माँग की कि-
1. यह घोषणा की जाए कि अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का सम्पूर्ण परिसर श्रीरामलला विराजमान का है।
2. प्रतिवादियों के विरुध्द स्थायी स्थगनादेश जारी करके कोई व्यवधान खड़ा करने से या कोई आपत्ति करने से या अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर नये मन्दिर के निर्माण में कोई बाधा खड़ी करने से रोका जाए।
मांग का अंग्रेजी प्रारुप-

39- That the plaintiffs claim the following Reliefs
(A) A declaration that the entire premises of Sri Rama Janma Bhumi at Ayodhya as described and delineated in Annexures I, II and III belong to the plaintiff Deities.

(B) A perpetual injunction against the defendants prohibiting them from interfering with or raising any objection to, or placing any obstruction in the construction of the new temple building at Sri Ram Janma Bhumi Ayodhya.

भारतीय कानून में मान्य हिन्दू व्यवस्था के अन्तर्गत मन्दिर में प्रतिष्ठित विग्रह अबोध बालक (Infant Child), नाबालिग (Perpetual Minor), जीवित जागृत ( Living Entity) माना जाता है। नाबालिग होने के कारण उसे मुकदमा लड़ने के लिए किसी संरक्षक की आवश्यकता रहती है। यह संरक्षक ही महंत/सरवराहकार आदि नामों से पुकारा जा सकता है। कानून की भाषा में इसे Next Friend भी कहते हैं। उच्च न्यायालय ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री देवकीनन्दन अग्रवाल को ही वादी रामलला विराजमान का Next Friend घोषित किया। इस प्रकार वे लखनऊ उच्च न्यायालय में रामसखा के रूप में वादी संख्या 5 की देखभाल करने लगे।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने अपने आदेश दिनांक 10 जुलाई, 1989 के द्वारा प्रथम चार मुकदमें मौलिक व सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में स्थानान्तरित करा लिए।

5 फरवरी, 1992 को परमहंस रामचन्द्रदास जी महाराज ने अपना मुकदमा लिखित रूप में उच्च न्यायालय से वापस ले लिया।

5 फरवरी, 1992 को ही अपने आदेश के द्वारा उच्च न्यायालय ने वादी रामलला विराजमान का मुकदमा क्रमांक 236/1989 भी अन्य मुकदमों के साथ सामूहिक सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में मंगवा लिया और इस प्रकार सामूहिक सुनवाई के लिए केवल चार मुकदमें शेष रहे। चारों मुकदमों को नये क्रमांक दिए गए-
1. गोपाल सिंह विशारद का वाद क्रमांक 2/1950 --- O.O.S.-1/1989
2. निर्मोही अखाड़ा का वाद क्रमांक 26/1959 --- O.O.S.-3/1989
3. मुस्लिम सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद क्रमांक 12/1961 --- O.O.S.-4/1989
4. वादी रामलला विराजमान का वाद क्रमांक 236/1989--- O.O.S.-5/1989 (O.O.S. means - Other Original Suit)

चारों मुकदमों के सामूहिक सुनवाई की पूर्व में दिए गए आदेश की पुष्टि 7 मई, 1992 को पुन: एक आदेश के द्वारा कर दी। साथ ही साथ यह भी घोषित किया कि सुन्नी वक्फ बोर्ड का मुकदमा Leading case माना जाएगा। उच्च न्यायालय ने 12 सितम्बर, 1996 को आदेश दिया कि किसी भी वादी अथवा प्रतिवादी द्वारा किसी भी वाद में जो भी दस्तावेज अथवा मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत किए जाएंगे, वे सभी वादी अथवा प्रतिवादियों पर लागू होंगे तथा उनकी पुनरावृत्ति नहीं होगी।

6 दिसम्बर, 1992 की घटना से हम सब परिचित हैं। घटना के पश्चात अयोध्या नगर में कर्फ्यू लग गया। पुजारी तथा जनता द्वारा भगवान के दर्शन-पूजन बन्द हो गए। इस अवस्था में लखनऊ उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन ने भगवान की रूकी हुई पूजा-अर्चना-भोग को पुन: प्रारम्भ किए जाने की मांग के साथ अपना प्रार्थना पत्र उच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया। न्यायमूर्ति हरिनाथ तिलहरी ने 01 जनवरी, 1993 को भगवान के राग-भोग, पूजा-अर्चना का आदेश कर दिया। आदेश में कहा गया कि ''भगवान के दर्शन ठीक से हो सके, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए। साथ ही साथ ऑंधी, तूफान, वर्षा, शीत व हवा से भगवान की रक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।'' इस आदेश के बाद पूजा-अर्चना पुन: प्रारम्भ हो गई, जो आज तक जारी है। प्रतिदिन हजारों लोग दर्शन करते हैं। मेला काल में यह संख्या कई गुना बढ़ जाती है।



भारत सरकार द्वारा अधिग्रहण एवं राष्ट्रपति महोदय का विशेष प्रश्न (President's Special Reference)

27 दिसम्बर, 1992 को भारत सरकार ने एक प्रस्ताव के द्वारा निर्णय लिया कि श्रीराम जन्मभूमि के भीतरी एवं बाहरी आंगन सहित इसके चारों ओर की लगभग 70 एकड़ भूमि को एक अध्यादेश द्वारा अधिग्रहीत किया जाएगा और साथ ही साथ संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति महोदय के माध्यम से एक प्रश्न- ''कि क्या विवादित स्थल पर 1528 ई0 के पहले कोई हिन्दू मन्दिर था, जिसे गिराकर तथाकथित विवादित ढाँचा खड़ा किया गया ?'' {Whether a Hindu temple or any Hindu religious structure existed prior to the construction of the Ram Janam Bhoomi-Babri Masjid (including the premises of the inner and outer courtyarde of such structure) in the area on which the structure stood} पर सर्वोच्च न्यायालय से राय ली जाएगी। 7 जनवरी, 1993 को अध्यादेश (No. 8 of 1993) जारी हुआ और सरकार ने अपने पूर्व निर्णय के अनुसार समस्त भूमि का अधिग्रहण कर लिया। भूमि अधिग्रहण एवं राष्ट्रपति महोदय डॉ0 शंकरदयाल शर्मा की ओर से सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत भेजे गए प्रश्न के कारण विवादित परिसर से सम्बंधित चारों वाद स्वत: समाप्त हो गए। इस अधिग्रहण अध्यादेश ने 3 अप्रैल, 1993 को संसदीय कानून (एक्ट नं0 33/1993) का स्वरूप ले लिया।

अधिग्रहण अध्यादेश और राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न की वैधानिकता पर आपत्ति उठाते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर हुईं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री वैंकटचलैया जी की अध्यक्षता में 5 न्यायाधीशों- न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा, न्यायमूर्ति जी. एन. रे, न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी तथा न्यायमूर्ति एस. पी. भरूचा की पीठ बनी। इस पीठ में भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण अध्यादेश तथा राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न पर विस्तारपूर्वक सुनवाई हुई।

भारत सरकार ने अधिग्रहण का उद्देश्य संसद में गृहमंत्री के माध्यम से 9 मार्च, 1993 को प्रस्तुत किया था। अधिग्रहण का उद्देश्य सर्वोच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया गया, वह निम्न प्रकार है –

अधिग्रहण के उद्देश्यों और कारणों का कथन
1. अयोध्या में भूतपूर्व राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद संरचना के सम्बन्ध में चिरकालीन विवाद रहा है। जिसके कारण समय-समय पर साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा हुई और अन्तत: 6 दिसम्बर, 1992 को विवादास्पद संरचना का विनाश हुआ। इसके पश्चात ही व्यापक साम्प्रदायिक हिंसा हुई जिसके परिणामस्वरूप देश के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मृत्यु, क्षति और सम्पत्ति का विनाश हुआ। इस प्रकार उक्त विवाद ने देश में लोक व्यवस्था बनाए रखने और विभिन्न समुदायों के बीच सामंजस्य को प्रभावित किया। चूंकि भारत के लोगों के बीच साम्प्रदायिक सामंजस्य और सामान्य भ्रातृत्व की भावना आवश्यक है। अत: यह आवश्यक समझा गया कि ऐसा कम्पलेक्स स्थापित करने के लिए, जिसे योजनाबध्द रीति से स्थापित किया जा सके और जहाँ एक राम मन्दिर, एक मस्जिद, तीर्थ यात्रियों के लिए सुख-सुविधाएं, एक पुस्तकालय, संग्रहालय और अन्य समुचित सुविधाएं स्थापित की जा सकें, विवादास्पद संरचना स्थल और उससे संलग्न समुचित भूमि का अर्जन किया जाए। (एस.बी. चौहान नई दिल्ली 9 मार्च, 1993)
अंग्रेजी प्रारुप

SATATEMENT OF OBJECTS AND REASONS
"There has been a long-standing dispute relating to the erstwhile Ram Janma Bhumi-Babri Masjid structure in Ayodhya which led to communal tension and violence from time to time and ultimately led to the destruction of the disputed structure on 6th December, 1992. This was followed by wide-spread communal violence which resulted in large number of deaths, injuries and destruction of property in various parts of the country. The said dispute has thus affected the maintenance of public order andf harmony between different communities in the country. As it is necessary to maintain communal harmony and the spirit of common brotherhood amongst the people of India, it was considered necessary to acquire the site of the disputed structure and suitable adjacent land for setting up a complex which could be developed in a planned manner wherein a Ram Temple, a mosque, amenities for pilgrims, a library, museum and other suitable facilities can be set up". (S.B. Chavan,New Delhi, 9th March 1993)

भारत सरकार ने फरवरी, 1993 में श्वेत पत्र (White Paper) भी जारी किया और इसे सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया। श्वेत पत्र के अध्याय 2 पृष्ठ 14 पर लिखित पैराग्राफ 2.3 नीचे लिखे अनुसार है-

2.3 ''इस विवाद का सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने के लिए की गई बातचीत के दौरान जो एक मुद्दा उभर कर सामने आया वह यह था : क्या जिस स्थान पर विवादास्पद ढांचा है वहाँ पर एक हिन्दू मन्दिर था और क्या इसे मस्जिद के निर्माण के लिए बाबर के आदेशों पर ढहा दिया गया था। मुस्लिम संगठनों और कुछ प्रमुख इतिहासकारों की ओर से यह कहा गया था कि इन दोनों मन्तव्यों में से किसी के भी पक्ष में कोई साक्ष्य नहीं है। कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा यह भी कहा गया था कि यदि ये मन्तव्य सिध्द हो जाते हैं तो मुस्लिम स्वेच्छापूर्वक इस विवादास्पद पूजा स्थल को हिन्दुओं को सौंप देंगे। स्वाभाविक है कि विश्व हिन्दू परिषद और ऑल इण्डिया बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के बीच बातचीत में यह एक केन्द्रीय मुद्दा बन गया।''

अंग्रेजी प्रारूप
2.3 "During the negotiations aimed at finding an amicable solution to the dispute, one issue which came to the fore was whether a HIndu Temple had existed on the site occupied by the disputed structure and whether it was demolished on Babar's orders for the construction of the masjid. It was stated on behalf of the Muslim organisations, as well as by certain eminent historians, that there was no evidence in favour of either of these two assertions. It was also stated by certain Muslim leaders that if these assertions were proved, the Muslims would voluntarily handover the disputed shrine to the Hindus. Naturally, this became the central issue in the negotiations between the VHP and AIBMAC". (VHP- Vishwa Hindu Parishad, AIBMAC- All India Babri Masjid Action Committee)

राष्ट्रपति महोदय के द्वारा संविधान की धारा 143ए के अन्तर्गत पूछे गए प्रश्न के सम्बन्ध में भारत सरकार का विचार एवं उद्देश्य और अधिक स्पष्ट किए जाने की मांग सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ ने भारत सरकार से की। भारत सरकार के तत्कालीन सॉलिसीटर जनरल श्री दीपांकर पी. गुप्ता ने दिनांक 14 सितम्बर, 1994 को भारत सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए अपना लिखित वक्तव्य सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किया। वक्तव्य का अन्तिम पैराग्राफ क्रमांक 5 निम्न प्रकार है -

Statement on Behalf of The Union of India By Dipankar P- Gupta Solicitor General of India
"If efforts at a negotiated settlement as aforesaid do not succeed, Government is committed to enforce a solution in the light of the Supreme Court's opinion and consistent with it. Government's action in this regard will be even - handed in respect of both the communities. If the question referred is answered in the affirmative, namely, that a Hindu temple/ structure did exist prior to the construction of the demolished structure, Government action will be in support of the wishes of the Hindu community. If, on the other hand, the question is answered in the negative, namely, that no such Hindu temple/structure existed at the relevant time, then government action will be in support of the wishes of the Muslim community".

भारत सरकार के तत्कालीन सॉलिसीटर जनरल दीपांकर पी. गुप्ता के लिखित वक्तव्य (14 सितम्बर, 1994) के अन्तिम पैराग्राफ का हिन्दी सारांश-
''यदि वार्तालाप से समाधान के प्रयास सफल नहीं होते हैं तो भारत सरकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई राय के आधार पर समाधान लागू करने के लिए वचनबध्द है। इस सम्बन्ध में सरकार की कार्यवाही दोनों समुदायों के प्रति एक जैसी होगी। यदि न्यायालय को प्रस्तुत किए गए प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होता है अर्थात ढहा दिए गए ढांचे के निर्माण के पूर्व उस स्थान पर एक हिन्दू मन्दिर/भवन था तो सरकार हिन्दू समुदाय की भावनाओं के अनुरुप कार्य करेगी। इसके विपरीत यदि प्रश्न का उत्तर नकारात्मक है अर्थात वहाँ पहले कोई हिन्दू मन्दिर/भवन नहीं था तो भारत सरकार मुस्लिम समुदाय की भावनाओं के अनुरुप व्यवहार करेगी।''

लगभग बीस महीने तक सर्वोच्च न्यायालय में राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न तथा भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण की वैधानिकता पर सुनवाई हुई। 24 अक्टूबर, 1994 को न्यायालय ने अपना निर्णय सुनाया। निर्णय बहुमत और अल्पमत में बंट गया। बहुमत का निर्णय न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा द्वारा सुनाया गया। जिसके पक्ष में मुख्य न्यायाधीश वैंकटचलैया तथा न्यायमूर्ति जी. एन. रे रहे। इसके विपरीत अल्पमत का निर्णय न्यायमूर्ति भरुचा द्वारा सुनाया गया। जिसके पक्ष में न्यायमूर्ति ए. एम. अहमदी रहे।

यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय में ''इस्माइल फारूखी बनाम भारत सरकार व अन्य'' (1994) 6 SCC के नाम से जाना जाता है तथा प्रकाशित हो चुका है।

बहुमत का निर्णय 98 पृष्ठों में था तथा अल्पमत का निर्णय 42 पृष्ठों में था। दोनों ही निर्णयों में न्यायाधीशों ने, भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण का उद्देश्य व कारण तथा श्वेत पत्र में मुस्लिमों के वचन तथा सोलिसीटर जनरल दीपांकर पी. गुप्ता द्वारा सरकार की ओर से दिए गए लिखित वक्तव्य को, अपनी भूमिका में ज्यों का त्यों लिखा।

अल्पमत निर्णय में भारत सरकार द्वारा किए गए अधिग्रहण को पूर्णत: रद्द कर दिया गया। साथ ही साथ महामहिम राष्ट्रपति महोदय के प्रश्न को अनुत्तरित वापस करते हुए कहा कि ^^In our view, the reference must not be answered for the follwing reasons. The Act and the reference, as stated hereinabove, favour one religious community and disfavour another, the purpose of the reference is therefore, opposed to secularism and is unconstitutional. Besides, the reference does not serve a constitutional purpose". अर्थात '' अधिग्रहण कानून एवं महामहिम राष्ट्रपति महोदय का यह प्रश्न एक समुदाय विशेष के पक्ष में तथा दूसरे के विपक्ष में है और इस प्रकार यह धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध है और असंवैधानिक है तथा यह प्रश्न कोई संवैधानिक उद्देश्य पूरा नहीं करता।''

सर्वोच्च न्यायालय की 5 न्यायाधीशों की पीठ के तीन न्यायाधीशों द्वारा 24 अक्टूबर, 1994 को सामूहिक रूप से सुनाए गए बहुमत के निर्णय (1994-6, एस. सी. सी.) का सारांश-

01. अधिग्रहण कानून की धारा 4(3) को असंवैधानिक व अमान्य घोषित करते हैं। इस धारा के अन्तर्गत यह प्रावधान था कि अधिग्रहीत क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाली विवादित सम्पदा से सम्बंधित किसी भी न्यायालय में चलने वाले सभी प्रकार के वाद स्वत: समाप्त हो जाएंगे।

02. धारा 4(3) को छोड़कर अधिग्रहण कानून की शेष सभी धाराओं को मान्य करते हुए उसे दी गई चुनौतियों को निरस्त किया जाता है।

03. भारतवर्ष में लागू कानून के अन्तर्गत जो स्थान मन्दिर, गुरूद्वारा या अन्य किसी उपासना स्थल को प्राप्त है, ठीक उसी के बराबर और वैसी ही अधिकार भारत में चलने वाले मुस्लिम कानून के अन्तर्गत मस्जिद को है, उससे अधिक कदापि नहीं। अधिग्रहण किए जाने के सम्बन्ध में अन्य पूजा स्थलों की तुलना में मस्जिद को किसी विशेष रियायत की सुविधा प्राप्त नहीं है। मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं है, नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहाँ तक कि खुले में भी।

04. विवादित परिसर (सामान्य रूप से जहाँ राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा खड़ा था) से सम्बंधित सभी प्रकार के वाद अपने अन्तरिम आदेशों के सहित न्यायिक निपटारे के लिए पुनर्जीवित किए जाते हैं परन्तु सभी अन्तरिम आदेश अधिग्रहण कानून की धारा 7 के प्रकाश में संशोधित हो जाएंगे।

05. विवादित परिसर के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार की भूमिका संवैधानिक रिसीवर के दायित्व तक ही सीमित है। सरकार का कर्तव्य होगा कि वह अधिग्रहण कानून की धारा 7(2) के अनुसार उस स्थान की व्यवस्था और प्रशासन के साथ-साथ 7 जनवरी, 1993 वाली यथास्थिति भी बनाए रखे। सरकार का यह भी कर्तव्य होगा कि न्यायिक फैसला होने के पश्चात फैसले के अनुसार अधिग्रहण कानून की धारा 6 के अन्तर्गत विवादित परिसर सम्बंधित पक्ष को सौंप दे।

06. कोई नया अन्तरिम आदेश देने का न्यायालय का अधिकार अधिग्रहण कानून की धारा 7 की परिधि से बाहर के क्षेत्र तक के लिए ही सीमित होगा, विवादित परिसर के लिए नहीं।

07. विवादित परिसर से सटी हुई आसपास की भूमि का अधिग्रहण अपने में पूर्ण है और इसका प्रबन्ध व प्रशासन भी केन्द्रीय सरकार के पास धारा 7(1) के अनुसार तभी तक रहेगा जब तक की सरकार इस सटे हुए क्षेत्र को किसी अन्य अधिकृत व्यक्ति, व्यक्ति समूह या किसी न्यास के न्यासी को धारा 6 के अनुसार सौंप नहीं देती।

08. आर्थिक क्षतिपूर्ति केवल उन्हीं भू-स्वामियों के लिए है जिनकी सम्पत्ति पूर्ण रूप से केन्द्रीय सरकार में निहित हो चुकी है और उनके स्वामित्व पर कोई विवाद ही नहीं है। केन्द्रीय सरकार को विवादित परिसर का रिसीवर इस दायित्व के साथ बनाया गया है कि वह न्यायिक फैसला होने तक यह स्थान इसके मालिक को वापिस कर देगा।

09. विवादित परिसर से सटी हुई भूमि के जिन भू-स्वामियों ने अपनी भूमि अधिग्रहण पर आपत्तियाँ उठाई हैं वह इस समय विचारणीय नहीं हैं। यह निर्णय हो जाने के बाद कि विवाद के निपटारे के लिए ठीक-ठीक कितनी भूमि की आवश्यकता होगी, शेष बची हुई अतिरिक्त भूमि उनके भू-स्वामियों को लौटा दी जाए।

10. विवाद के निपटारे के लिए आवश्यक भूखण्ड का ठीक-ठीक निर्धारण हो जाने के बाद शेष बची हुई भूमि को लगातार केन्द्रीय सरकार यदि अपने अधिकार में दबाकर रखती है तो उन-उन क्षेत्रों के भू-स्वामियों को अदालत में दी गई चुनौती याचिकाओं के नवीनीकरण की छूट होगी।

11. महामहिम राष्ट्रपति द्वारा संविधान की धारा 143(1) के अन्तर्गत भेजे गए प्रश्न को हम अनावश्यक मानते हुए सम्मानपूर्वक राय देने से इन्कार करते हैं और वापस करते हैं।

मुकदमों का पुनर्जीवन व वापसी
सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के बहुमत के निर्णय के परिणामस्वरूप विवादित श्रीराम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद परिसर से सम्बंधित चारों वाद, जो अधिग्रहण के कारण स्वत: समाप्त हो गए थे, फिर से पुनर्जीवित हो गए और वापस इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ को भेज दिए गए। लखनऊ पीठ में इन मुकदमों की सुनवाई के लिए पहले से ही तीन न्यायाधीशों की पूर्णपीठ बनी हुई थी।

ढांचा न रहने के तथा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के प्रकाश में सभी पक्षकारों (वादी एवं प्रतिवादी) को अपने वाद में तथा मांगी गई प्रार्थना में संशोधन की छूट दी गई। संशोधन हुए भी, जैसे- सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कब्रिस्तान की अपनी मांग को वापस ले लिया आदि। सभी वादों में पूर्व में निर्धारित हो चुके वाद बिन्दुओं (Issues) में भी संशोधन हुए। गवाहों के मौखिक बयान एवं दूसरे पक्ष के वकीलों द्वारा प्रश्नोत्तर (Cross Examination) प्रारम्भ हुआ। सभी पक्षों ने अपने-अपने पक्ष में तथ्य प्रस्तुत किए। लगभग सभी पक्षों की ओर से अनुमानित 80 गवाह प्रस्तुत हुए। गवाहों में पुरातत्ववेत्ता, लिपिशास्त्री, प्राचीन भारतीय इतिहास, मुस्लिम शासनकाल के जानकार इतिहासकार, ब्रिटिश शासनकाल के जानकार इतिहासकार, भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के विशेषज्ञ तथा तथ्यों के जानकार आदि सभी प्रकार के गवाह थे। गवाहियाँ लगभग 2006 ई0 के प्रारम्भ तक चलती रहीं।

इसी बीच मई, 2002 में उच्च न्यायालय की विशेष पीठ के तीनों न्यायाधीशों ने अयोध्या में विवादित परिसर और उसके आसपास का स्वयं जाकर निरीक्षण किया। तीनों न्यायाधीश भीषण गर्मी में लगभग दो घण्टे तक परिसर में घूमते रहे। अनेक प्रश्न उन्होंने जिला प्रशासन को लिखकर भेजे थे। विवादित परिसर में घूमते समय अपने सभी प्रश्नों का उत्तर उन्होंने जिला प्रशासन से मौखिक रूप में प्राप्त किया। अपने इस निरीक्षण पर उन्होंने कोई रिपोर्ट लिखी अथवा नहीं लिखी, यह ज्ञात नहीं हुआ। यदि न्यायमूर्तिगण अपने निरीक्षण पर कोई रिपोर्ट लिखते तो उसकी प्रतिलिपि सभी पक्षों को अवश्य मिलती। किसी पक्ष को कोई प्रति नहीं मिली, इसका यही अर्थ है कि उन्होंने निरीक्षण तो किया परन्तु अपने निरीक्षण पर कोई लिखित टिप्पणी अपने रिकार्ड में नहीं रखी।

01 अगस्त, 2002 को उच्च न्यायालय की पीठ ने एक अन्तरिम आदेश जारी कर सभी पक्षकारों से उनके सुझाव/विचार लिखित रूप में 15 दिन में मांगे। आदेश के प्रमुख अंश-

1. सभी वादों में मौलिक वाद बिन्दु यह है कि क्या प्रश्नगत स्थान पर पहले कभी कोई हिन्दू मन्दिर अथवा हिन्दू धार्मिक भवन खड़ा था, जिसे तोड़कर उस स्थान पर तथाकथित बाबरी मस्जिद बनाई गई ?
2. अदालत ने अपने अन्तरिम आदेश में लिखा कि इसी प्रकार का वाद बिन्दु सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद ओ.ओ.एस.-4/1989 तथा रामलला विराजमान के वाद ओ.ओ.एस.- 5/1989 में भी बना है तथा महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने भी संविधान की धारा 143 के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय की राय जानने के लिए न्यायालय के पास ऐसा ही प्रश्न भेजा था।
3. पुरातत्व विज्ञान इस प्रश्न का उत्तर देने में सहायक हो सकता है। वर्तमानकाल में पुरातत्व विज्ञान उत्खनन के माध्यम से भूतकाल का इतिहास बारीकी से बता सकता है।
4. यदि विवादित स्थल पर कभी कोई मन्दिर या धार्मिक भवन रहा होगा तब उत्खनन के माध्यम से उसकी नींव खोजी जा सकती है।
5. उन्होंने यह भी लिखा कि उत्खनन के पूर्व हम पुरातत्व विभाग के माध्यम से राडार तरंगों द्वारा भूमि के नीचे की फोटोग्राफी (Ground Penetrating Radar Survey) कराएंगे।

उपर्युक्त अन्तरिम आदेश पर सभी पक्षों ने अपने विचार/सुझाव लिखित रूप में दिए। अन्तत: न्यायपीठ ने राडार सर्वे का आदेश दिया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने राडार सर्वे का यह कार्य ''तोजो विकास इण्टरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड'' को सौंपा। यह सर्वे 30 दिसम्बर, 2002 से 17 जनवरी, 2003 तक विवादित परिसर में सम्पन्न हुआ। लगभग 4000 वर्गमीटर क्षेत्र का तथा गहराई में 5.5 मीटर नीचे तक का राडार सर्वे किया गया, फोटो लिए गए। सर्वे रिपोर्ट देने वाले मुख्य भू-भौतिकी विशेषज्ञ कनाडा के थे। अपनी रिपोर्ट के निष्कर्ष भाग में उन्होंने लिखा कि ''राडार सर्वे के चित्रों में अनेक विसंगतियाँ दिख रही हैं, जो प्राचीन भवन की रचना हो सकती है। इन विसंगतियों में स्तम्भ, नींव की दीवारें तथा फर्श और ये दूर-दूर तक फैली हुई हैं। तथापि इन विसंगतियों के सही स्वरूप की पुष्टि पुरातात्विक वैज्ञानिक उत्खनन के माध्यम से की जानी चाहिए।'' राडार सर्वे की यह रिपोर्ट 17 फरवरी, 2003 को उच्च न्यायालय की पीठ को सौंपी गई।

राडार सर्वे रिपोर्ट के निष्कर्ष के आधार पर उच्च न्यायालय ने 5 मार्च, 2003 को पुरातात्विक उत्खनन का आदेश जारी किया। मार्च, 2003 से अगस्त, 2003 तक विवादित परिसर के चारों ओर उत्खनन हुआ। यह ध्यान रखा गया कि उत्खनन के दौरान रामलला विराजमान को कोई क्षति न पहुँचे और दर्शनार्थियों का मार्ग भी बन्द न हो। उत्खनन हुआ। सभी पक्षों के प्रतिनिधि स्वरूप उनके अधिवक्ता, पक्षकार स्वयं तथा पक्षकारों की ओर से नियुक्त अन्य कोई पुरातात्विक विशेषज्ञ यदि उत्खनन स्थान पर उपस्थित रहना चाहें तो उन्हें उच्च न्यायालय ने फोटो सहित अनुमति पत्र जारी किए। उत्खनन कार्य की पल-पल की वीडियोग्राफी हुई। ऑवजर्वर के रूप में दो अतिरिक्त जिला जज नियुक्त किए गए। दो भागों में रिपोर्ट बनी। भाग एक में लिखित वर्णन है तथा भाग दो में उत्खनन से प्राप्त वस्तुओं के चित्र हैं। उत्खनन रिपोर्ट ने अपने निष्कर्ष भाग में स्पष्ट लिखा है कि उत्खनन से प्राप्त दीवारों, स्तम्भाधार, दीवारों में लगे नक्काशीदार पत्थर, शिव मन्दिर जैसी रचना को व अन्य प्राप्त वस्तुओं को देखकर निष्कर्ष निकलता है कि यहाँ कभी कोई हिन्दू मन्दिर रहा होगा।

उत्खनन रिपोर्ट पर सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से आपत्तियाँ लिखित रूप में की गईं। अनेक प्रकार के मौखिक आरोप लगाए गएं उत्खनन रिपोर्ट को रिकार्ड में लेना चाहिए अथवा नहीं इस पर बहस हुई। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से जाने-माने वरिष्ठ अधिवक्ता एवं राजनेता श्री सिद्धार्थ शंकर रे उपस्थित हुए। इसके विपरीत वादी गोपाल सिंह विशारद की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कृष्णमणि ने रिपोर्ट को रिकार्ड में लिए जाने के लिए कानून प्रस्तुत किया। अन्तत: रिपोर्ट रिकार्ड का हिस्सा बनी। दोनों पक्षों की ओर से पुरातत्ववेत्ता मौखिक गवाह के रूप में प्रस्तुत हुए। पुरातत्ववेत्ताओं से दूसरे पक्ष के वकीलों ने जिरह की।

2006 ई0 से सिविल मुकदमें का अन्तिम चरण प्रारम्भ हो गया। अन्तिम चरण अर्थात् वकीलों के तर्क (Arguments)। सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे को प्रमुख वाद मान लिए जाने के कारण उनकी ओर से तर्क प्रारम्भ हुए।

1996 ई0 से उच्च न्यायालय में प्रारम्भ हुए मुकदमे में महत्वपूर्ण पहलू है, न्यायपीठ का बार-बार पुनर्गठन। किसी न किसी न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के कारण न्यायपीठ का पुनर्गठन हुआ। तब तक सुनवाई रूक जाती थी। Argument के दौरान ही न्यायपीठ का तीन बार पुनर्गठन हुआ। इसके कारण Argument फिर से सुने जाते थे। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से अधिवक्ता श्री जफरयाब जिलानी को तीन बार अपने बात दोहरानी पड़ी। अन्तिम पुनर्गठन की परिस्थिति अगस्त, 2009 के अन्तिम सप्ताह में पैदा हुई जब पता लगा कि न्यायपीठ में 1996 से मुकदमे को सुन रहे न्यायाधीश सैयद रफात आलम साहब को मध्यप्रदेश में मुख्य न्यायाधीश का स्थान प्राप्त हो गया है। अगले दिन से ही न्यायपीठ ने अपना कार्य बन्द कर दिया। चार महीने बाद 20 दिसम्बर, 2009 को न्यायपीठ में न्यायमूर्ति एस. यू. खान की नियुक्ति हुई। उन्होंने 10 जनवरी, 2010 से कार्य प्रारम्भ किया। जनवरी, 2010 के बाद प्रतिदिन अदालत बैठी। प्रतिदिन अर्थात एक महीने में लगभग 20 दिन और एक दिन में कम से कम साढ़े चार घण्टे की सुनवाई।



सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद में एक हिन्दू प्रतिवादी की ओर से कलकत्ता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी. एन. मिश्रा ने अप्रैल, 2010 में सुन्नी वक्फ बोर्ड के वाद के विरुध्द अपने तर्क प्रभावी रूप से रखे। इनका सहयोग स्थानीय अधिवक्ता सुश्री रंजना अग्निहोत्री ने किया। हिन्दू पक्ष अदालत के सामने आना प्रारम्भ हो गया। सुन्नी वक्फ बोर्ड के मुकदमे के ही एक अन्य प्रतिवादी परमहंस रामचन्द्रदास की ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री रविशंकर प्रसाद ने तर्क प्रस्तुत किए तथा एक और प्रतिवादी महंत धर्मदास की ओर से चेन्नई उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री जी. राजगोपालन ने वक्फ बोर्ड के मुकदमे के विरुध्द अपने तर्क रखे। इनका सहयोग लखनऊ के अधिवक्ता श्री राकेश पाण्डेय ने किया। (श्री राकेश पाण्डेय के पूज्य पिता जी ने ही जिला जज के रूप में श्रीरामजन्मभूमि के ताले को खोलने का आदेश फरवरी, 1986 में दिया था)।

श्री रविशंकर प्रसाद का सहयोग अधिवक्तागण सर्वश्री भूपेन्द्र यादव, विक्रम बनर्जी, सौरभ समशेरी ने किया। वादी रामलला विराजमान के वाद क्रमांक 5/1989 की ओर से रामलला का पक्ष सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के. एन. भट्ट तथा फैजाबाद के अधिवक्ता श्री मदनमोहन पाण्डेय ने प्रस्तुत किया। कुछ अन्य वकील भी बोले। उनमें प्रमुख हैं- उच्च न्यायालय, लखनऊ के अधिवक्ता श्री हरिशंकर जैन तथा श्री अजय पाण्डेय एडवोकेट। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्ता न्यायाधीश लखनऊ निवासी श्रध्देय श्री कमलेश्वर नाथ जी का मुकदमें को तैयार कराने में किया गया योगदान विलक्षण है।

जब अदालत द्वारा सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता को कहा गया कि वे अपने मुकदमे के विरुध्द प्रस्तुत किए गए कानूनी तर्कों का जबाव दें तो उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। अदालत ने लगभग सभी अधिवक्ताओं को अपनी बात कहने का अवसर दिया। 27 जुलाई, 2010 को सुनवाई समाप्त घोषित कर दी गई। न्यायाधीशों ने सभी पक्ष के वकीलों को क्रमिक रूप से अपने चैम्बर में बुलाकर मुकदमे के सम्बन्ध में विचारविमर्श किया। अन्तत: यह प्रक्रिया भी जुलाई के अन्त में पूरी हो गई। न्यायपीठ ने सभी पक्षों के सम्मुख यह स्पष्ट कर दिया था कि वे सितम्बर के तीसरे सप्ताह के आसपास अपना निर्णय सुनाएंगे और इसकी जानकारी पर्याप्त समय पहले सभी अधिवक्ताओं को दी जाएगी। अदालत ने अपने वचन का पालन किया।

निर्णय सुनाने की तारीख 24 सितम्बर, 2010 सारे देश को 8 सितम्बर, 2010 को ही पता लग गया। निर्णय तो भविष्य के गर्भ में निहित है। यह भी सब मान रहे हैं कि असंतुष्ट पक्ष सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएगा। मुकदमा गम्भीर है। सर्वोच्च न्यायालय को तो सुनना ही पड़ेगा। वहाँ क्या होगा ? कितने वर्ष लगेंगे ? क्या आने वाले 25 वर्षों में भी फैसला हो पाएगा ? कुछ भी कहना कठिन है। हमें तो लगता है कि गेंद अन्तत: भारत सरकार के पाले में जाएगी।

(संकलनकर्ता : विश्व हिंदू परिषद के संयुक्त राष्ट्रीय महामंत्री हैं।)

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