कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव राहुल गांधी ने देशभक्त संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना प्रतिबंधित और कुख्यात आतंकी संगठन सिमी से करके अपने नासमझी और अपरिपक्वता का ठोस परिचय दिया है। अभी तक उनकी नासमझी व अपरिपक्वता को लेकर देश की जनता में कुछ संदेह था, लेकिन श्री गांधी ने इस प्रकार का बयान देकर उस संदेह को भी दूर कर दिया है।
हालांकि, 40 वर्षीय श्री गांधी ऐसा बचकाना बयान देंगे, यह किसी ने भी नहीं सोचा था। इसलिए उनका बयान हैरत में डालने वाला है। वह देश के लिए एक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। केवल सांसद हैं इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए भी, क्योंकि वह ऐसे खानदान का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसने पंडित नेहरू सहित इस देश को तीन-तीन प्रधानमंत्री दिए हैं। इसलिए राहुल महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। संसदीय लोकतंत्र में ऐसे बयान को किसी भी सूरत में मर्यादापूर्ण नहीं कहा जा सकता है। यह हर स्थिति में लोकतंत्र की गरिमा को तार-तार करने वाला है।
अब प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति आतंकी संगठन और सामाजिक संगठन में अंतर न समझ पाता हो, उस व्यक्ति को भविष्य में यदि कभी देश का नेतृत्व करने का मौका मिले, तो वह देश की बागडोर ठीक से संभाल सकेगा, इस बारे में लोगों को सदैव संदेह बना रहेगा। ध्यातव्य है कि राहुल ने मध्य प्रदेश के त्रि-दिवसीय प्रवास के दौरान कहा था कि कांग्रेस के कार्यकर्ता सिमी और आरएसएस से दूर रहें, क्योंकि ये दोनों संगठन कट्टरवाद के समर्थक हैं और दोनों की विचारधारा में कोई खास फर्क नहीं है।
राहुल ने टिप्पणी तो कर दी लेकिन उनको शायद ही आरएसएस का इतिहास पता हो। वह आरएसएस के संस्थापक का ही ठीक से पूरा नाम नहीं बता सकते। हालांकि, वह आरएसएस को कितना जानते हैं यह बताने के लिए उनका बयान ही काफी है। राहुल के इस प्रकार के ऊल-जुलूल बयान से यह स्पष्ट हो गया है कि उनको इस देश के इतिहास-भूगोल की भी कोई जानकारी नहीं है। राहुल की विशेषता अब केवल स्वर्गीय श्री राजीव गांधी का बेटा होना भर ही रह गया है।
राहुल को यह जानना चाहिए कि सिमी पर भाजपा नीत राजग सरकार ने प्रतिबंध लगाया था। उसके बाद उनकी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने उस प्रतिबंध को आगे बढ़ा दिया। क्योंकि वह खूंखार आतंकी संगठन है और देश में हुए कई आतंकी विस्फोटों में उसका हाथ है। सिमी पर अमेरिका ने भी प्रतिबंध लगा रखा है। राहुल की नजर में आरएसएस यदि सिमी जैसा संगठन है तो उनको अपनी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार से उस पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहना चाहिए। यदि आरएसएस सचमुच में सिमी के समान है, तो उनकी सरकार ने आरएसएस पर बिना प्रतिबंध लगाए क्यों छोड़ रखा है, यह सोचने वाली बात है ?
दरअसल, राहुल को स्वयं नहीं पता होता है कि वह क्या बोल रहे हैं। वह हमेशा लिखा हुआ भाषण पढ़ते हैं और भाषण में जो कुछ भी लिखा होता है, उसी को वह पढ़ डालते हैं।
हालांकि, राहुल गांधी के बयान से आरएसएस की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। हां, इतना अवश्य है कि राहुल ऐसा बोलकर स्वयं ‘हल्के’ पड़ गए हैं। क्योंकि इस देश की जनता किसी भी राजनेता या श्रेष्ठ व्यक्तित्व से सदैव मर्यादित व संयमित व्यवहार तथा भाषा की अपेक्षा करती है।
कहा जाता है कि आदमी का बड़प्पन जीवन के किसी भी स्थिति, परिस्थित और मनःस्थिति में धैर्य व धीरज बनाए रखते हुए मर्यादापूर्ण आचरण व व्यवहार करने में होता है। लेकिन सामान्य स्थितियों में ही धैर्य खोकर विक्षिप्तावस्था में आ जाना और ऊल-जुलूल बातें करना, यह मनुष्य के व्यक्तित्व के एक वास्तविक पहलू को ही दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति से देश के लिए और देशहित में किसी बड़े काम की उम्मीद नहीं की जा सकती।
शुक्रवार, अक्तूबर 08, 2010
मंगलवार, अक्तूबर 05, 2010
अयोध्या और पाकिस्तान
हामिद मीर
बाबरी मस्ज़िद विवाद के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर किसी पाकिस्तानी मुसलमान के लिये निष्पक्ष टिप्पणी करना बेहद मुश्किल है। पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमान मानते हैं कि यह ‘कानूनी’ नहीं ‘राजनीतिक’ फैसला है। फैसला आने के तुरंत बाद मैंने अपने टीवी शो ‘कैपिटल टॉक’ के फेसबुक पर आम पाकिस्तानी लोगों की राय जानने की कोशिश की।
बहुत से पाकिस्तानी इस फैसले से खुश नहीं थे लेकिन मैं एक टिप्पणी को लेकर चकित था, जिसमें कहा गया था कि “इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय मुसलमानों को बचा लिया।” कुछ पाकिस्तानियों ने मुझे लिखा कि “यह उचित फैसला है।”
इन ‘अल्पसंख्यक’ लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणियों ने मुझे एक भारतीय समाचार माध्यम के लिये लिखने को प्रेरित किया।
सबसे पहले तो मैं अपने भारतीय पाठकों को साफ करना चाहूंगा कि पाकिस्तानी मीडिया ने कभी भी इस फैसले को लेकर हिंदुओं के खिलाफ नफरत फैलाने की कोई कोशिश नहीं की। पाकिस्तान के सबसे बड़े निजी टेलीविजन चैनल जिओ टीवी पर इसका कवरेज बेहद संतुलित था। जिओ टीवी ने मुस्लिम जज जस्टिस एस.यू. खान के फैसले को प्रमुखता दी, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों कौमों को अयोध्या की जमीन बराबरी से देने पर सहमत थे।
पाकिस्तानी मुसलमानों में अधिकांश सुन्नी विचारधारा के लोग हैं। सुन्नी बरेलवी मुसलमानों में सर्वाधिक सम्मानित विद्वान मुफ्ती मुन्नीबुर रहमान 30 सितंबर की रात 9 बजे के जीओ टीवी के न्यूज बुलेटिन में उपस्थित थे। उन्होंने फैसले पर अपनी राय देते हुये कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला राजनीतिक है लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों से अपील की कि “उन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखना चाहिये और इस्लाम के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा से उन्हें दूर रहना चाहिये।”
मैं 1992 में बाबरी मस्ज़िद के गिराये जाने के बाद पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर किये गये हमले को याद करता हूं। पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों ने उस त्रासदी का खूब फायदा उठाया। असल में चरमपंथी इस विवाद के सर्वाधिक लाभ उठाने वालों में थे, जो यह साबित करने की कोशिश में थे कि भारत के सभी हिंदू भारत के सभी मुसलमानों के दुश्मन हैं, जो सच नहीं था। 2001 तक बाबरी मस्ज़िद विवाद बहुत से लेखकों और पत्रकारों के लेखन का विषय था।
9/11 की घटना ने पूरी दुनिया को बदल दिया और पाकिस्तानी चरमपंथी गुटों की निगाहें भारत से मुड़कर अमरीका की ओर तन गईं। 2007 में पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद के लाल मस्ज़िद पर किये गये हमले के बाद तो बाबरी मस्ज़िद विवाद का महत्व और भी कम हो गया। अधिकांश पाकिस्तानी मुसलमानों की सही या गलत राय थी कि अपदस्थ किये गये पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में वकीलों के आंदोलन से ध्यान हटाने के लिये यह परवेज मुशर्रफ द्वारा खुद ही रचा गया ड्रामा था।
मुझे याद है कि 2007 में बहुत से मुस्लिम विद्वानों ने यह कहा था कि हम उन अतिवादी हिंदुओं की भर्त्सना करते हैं, जिन्होंने बाबरी मस्ज़िद पर हमला किया लेकिन अब पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद में एक मस्ज़िद पर हमला किया गया है, तब हम क्या कहें?
लाल मस्ज़िद ऑपरेशन ने पाकिस्तान में ज्यादा अतिवादिता फैलाई और वह एक नये दौर की शुरुआत थी। चरमपंथियों ने सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले शुरु कर दिया और कुछ समय बाद तो वे उन सभी मस्ज़िदों पर भी हमला बोलने लगे, जहां सुरक्षा बल के अधिकारी नमाज पढ़ते थे।
मैं यह स्वीकार करता हूं कि भारत में गैर मुसलमानों द्वारा जितने मस्ज़िद तोड़े गये होंगे, पाकिस्तान में उससे कहीं अधिक मस्ज़िदें तथाकथित मुसलमानों द्वारा तोड़ी गयीं।
मेरी राय में किसी भी पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ या मजहबी गुट को बाबरी मस्ज़िद विवाद का फायदा उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। इस विवाद को भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को पर छोड़ देना चाहिये, जो अपने कानूनी प्रक्रिया से इसे सुलझायेंगे। सुन्नी वक्फ़ बोर्ड फैसले से खुश नहीं है लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में सुलह की उम्मीद देख रहा है। एक पाकिस्तानी के तौर पर हम क्या कर सकते हैं?
मैं सोचता हूं कि बतौर पाकिस्तानी हमें अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों को और अधिक कानूनी, राजनीतिक और नैतिक संरक्षण दें; सत्ता और विपक्ष में शामिल अपने कई मित्रों को मैंने पहले भी सुझाव दिया है कि हम पाकिस्तानी हिंदुओं, सिक्खों और इसाइयों के हितों का और ख्याल रखें। वो जितने मंदिर या चर्च बनाना चाहें, हम इसकी अनुमति उन्हें दें। हमें पाकिस्तान के ऐसे भू-माफियाओं को हतोत्साहित करने की जरुरत है, जो सिंध और मध्य पंजाब के हिंदू मंदिरों और गिरजाघरों पर कब्जे की कोशिश करते रहते हैं। जब हम पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को अधिक से अधिक संरक्षण देंगे तो भारतीय भी ऐसा ही करेंगे और वे अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों की ज्यादा हिफाजत करेंगे।
पाकिस्तानियों को अपने मस्ज़िदों की हिफाजत करनी चाहिये। आज की तारीख में हमारे मस्ज़िद हिंदू अतिवादियों के नहीं, मुस्लिम अतिवादियों के निशाने पर हैं। अतिवाद एक सोच का तरीका है।। इनका कोई मजहब नहीं होता। लेकिन कभी ये इस्लाम के नाम पर, कभी हिंदू धर्म के नाम पर तो कभी इसाइयत के नाम पर हमारे सामने आते हैं। हमें इन सबकी भर्त्सना करनी चाहिये।
(लेखक : पाकिस्तानी चैनल जिओ टीवी के संपादक हैं।)
बाबरी मस्ज़िद विवाद के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर किसी पाकिस्तानी मुसलमान के लिये निष्पक्ष टिप्पणी करना बेहद मुश्किल है। पाकिस्तान के अधिकांश मुसलमान मानते हैं कि यह ‘कानूनी’ नहीं ‘राजनीतिक’ फैसला है। फैसला आने के तुरंत बाद मैंने अपने टीवी शो ‘कैपिटल टॉक’ के फेसबुक पर आम पाकिस्तानी लोगों की राय जानने की कोशिश की।
बहुत से पाकिस्तानी इस फैसले से खुश नहीं थे लेकिन मैं एक टिप्पणी को लेकर चकित था, जिसमें कहा गया था कि “इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भारतीय मुसलमानों को बचा लिया।” कुछ पाकिस्तानियों ने मुझे लिखा कि “यह उचित फैसला है।”
इन ‘अल्पसंख्यक’ लेकिन महत्वपूर्ण टिप्पणियों ने मुझे एक भारतीय समाचार माध्यम के लिये लिखने को प्रेरित किया।
सबसे पहले तो मैं अपने भारतीय पाठकों को साफ करना चाहूंगा कि पाकिस्तानी मीडिया ने कभी भी इस फैसले को लेकर हिंदुओं के खिलाफ नफरत फैलाने की कोई कोशिश नहीं की। पाकिस्तान के सबसे बड़े निजी टेलीविजन चैनल जिओ टीवी पर इसका कवरेज बेहद संतुलित था। जिओ टीवी ने मुस्लिम जज जस्टिस एस.यू. खान के फैसले को प्रमुखता दी, जो हिंदू और मुस्लिम दोनों कौमों को अयोध्या की जमीन बराबरी से देने पर सहमत थे।
पाकिस्तानी मुसलमानों में अधिकांश सुन्नी विचारधारा के लोग हैं। सुन्नी बरेलवी मुसलमानों में सर्वाधिक सम्मानित विद्वान मुफ्ती मुन्नीबुर रहमान 30 सितंबर की रात 9 बजे के जीओ टीवी के न्यूज बुलेटिन में उपस्थित थे। उन्होंने फैसले पर अपनी राय देते हुये कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला राजनीतिक है लेकिन उन्होंने भारतीय मुसलमानों से अपील की कि “उन्हें अपनी भावनाओं पर काबू रखना चाहिये और इस्लाम के नाम पर किसी भी तरह की हिंसा से उन्हें दूर रहना चाहिये।”
मैं 1992 में बाबरी मस्ज़िद के गिराये जाने के बाद पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर किये गये हमले को याद करता हूं। पाकिस्तान में चरमपंथी संगठनों ने उस त्रासदी का खूब फायदा उठाया। असल में चरमपंथी इस विवाद के सर्वाधिक लाभ उठाने वालों में थे, जो यह साबित करने की कोशिश में थे कि भारत के सभी हिंदू भारत के सभी मुसलमानों के दुश्मन हैं, जो सच नहीं था। 2001 तक बाबरी मस्ज़िद विवाद बहुत से लेखकों और पत्रकारों के लेखन का विषय था।
9/11 की घटना ने पूरी दुनिया को बदल दिया और पाकिस्तानी चरमपंथी गुटों की निगाहें भारत से मुड़कर अमरीका की ओर तन गईं। 2007 में पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद के लाल मस्ज़िद पर किये गये हमले के बाद तो बाबरी मस्ज़िद विवाद का महत्व और भी कम हो गया। अधिकांश पाकिस्तानी मुसलमानों की सही या गलत राय थी कि अपदस्थ किये गये पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के पक्ष में वकीलों के आंदोलन से ध्यान हटाने के लिये यह परवेज मुशर्रफ द्वारा खुद ही रचा गया ड्रामा था।
मुझे याद है कि 2007 में बहुत से मुस्लिम विद्वानों ने यह कहा था कि हम उन अतिवादी हिंदुओं की भर्त्सना करते हैं, जिन्होंने बाबरी मस्ज़िद पर हमला किया लेकिन अब पाकिस्तानी सेना द्वारा इस्लामाबाद में एक मस्ज़िद पर हमला किया गया है, तब हम क्या कहें?
लाल मस्ज़िद ऑपरेशन ने पाकिस्तान में ज्यादा अतिवादिता फैलाई और वह एक नये दौर की शुरुआत थी। चरमपंथियों ने सुरक्षाबलों पर आत्मघाती हमले शुरु कर दिया और कुछ समय बाद तो वे उन सभी मस्ज़िदों पर भी हमला बोलने लगे, जहां सुरक्षा बल के अधिकारी नमाज पढ़ते थे।
मैं यह स्वीकार करता हूं कि भारत में गैर मुसलमानों द्वारा जितने मस्ज़िद तोड़े गये होंगे, पाकिस्तान में उससे कहीं अधिक मस्ज़िदें तथाकथित मुसलमानों द्वारा तोड़ी गयीं।
मेरी राय में किसी भी पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ या मजहबी गुट को बाबरी मस्ज़िद विवाद का फायदा उठाने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। इस विवाद को भारत के मुसलमानों और हिंदुओं को पर छोड़ देना चाहिये, जो अपने कानूनी प्रक्रिया से इसे सुलझायेंगे। सुन्नी वक्फ़ बोर्ड फैसले से खुश नहीं है लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में सुलह की उम्मीद देख रहा है। एक पाकिस्तानी के तौर पर हम क्या कर सकते हैं?
मैं सोचता हूं कि बतौर पाकिस्तानी हमें अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों को और अधिक कानूनी, राजनीतिक और नैतिक संरक्षण दें; सत्ता और विपक्ष में शामिल अपने कई मित्रों को मैंने पहले भी सुझाव दिया है कि हम पाकिस्तानी हिंदुओं, सिक्खों और इसाइयों के हितों का और ख्याल रखें। वो जितने मंदिर या चर्च बनाना चाहें, हम इसकी अनुमति उन्हें दें। हमें पाकिस्तान के ऐसे भू-माफियाओं को हतोत्साहित करने की जरुरत है, जो सिंध और मध्य पंजाब के हिंदू मंदिरों और गिरजाघरों पर कब्जे की कोशिश करते रहते हैं। जब हम पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को अधिक से अधिक संरक्षण देंगे तो भारतीय भी ऐसा ही करेंगे और वे अपने मुल्क के अल्पसंख्यकों की ज्यादा हिफाजत करेंगे।
पाकिस्तानियों को अपने मस्ज़िदों की हिफाजत करनी चाहिये। आज की तारीख में हमारे मस्ज़िद हिंदू अतिवादियों के नहीं, मुस्लिम अतिवादियों के निशाने पर हैं। अतिवाद एक सोच का तरीका है।। इनका कोई मजहब नहीं होता। लेकिन कभी ये इस्लाम के नाम पर, कभी हिंदू धर्म के नाम पर तो कभी इसाइयत के नाम पर हमारे सामने आते हैं। हमें इन सबकी भर्त्सना करनी चाहिये।
(लेखक : पाकिस्तानी चैनल जिओ टीवी के संपादक हैं।)
रविवार, अक्तूबर 03, 2010
अयोध्या फैसले के बाद …
“बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो कतरा ए खून न निकला।”
उपरोक्त कथन श्रीराम जन्मभूमि स्वामित्व विवाद के फैसले के बाद सच ही साबित हो रहा है। क्योंकि इसके पहले इस फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। कहा जा रहा था कि फैसले के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क सकती है। दंगे-फसाद हो सकते हैं।
संभावित हिंसा के मद्देनजर देश के सभी सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता व नेतृत्वकर्ता, मीडियाकर्मी व राजनेता और यहां तक कि अभिनेता भी समाज के सभी वर्गों से शांति व भाईचारा बनाए रखने की अपील कर रहे थे, या करते हुए देखे जा रहे थे। सभी उपदेशक की भूमिका में आ गए थे। मानो समाज इन्हीं लोगों के नियंत्रण में है और इन्हीं लोगों के आदर्शों एंव आदेशों से संचालित हो रहा हो।
भारत एक लोकतंत्रिक देश है, इस कारण उन नेताओं का उपदेश कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, जो प्रत्यक्ष चुनाव में जीतकर जनता के प्रतिनिधि बने हैं। लेकिन ऐसे नेताओं का उपदेश हास्यास्पद ही कहा जाएगा जो केवल मनोनीत होते आ रहे हैं। इन मनोनीत होने वालों में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी शामिल हैं। हालांकि, प्रधानमंत्री की बात अलग है, उनको ऐसा अपील करने का अधिकार है। वे देश के प्रमुख पद पर बैठे एक प्रमुख व्यक्ति हैं। कहने का मतलब है कि फैसले को लेकर ऐसे लोग भी उपदेशक की भूमिका निभाने लगे थे जिनका जनता में कहीं कोई आधार या जनाधार नहीं है।
इन नेताओं के उपदेश से ऐसा लग रहा था कि फैसले के बाद जनता सचमुच में हिंसा फैला देगी या तोप-तमंचा लेकर इसके लिए तैयार बैठी है। दरअसल, वास्तविकता यह है कि जनता को केवल फैसले का इन्तजार था और फैसले के किसी भी स्थिति में वह शांति व सौहार्द बनाए रखने के लिए उद्यत थी। क्योंकि 6 दिसम्बर 1992 के दिन से अयोध्या के सरयू का जल करोड़ों किलोमीटर की लम्बी दूरी तय कर चुका है। इस लंबे समयावधि में जनता का मिजाज भी बदला है और व्यवहार भी। जनता अब परिपक्व हो चुकी है। खास बात यह है कि आज का युवा भी शांतिप्रिय है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग अपने करियर को संवारने में लगाना चाहता है। सभी लोग सुख, शांति और समृद्धि के ख्वाहिशमंद हैं। इतना तक तो ठीक है और इन बातों से किसी को कोई शिकवा या शिकायत भी नहीं है। लेकिन शिकायत है तो केवल उन नेताओं से जो चाहते थे कि फैसले के बाद हिंसा भड़क जाए और इसको आधार बनाकर हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सके तथा इसके आधार पर इन संगठनों को प्रतिबंधित किया जा सके।
लेकिन देश की शांतिप्रिय जनता ने फैसले के बाद कहीं कोई खटर-पटर की आवाज तक नहीं की। हिंसा फैलने के सारे दावे और आशंकाएं धूल चाटती नजर आईं। राजनेताओं की सारी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। प्रतिबंध तो दूर की कौड़ी रही, इन हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों पर कोई प्रश्नचिन्ह तक नहीं लग सका।
मामले पर फैसला आने के बाद एक प्रतिष्ठित चैनल के एंकर अपने लखनऊ स्थित संवाददाता से ये बातें बार-बार पूछ रहे थे कि ‘फैसले के बाद कहीं कोई हिंसा तो नहीं भड़की है।’
उस एंकर ने 25 मिनट में ये वाक्य करीब चौदह या पंद्रह बार दुहराया होगा। लखनऊ संवाददाता से बार-बार यही जवाब मिलता रहा कि- ‘नहीं, शांति व सौहार्द कायम है, कहीं कोई ऐसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है’।
अब प्रश्न उठता है कि यह समाचार चैनल आखिर किस अभियान में लगा हुआ था ? हिंसा भड़काने में या लोगों को ये बातें याद दिलाने में कि हिंसा भड़काने का समय आ गया है, तैयार हो जाओ। हालांकि, कुछ को छोड़कर करीब-करीब सभी चैनलों का ऐसा ही रुख देखने को मिला। और भी कई बातें ऐसी थीं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि चैनलों का रवैया देश और समाज के हित में नहीं था।
उल्लेखनीय है कि अयोध्या मामले का फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने सुनाया। इस कारण राजधानी सहित पूरे प्रदेश को हिंसा की दृष्टि से काफी संवेदनशील माना जा रहा था। इसके साथ ही देश के कई प्रमुख स्थानों पर संभावित खतरों के मद्देनजर सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे।
चाहे जो कुछ भी हो लेकिन इस फैसले के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े हुए विभिन्न हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के प्रति समाज की धारणा और सकारात्मक हुई है। समाज की यह सकारात्मक सोच और विश्वास इन संगठनों को एक नई ऊर्जा देगी, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है। इसलिए इस फैसले को इनके लिए रामबाण कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
उपरोक्त कथन श्रीराम जन्मभूमि स्वामित्व विवाद के फैसले के बाद सच ही साबित हो रहा है। क्योंकि इसके पहले इस फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। कहा जा रहा था कि फैसले के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क सकती है। दंगे-फसाद हो सकते हैं।
संभावित हिंसा के मद्देनजर देश के सभी सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता व नेतृत्वकर्ता, मीडियाकर्मी व राजनेता और यहां तक कि अभिनेता भी समाज के सभी वर्गों से शांति व भाईचारा बनाए रखने की अपील कर रहे थे, या करते हुए देखे जा रहे थे। सभी उपदेशक की भूमिका में आ गए थे। मानो समाज इन्हीं लोगों के नियंत्रण में है और इन्हीं लोगों के आदर्शों एंव आदेशों से संचालित हो रहा हो।
भारत एक लोकतंत्रिक देश है, इस कारण उन नेताओं का उपदेश कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, जो प्रत्यक्ष चुनाव में जीतकर जनता के प्रतिनिधि बने हैं। लेकिन ऐसे नेताओं का उपदेश हास्यास्पद ही कहा जाएगा जो केवल मनोनीत होते आ रहे हैं। इन मनोनीत होने वालों में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी शामिल हैं। हालांकि, प्रधानमंत्री की बात अलग है, उनको ऐसा अपील करने का अधिकार है। वे देश के प्रमुख पद पर बैठे एक प्रमुख व्यक्ति हैं। कहने का मतलब है कि फैसले को लेकर ऐसे लोग भी उपदेशक की भूमिका निभाने लगे थे जिनका जनता में कहीं कोई आधार या जनाधार नहीं है।
इन नेताओं के उपदेश से ऐसा लग रहा था कि फैसले के बाद जनता सचमुच में हिंसा फैला देगी या तोप-तमंचा लेकर इसके लिए तैयार बैठी है। दरअसल, वास्तविकता यह है कि जनता को केवल फैसले का इन्तजार था और फैसले के किसी भी स्थिति में वह शांति व सौहार्द बनाए रखने के लिए उद्यत थी। क्योंकि 6 दिसम्बर 1992 के दिन से अयोध्या के सरयू का जल करोड़ों किलोमीटर की लम्बी दूरी तय कर चुका है। इस लंबे समयावधि में जनता का मिजाज भी बदला है और व्यवहार भी। जनता अब परिपक्व हो चुकी है। खास बात यह है कि आज का युवा भी शांतिप्रिय है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग अपने करियर को संवारने में लगाना चाहता है। सभी लोग सुख, शांति और समृद्धि के ख्वाहिशमंद हैं। इतना तक तो ठीक है और इन बातों से किसी को कोई शिकवा या शिकायत भी नहीं है। लेकिन शिकायत है तो केवल उन नेताओं से जो चाहते थे कि फैसले के बाद हिंसा भड़क जाए और इसको आधार बनाकर हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सके तथा इसके आधार पर इन संगठनों को प्रतिबंधित किया जा सके।
लेकिन देश की शांतिप्रिय जनता ने फैसले के बाद कहीं कोई खटर-पटर की आवाज तक नहीं की। हिंसा फैलने के सारे दावे और आशंकाएं धूल चाटती नजर आईं। राजनेताओं की सारी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। प्रतिबंध तो दूर की कौड़ी रही, इन हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों पर कोई प्रश्नचिन्ह तक नहीं लग सका।
मामले पर फैसला आने के बाद एक प्रतिष्ठित चैनल के एंकर अपने लखनऊ स्थित संवाददाता से ये बातें बार-बार पूछ रहे थे कि ‘फैसले के बाद कहीं कोई हिंसा तो नहीं भड़की है।’
उस एंकर ने 25 मिनट में ये वाक्य करीब चौदह या पंद्रह बार दुहराया होगा। लखनऊ संवाददाता से बार-बार यही जवाब मिलता रहा कि- ‘नहीं, शांति व सौहार्द कायम है, कहीं कोई ऐसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है’।
अब प्रश्न उठता है कि यह समाचार चैनल आखिर किस अभियान में लगा हुआ था ? हिंसा भड़काने में या लोगों को ये बातें याद दिलाने में कि हिंसा भड़काने का समय आ गया है, तैयार हो जाओ। हालांकि, कुछ को छोड़कर करीब-करीब सभी चैनलों का ऐसा ही रुख देखने को मिला। और भी कई बातें ऐसी थीं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि चैनलों का रवैया देश और समाज के हित में नहीं था।
उल्लेखनीय है कि अयोध्या मामले का फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने सुनाया। इस कारण राजधानी सहित पूरे प्रदेश को हिंसा की दृष्टि से काफी संवेदनशील माना जा रहा था। इसके साथ ही देश के कई प्रमुख स्थानों पर संभावित खतरों के मद्देनजर सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे।
चाहे जो कुछ भी हो लेकिन इस फैसले के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े हुए विभिन्न हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के प्रति समाज की धारणा और सकारात्मक हुई है। समाज की यह सकारात्मक सोच और विश्वास इन संगठनों को एक नई ऊर्जा देगी, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है। इसलिए इस फैसले को इनके लिए रामबाण कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
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