पवन कुमार अरविंद
वैसे तो आमतौर पर सरदारों के बारे में दुनिया के लोग हास्य व चुटकुले बनाते व सुनाते रहते हैं, लेकिन इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि देश का कोई माना जाना सरदार हास्य व चुटकुले लिखे और वह भी कम्युनिस्टों पर। प्रख्यात स्तंभकार 96 वर्षीय सरदार खुशवंत सिंह का कम्युनिस्टों के संदर्भ में बिल्लियों के नवजात बच्चों वाला एक हास्य बहुत प्रसिद्ध है-
प्राइमरी में पढ़ने वाली एक छात्रा ने अपने प्रधानाध्यापक से कहा- सर! मेरी बिल्ली ने कल रात में दो बच्चों को जन्म दिया है। दोनों कम्युनिस्ट हैं।
छात्रा के मुख से कम्युनिस्ट शब्द सुनकर प्रधानाध्यापक आश्चर्य में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि यह घटना वास्तव में एक आश्चर्य है। उन्होंने इस बात की सूचना स्कूल निरीक्षक को लिख भेजी। यह जानकर निरीक्षक भी आश्चर्य में पड़ गए।
निरीक्षक ने 16-17 दिन बाद स्कूल में आकर उस छात्रा से मिलने की इच्छा व्यक्त की। प्रधानाध्यापक ने उस बच्ची को बुलाया और निरीक्षक के सामने कहा कि तुम्हारी बिल्ली के दोनों कम्युनिस्ट बच्चों को निरीक्षक साहब देखना चाहते हैं।
छात्रा ने तपाक से कहा- सर! अब वो कम्युनिस्ट नहीं रहे, अब तो वे दोनों डेमोक्रेट हो गए हैं।
प्रधानाध्यापक ने छात्रा से पूछा- तुम्हारे कहने का क्या मतलब है। अभी कुछ दिन पहले तुम कह रही थी कि वे दोनों बच्चे कम्युनिस्ट हैं। लेकिन आज कह रही हो कि वे दोनों डेमोक्रेट हो गए हैं। आखिर इसका क्या अर्थ है?
छात्रा ने कहा- अजीब सी बात है, यह कोई इतना कठिन थोड़े ही है, जो आसानी से समझ में न आ सके।
छात्रा ने कहा- सर! बिल्ली के दोनों बच्चियों को जन्म लिए 16-17 दिन हो गए, अब उन दोनों की आंखें खुल गई हैं। इसलिए अब वे दोनों कम्युनिस्ट नहीं रहे, वे डेमोक्रेट हो गए हैं। छात्रा का उत्तर सुनकर दोनों अवाक् रह गए।
खैर! यह तो हास्य है; पर जैविक नियमों के अनुसार सत्य भी है।
इसी तरह यदि देखा जाए तो साम्यवादियों व नक्सलियों के समर्थक भी बिल्ली के इन्हीं नवजात बच्चों की तरह ही प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि नक्सलियों द्वारा किए गए सैंकड़ों मासूमों और बेकसूरों के नरसंहार के बाद भी इन समर्थक महानुभावों की आंखे अभी तक नहीं खुल सकी हैं। इस कारण वे अभी तक डेमोक्रेट यानी लोकतांत्रिक नहीं हो सके। हो सकता है कि कुछ दिन बाद इनकी आंखे खुल जाएं, लेकिन नक्सलियों के हिंसात्मक व अलोकतांत्रिक क्रांति के रास्ते को मनगढ़ंत तर्कों के आधार पर सही ठहराने की इनकी प्रवृत्ति से ऐसा संभव नहीं दिखता। ये लोग किसी भी कीमत पर अपनी आंखें खोलने को तैयार नहीं हैं। आंखें खुल जाने से इन्हें दर्द शुरू हो जाता है। ये सत्य देखना ही नहीं चाहते। इन समर्थक बुद्धिजीवियों और वक्तव्यवीरों को देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ बोलते रहने में ही आनंद की अनुभूति होती है। हालांकि इनकी संख्या देश भर में चार अंकों से ज्यादा नहीं है, फिर भी इतना ऊधम मचाए हुए हैं।
नक्सलवाद के प्रबल समर्थक डॉ. विनायक सेन पर मुझे आश्चर्य होता है। वे जिस अलोकतांत्रिक व अमानवीय पथ को एक वैचारिक रास्ता कहते हैं, उस रास्ते पर चलने के कारण हुई सजा को वे स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं हैं। वह वर्तमान में देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं।
24 दिसम्बर 2010 को रायपुर की जिला अदालत ने डॉ. सेन सहित तीन लोगों को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, शेष दो लोगों में माओवादी चिंतक नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यवसायी पीयूष गुहा शामिल हैं। डॉ. सेन को मई 2007 में बिलासपुर से गिरफ्तार किया गया था। वर्ष 2009 में उच्चतम न्यायालय ने स्वास्थ्य कारणों के चलते उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया। लेकिन रायपुर अदालत के 24 दिसम्बर 2010 के फैसले के बाद डॉ. सेन को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया था।
डॉ. सेन पेशे से चिकित्सक एवं गैर-सरकारी संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। उनको लोग मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता के तौर पर जानते हैं। उन्होंने चिकित्सा क्षेत्र की एमबीबीएस और एमडी; जैसी उच्चस्तर की डिग्री ले रखी है और दो वर्ष तक दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अध्यापन कार्य भी किया।
निचली अदालत ने उनको देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने, लोगों को भ़डकाने और प्रतिबंधित माओवादी संगठन के लिए शहरों में नेटवर्क ख़डा करने का दोषी माना था। इसके अलावा उन पर बिलासपुर जेल में बंद माओवादी नेता नारायण सान्याल की चिट्ठियां अन्य माओवादियों तक पहुंचाने का भी दोषी ठहराया गया है। वहीं पीयूष गुहा पर भी सान्याल का संदेश चोरी-छिपे माओवादियों तक पहुंचाने के आरोप लगे थे। गुहा की गिरफ्तारी के दौरान उनके घर से नक्सल आंदोलन से संबंधित काफी दस्तावेज और पत्रिकाएं मिली थीं।
इस फैसले के निलंबन और ज़मानत के लिए डॉ. सेन व गुहा ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपील की थी। उन्होंने न्यायालय में देश के जाने-माने अधिवक्ता राम जेठमलानी को जिरह के लिए खड़ा किया, लेकिन जमानत दूर की कौड़ी ही साबित हुई। इस अपील को 10 फरवरी को हाईकोर्ट ने खारिज कर दी। यानी उनका अपराध जमानत पर भारी पड़ गया।
हाईकोर्ट में छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त महाधिवक्ता किशोर भादुड़ी ने राज्य शासन का पक्ष रखा। उन्होंने सेन और गुहा को जमानत दिए जाने का विरोध किया था। वहीं, राजनंदगांव में नक्सली हमले में मारे गए तत्कालीन पुलिस अधीक्षक वी.के. चौबे की विधवा रंजना चौबे ने भी सेन की जमानत अर्जी के खिलाफ हस्तक्षेप याचिका लगाई थी।
नक्सलवाद के समर्थक बुद्धिजीवियों और वक्तव्यवीरों को अदालत का यह फैसला रास नहीं आ रहा है। यही नहीं डॉ. सेन की पत्नी इलीना सेन अपने पति की रिहाई के समर्थन में वैश्विक मानवाधिकारवादियों को लामबंद करने में जुटी हैं। इसी कारण सेन की जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान यूरोपीय यूनियन के कार्यकर्ता भी न्यायालय परिसर में मौजूद थे। इन लोगों को रायपुर और बिलासपुर में विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक संगठनों के विरोध का सामना करना पड़ा था। 40 नोबेल पुरस्कार विजेताओं सहित विश्व के कई मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं ने सेन को छोड़े जाने का अनुरोध किया था।
हालांकि, सवाल यह नहीं है कि हर दोषी अपने को बेगुनाह बताता है और स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता है, बल्कि यह है कि अपने जिस नजरिये और गतिविधियों को ये लोग क्रांति कहते हैं उसको खुले मन से स्वीकार करने को भी तैयार नहीं हैं।
पराधीन भारत में सरदार भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खान, पंडित रामप्रसाद बिस्मिल; जैसे हजारों सेनानी सीना ठोंककर अपने किए को स्वीकार करते थे। वे इस मातृभूमि के लिए हर वक्त अंग्रेजों की लाठी-गोली भी खाने को तैयार रहते थे। उन्होंने अंग्रेजों की दरिंदगी के खिलाफ बोला। अंग्रेजों के इस धरती से वापस चले जाने के पक्ष में सतत आवाज उठाई। उनके चेहरे पर थोड़ा भी शिकन या मायूसी का भाव नहीं रहता था। हर सजा को उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। चूंकि उन लोगों का अभियान देश की रक्षा के लिए था, इसलिए वे लोग अंग्रेजी अदालतों से मिली हर सजा को भुगतने के लिए तैयार रहते थे।
लेकिन डॉ. सेन और उनके समर्थकों को न्यायालय के हर फैसले पर आपत्ति है। यदि न्यायालय ने साक्ष्यों व तथ्यों को नजरअंदाज करके उनको जमानत पर रिहा कर दिया होता तो शायद वे प्रसन्न हो जाते औऱ न्यायालय के फैसले की भूरि-भूरि प्रशंसा करते। हालांकि यह गलती सेन की नहीं बल्कि उनके वैचारिक रास्ते की है, जो केवल अपने पक्ष में आए फैसले को ही न्याय मानती है। यही है साम्यवाद और नक्सलवाद की कथा-व्यथा।
बुधवार, फ़रवरी 16, 2011
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