यूं तो इस धरा पर ईश्वर अनेक विभूतियों को जन्म देता है, सृजन करता है। इनमें प्रत्येक को कोई न कोई विशिष्ट गुण अवश्य प्रदान करता है, पर; कुछ ऐसे विभूति सम्पन्न व्यक्ति भी जन्म लेते हैं जिनकी प्रतिभा बहु-आयामी होती है। यदि उन्हें विकसित होने का अवसर मिले तो वे महान होने का गौरव प्राप्त करते हैं। दीनदयाल उपाध्याय ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे।
अति सामान्य दिखने वाले इस महान व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिन्तक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद्, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक व पत्रकार आदि कितनी ही प्रतिभाएं समाहित थीं। यह बात अलग है कि प्रमुख रूप से उनका संगठन कौशल्य ही अधिक उजागर हो सका। हालांकि, उनकी गणना उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी होती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व को समझने के लिए सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी होगी कि दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी, व्यवसाय नहीं।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।
स्वाभाविक ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय में भी एक मिशनरी पत्रकार का ही दर्शन होता है, व्यावसायिक पत्रकार का नहीं। वैसे उनकी पत्रकारिता का प्रारम्भ राष्ट्रधर्म और पाञ्जन्य के प्रकाशन से ही प्रकाश में आया था। राष्ट्रधर्म का पहला अंक 31 अगस्त 1947 को तथा पांचजन्य का पहला अंक 14 जनवरी 1948 को निकला था। किस तरह से राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य व दैनिक स्वदेश शुरू हुआ। इन पत्रिकाओं को चलाने में दीनदयाल जी औपचारिक रूप से न सम्पादक थे और न ही स्तंभकार, लेकिन इन पत्रों के वे सबकुछ थे। वे लिखते भी थे।
बाद में आर्गेनाइजर और पाञ्चजन्य साप्ताहिक में उनके दो लेख छपने लगे। पाञ्चजन्य में पराशर और आर्गेनाइजर में पालिटिकल डायरी। आर्गेनाइजर में प्रकाशित पालिटिकल डायरी स्तम्भ का कुछ समय बाद पुस्तक संकलन प्रकाशित हुआ। इस संकलन की भूमिका डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी। भूमिका में दीनदयाल जी ने कैसे-कैसे लेख लिखे हैं, उसकी डॉ. सम्पूर्णानन्द ने अच्छी विवेचना प्रस्तुत की है। कुछ लेख ऐसे हैं जो दूर तक जाने वाले हैं और कुछ ऐसे हैं जो कालजयी हैं।
लेख के माध्यम से दीनदयाल जी कहते हैं- “चुगलखोर और संवाददाता में अंतर है। चुगली जनरुचि का विषय हो सकती है, किन्तु सही मायने में वह संवाद नहीं है। संवाद को सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् तीनों आदर्शों को चरितार्थ करना चाहिए। केवल सत्यम् और सुंदरम् से ही काम नहीं चलेगा। सत्यम् और सुंदरम् के साथ संवाददाता शिवम् अर्थात कल्याणकारी का भी बराबर ध्यान रखता है। वह केवल उपदेशक की भूमिका लेकर नहीं चलता, वह यथार्थ के सहारे वाचक को शिवम् की ओर इस प्रकार ले जाता है की शिवम् यथार्थ बन जाता है। संवाददाता न तो शून्य में विचरता है और न कल्पना जगत की बात करता है। वह तो जीवन की ठोस घटनाओं को लेकर चलता है और उसमें से शिव का सृजन करता है।”
पिछले लगभग 200 वर्षों की पत्रकारिता के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस इतिहास पर विभाजन रेखा खींच दी जाती है; स्वतन्त्रता के पहले की पत्रकारिता और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता। स्वतंत्रता के पहले की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक व्रत था और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक वृत्ति है। यानी व्रत समाप्त हो गया है और वृत्ति आरम्भ हो गई। जो दोष आज हम पत्रकारिता में देखते हैं, उनकी तरफ दीनदयाल जी अपने बौद्धिक और लेखों के माध्यम से ईशारा किया करते थे।
वर्तमान पत्रकारिता का जब हम अवलोकन करते हैं तो उपरोक्त कथन ठीक मालूम पड़ता है कि पत्रकारिता वृत्ति बन गई है। दीनदयाल जी आजादी के बाद के पत्रकारों में भी थे। लेकिन आजादी के बाद भी दीनदयाल जी पत्रकारों के पत्रकार और सम्पादकों के सम्पादक थे। उनकी पत्रकारिता में उन वृत्तियों का कहीं पता नहीं चलता है। यहां तक कि कोई लक्षण भी देखने को नहीं मिलता है जिनसे आज की पत्रकारिता ग्रसित है।
व्रतयुक्त पत्रकारिता में ऐसा नहीं है कि केवल दीनदयाल जी ही थे, कई और पार्टियों के ऐसे अखबार उस जमाने में निकलते थे। कम्यूनिस्ट पार्टी के अखबार, दूसरी छोटी-मोटी पार्टियों के अखबार, डॉ. राममनोहर लोहिया और अशोक महतो के अखबार, पत्रिकाएं आदि। उनमें भी उस तरह का त्याग और उसी तरह का विलक्षण वौद्धिक वैभव व मौलिकता थी, जो दीनदयाल जी की पत्रकारिता में देखने को मिलती थी।
दीनदयाल जी के हर प्रकार के लेखों के विषय वस्तु एवं विवेचना के प्रकारों का वर्णन भी यहां किया जा सकता है। उनमें उनकी चिन्तनशैली में विद्वता एवं अध्ययन क्षमता तो परिलक्षित है ही, पत्रकारीय दायित्वबोध व शालीनता भी उनकी रेखांकनीय विशेषता है। वर्तमान में प्रोफेशनलिज्म के नाम पर पत्रकारिता के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह चिन्ता उत्पन्न करने वाला है।
(यह आलेख ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक के पूर्व सम्पादक स्वर्गीय श्री भानुप्रताप शुक्ला के साथ मेरी 2004 में हुई बातचीत और दीनदयाल उपाध्याय से संबंधित साहित्य के संक्षिप्त अध्ययन पर आधारित है। मैंने दीनदयाल जी को कभी नहीं देखा। मेरे जन्म लेने के कई वर्षों पूर्व ही वे गोलोकवासी हो गए थे। दीनदयाल जी के व्यक्तित्व के बारे में केवल पुस्तकों का अध्ययन और उनके समकालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं की जुबानी सुनकर ही जान पाया हूँ। - पवन कुमार अरविंद)
शनिवार, सितंबर 25, 2010
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