पवन
कुमार अरविंद
यह मृत्यु लोक है। यहां आत्मा और कीर्ति को
छोड़कर कुछ भी अमर नहीं है। यदि आप अच्छा कार्य करते हैं तो मृत्यु के बाद
भी आमजन के अन्तस में विराजमान रहेंगे। मृत्यु लोक का स्वभाव है अंत। इसलिए मनुष्य
का जीवन निश्चित है। इसी प्रकार थलचर, नभचर व जलचरों सहित सभी प्राणियों का
जीवन भी निश्चित
है। लेकिन
राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों
का जीवन निश्चित नहीं होता है। उनका जीवन उनके विचारों और कार्य व्यवहारों
पर निर्भर करता है। जिसको आधार मानकर जनता उनके प्रति अपना समर्थन और
विश्वास व्यक्त करती रहती है। लेकिन इसके लिए परिवर्तन और समय व समाज
के अनुसार स्वयं का समायोजन आवश्यक होता है। ऐसा करते हुए कोई भी संगठन
अपना अस्तित्व दीर्घकाल तक बनाए रख सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी।
कुछ लोगों का अनुमान है कि 2025 तक अपनी स्थापना के 100 वर्ष
पूरा करते-करते संघ का अंतिम संस्कार निश्चित है। लेकिन ऐसा अनुमान महज
बकवास के सिवाय और कुछ भी नहीं है। इस अनुमान के विपरीत संघ 2025 के बाद भी अपना
अस्तित्व बनाए रख सकता है लेकिन इसके लिए उसको अपनी कार्य पद्धति और कार्य व्यवहार पर गहन
चिंतन करते हुए समय के अनुसार परिवर्तन और समायोजन के लिए तैयार रहना होगा। कुछ
लोग यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि संघ स्वयं समाप्त हो जाएगा लेकिन उसके
विविध क्षेत्रों में कार्यरत संगठन प्रभावी रूप से जीवित रहेंगे। लेकिन
ऐसा विचार जल के सतह पर उठे बुलबुल के समान है जो पलक झपकते ही फूट जाता
है।
संघ
एक वैचारिक संगठन है। इस कारण उसकी एक विचारधारा है। विचार आत्मा के समान है और
धारा शरीर के। शरीर का अंत निश्चित है लेकिन (श्रीमद्भग्वद्गीता के अनुसार) आत्मा अजन्मा, अविनाशी और सनातन है। संघ नहीं रहेगा तब भी उसके विचार
विद्यामान रहेंगे। हालांकि संघ के रहने और न रहने का कोई सवाल ही नहीं है, बल्कि सवाल यह है
कि यदि किसी
प्रभावी संगठन का प्रभाव नगण्य हो जाए तो यह एक प्रकार से निधन के ही समान कहा
जाएगा। निधन एक बात है और पतन दूसरी। दोनों में
जमीन-आसमान से अधिक का अंतर है। निधन के बाद किसी व्यक्ति या संगठन का न तो
उद्भव हो सकता है और न ही पराभव। क्योंकि निधन के कारण सारी संभावनाएं
शून्य हो जाती हैं। लेकन पतन की राह पर अग्रसर व्यक्ति अपने अंदर सकारात्मक
परिवर्तन लाकर उत्थान या उद्भव की तरफ कदम बढ़ा सकता है।
संघ में अभी बहुत श्वांस शेष है। इसके बावजूद
संघ कमजोर हुआ है। संघ कार्य अब केवल
बौद्धिक-भाषण तक ही सीमित हो गया है। वर्तमान संघ कार्य की प्रक्रिया में
भोजन-बैठक तो है लेकिन विश्राम नदारद है। पहले कार्य होता था तो विश्राम की
आवश्यकता पड़ती थी, लेकिन
अब केवल “विश्राम” ही “विश्राम” है। इन बातों को तर्कों के तीर चलाकर काटा
जा सकता है, लेकिन ऐसा करना
वास्तविकता से मुख मोड़ना होगा। संघ में बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन चिंता और चिंतन की बात
यह है कि इसकी कार्यपद्धति को आम युवा पसंद क्यों नहीं करते ? इस नापसंदगी के पीछे भी बहुत बड़ा कारण है। आप 87 वर्ष से एक ही
लकीर पीटते
चले आ रहे हैं। लकीर का फकीर बनने वाले न तो कोई नई लकीर खींच सकते हैं और
न देश व समाज को को नई दिशा ही दे सकते हैं। दिशा देने के लिए स्वयं की दशा
बदलनी पड़ती है, और स्वयं में
बदलाव कई प्रकार के मार्ग खोलता है। संघ का जीवित और प्रभावी रहना देश व समाज हित
में जरूरी है।
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