मुम्बई के वानखेड़े स्टेडियम में 49वें ओवर की दूसरी गेंद पर महेंद्र सिंह धोनी के छक्का मारते ही देश भर में ‘इंडिया-इंडिया’ के नारे गूंजने लगे। चक दे इंडिया। कुछ लोगों ने ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए और कुछ ने ‘वंदेमातरम्’ की धुन भी गुनगुनाईं, और भी कई प्रकार के नारे लगाए जा रहे थे। ‘वंदेमातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे उन लोगों ने भी लगाए जो इसके पहले तक इन नारों को साम्प्रदायिक कहा करते थे। भई लगाएं भी क्यों न; देशभक्ति का भाव जो पैदा हो गया था। भारतीय क्रिकेट टीम ने 28 वर्षों बाद एक बार पुनः विश्वकप जीतकर देश का सिर जो ऊंचा कर दिया था। भारतीय टीम के माथे पर विश्वविजेता का सेहरा जो बंध चुका था।
राजधानी दिल्ली सहित देश के कई प्रमुख शहरों के मुख्य रास्ते जाम हो गए थे। इस कारण सभी दो पहिया व चार पहिया वाहन, और यहां तक कि पैदल यात्री भी, रेंग-रेंग कर चलने को मजबूर थे। इसके बावजूद जाम में फंसे हर किसी के चेहरे पर जश्न का भाव साफ झलक रहा था। मस्ती में डूबे लोगों को नियंत्रित करने के लिए कई जगहों पर पुलिसिया सख्ती भी करनी पड़ी। लेकिन किसी भी यात्री के चेहरे पर गुस्से का भाव नहीं था। सभी प्रसन्न थे। क्योंकि देशभक्ति का भाव जो हिलोरें ले रहा था। भारतीयता का भाव उफान ले रहा था।
खेल खत्म होने के बाद मैं भी सहसा सड़क पर निकल पड़ा। सड़क पर जश्न का ऐसा माहौल था कि दीवाली के दिये भी मात खा रहे थे, यानी इस जश्न के खुशनुमा माहौल को यदि महादीवाली की संज्ञा दे दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अभी मैं इधर-उधर देख ही रहा था कि अचानक पांच-छह हम-उम्र युवा हाथ में तिरंगा लिये हमसे गले मिलने को आतुर दिखे। मैं उनको जानता-पहचानता तक नहीं था, फिर भी वे मुझसे गले मिलने लगे। जीत की इस खुशी के कारण वे अपने आप को रोक नहीं पा रहे थे। भावविह्वल भी हो रहे थे। कुछ की आंखों में आंसू भी मैंने देखे। उनके अंदर जोश, उमंग था और एक अलग प्रकार का जुनून भी दिख रहा था।
सच में यह क्रिकेट की नहीं बल्कि भारतीय टीम की विजय है। भारतीय खिलाड़ियों की योग्यता, प्रतिभा, श्रम और कौशल की विजय है। यह विजय उनके द्वारा तपस्या सदृश किए गए प्रयास का प्रतिफल है। इस विजय को अंग्रेजी खेल की विजय कहना किसी भी प्रकार से उचित नहीं होगा। सच कहें तो अग्रेजों का दिया क्रिकेट आज के अधिकांश युवाओं में देशभक्ति के प्रकटीकरण का एक साधन बनता हुआ दिखाई दे रहा है। जो कुछ भी है उसका होना सत्य है, और जो कुछ नहीं है उसका न होना ही सत्य है। कभी-कभी जो दिखता है वो सत्य नहीं होता। हर पीली दिखने वाली वस्तु सोना नहीं होती। वर्तमान में क्रिकेट प्रेमियों का बहुमत है और आप लोकतंत्र में बहुमत को नकार नहीं सकते।
लेकिन इतना सब कुछ होने के बावजूद आप यह अंदाजा नहीं लगा सकते कि ये सब क्रिकेट का भारतीयकरण है या भारतीयों का क्रिकेटीकरण? ये सच में देशभक्ति है या कुछ और? क्या ये देशभक्ति सचमुच स्थाई है? दरअसल; हर्षातिरेक, हर्षातिशय, हर्षोल्लास, हर्षोत्फुल्ल, हर्षोन्माद, हर्षाश्रु, ये सारी अवस्थाएं क्षणिक होती हैं। इनमें स्थायित्व नहीं होता। खेत को सिंचाई के लिए जल की आवश्यकता होती है लेकिन बाढ़ के जल से खेत की सिंचाई नहीं हुआ करती। बाढ़ तो सब कुछ बहा ले जाती है। सबको तबाह कर देती है। उसके प्रवाह में रचनात्मकता नहीं होती।
अब तक का सबसे बड़ा घोटाला करके 2जी स्पेक्ट्रम के प्रतीक बन चुके तत्कालीन दूरसंचार मंत्री ए. राजा और उनके पूर्व सहयोगियों- शाहिद उस्मान बलवा, सिद्धार्थ बेहुरा, आर.के. चंदोलिया तथा विदेशों में करोड़ों का काला धन जमा करने वाले हसन अली खान भी क्रिकेट देखते हैं। भारत के विजयी होने पर प्रसन्न होते हैं। भावविह्वल और हर्षोन्मत्त हो जाते हैं। क्या इसी को देशभक्ति मान लिया जाए? क्या क्रिकेट देखना भर ही देशभक्ति के लिए पर्याप्त है? क्या देश के विजयी होने के बाद नाच-गाकर खुशियां मनाना ही देशभक्ति का पर्याय है? क्या यही सब देश की समस्याओं के समाधान के लिए उपयुक्त है?
कुछ समय पहले साफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसाफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स भारत आये थे तो उनके बारे में यहां के समाचार पत्र, पत्रिकाओं ने लिखा था कि यदि गेट्स के कुछ करोड़ रूपए गिर जाएं तो उनको उठाने की भी फुर्सत नहीं है। क्योंकि जब तक वह उसे उठायेंगे तब तक उस गिरे धन का कई गुना नुकसान हो चुका होगा। दरअसल, बिल गेट्स वहुत व्यस्त आदमी हैं और उनका हर क्षण कीमती है। लेकिन क्या भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बिल गेट्स से भी गये-गुजरे हैं कि उनका समय और पैसा नष्ट नहीं होता? क्या डॉ. सिंह अपने को सामान्य व्यक्ति मानते हैं? लेकिन वह सामान्य कैसे हो सकते हैं? वह तो भारत जैसे देश के प्रधानमंत्री हैं और उनके ऊपर 121 करोड़ लोगों के नेतृत्व का भार है। इसलिए उनका हर क्षण महत्वपूर्ण है, बिल गेट्स से भी ज्यादा।
क्या बिल गेट्स मैच देखते हैं और वह भी पूरे आठ घंटे समय खर्च करके? नहीं, उनके लिए यह संभव ही नहीं है। देश का और अपना किसी भी प्रकार का नुकसान करके क्रिकेट देखना देशभक्ति कैसे कही जा सकती है? भई देखिये, खूब देखिए, आप भी तो आदमी ही हैं। आपके पास भी मन और मस्तिष्क है। आपको भी दिमागी थकान मिटाने की आवश्यकता होती है। लेकिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को बगल में बैठाकर क्या यह संभव है?
पाकिस्तान के बीच क्रिकेट के साथ-साथ दुनिया की कोई भी कूटनीति सफल नहीं हो सकती। क्योंकि उसका स्वयं पर नियंत्रण ही नहीं है। वह अमेरिका, आर्मी, आतंकवाद, उलेमा और चीन; इन पांच के चंगुल में बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। बिना इन पांचों के एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो फिर कोई यूसुफ रजा गिलानी या आसिफ अली जरदारी वार्ता की मेज पर क्या कर सकेगा? इसलिए उसके साथ क्रिकेट कूटनीति भी एक तरह से समय की बर्बादी ही है। इस संदर्भ में मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी की बातों में दम है, जो ये बातें दुहराती रही है कि बिना आतंकी ढ़ांचा समाप्त किये पाकिस्तान से कोई वार्ता नहीं होनी चाहिए। समस्या को बिना समझे उसका समाधान नहीं हो सकता। दरअसल, मनमोहन सिंह सब जानते हैं; पर वह तो गिलानी को बुलाकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी यू.पी.ए. सरकार के खिलाफ देश भर में चल रही चर्चा को दूसरी दिशा में मोड़ने का असफल प्रयास भर कर रहे थे। यह अजीब कूटनीतिक प्रयास है जो यही मानकर किया जा रहा था कि इससे हासिल कुछ नहीं होगा।
भारत और किसी अन्य देश के साथ क्रिकेट के समय जैसे सामान्य लोग अपने काम-धंधे की छुट्टी करके पूरे व्यस्त हो जाते हैं, उसी तरह मनमोहन भी पाकिस्तान का बहाना बनाकर पूरे आठ-दस घंटे तक व्यस्त हो गए। यह किसी भी प्रकार से न तो देश-हित में कही जाएगी और न ही देशभक्ति। डॉ. सिंह ने जो किया उनसे प्रेरणा लेकर देश भर के कई अधिकारियों, कर्मचारियों ने भी कार्य से अपने को विरत रखा। इसके अतिरिक्त भी करोड़ों लोगों ने क्रिकेट देखने के लिए अपने को खाली रखा। इससे देश के करोड़ों घंटे का मानव श्रम बर्बाद हुए और होते ही रहते हैं, जिसकी भरपाई फिर कभी भी नहीं की जा सकती।
दिल्ली सरकार के आबकारी विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, मोहाली और वानखेड़े में भारतीय टीम की जीत की खुशी में दिल्ली के ‘कथित उत्साही लोगों’ ने 26 करोड़ रुपये से अधिक की शराब पी। इन आंकड़ों में अधिकांश युवा शामिल हैं। ये कैसी देशभक्ति है? कैसा हर्षोदय है? देशभक्ति के प्रकटीकरण का कैसा तरीका है? दरअसल, ये सब बातें हर्ष का क्षणिक उन्माद है, जिसमें तनिक भी स्थायित्व नहीं होती। इससे मिलता कम और नुकसान ज्यादा होता है। तो इस ‘क्रिकेटिया जुनून’ को देशभक्ति कैसे कहा जा सकता है?
सोमवार, अप्रैल 04, 2011
क्रिकेट का भारतीयकरण या भारतीयों का क्रिकेटीकरण?
पवन कुमार अरविंद
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