राम मंदिर मुद्दे पर विहिप के अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष चंपत राय से खास बातचीत
श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में वैसे तो अनगिनत लोगों का योगदान रहा, लेकिन जो प्रमुख विभूतियों का नाम हमेशा चर्चा में रहा है उनमें अशोक सिंहल, आचार्य गिरिराज किशोर, महंत अवैद्यनाथ, विष्णुहरि डालमिया, लालकृष्ण आडवाणी, कल्याण सिंह, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी, चंपत राय, साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती, विनय कटियार प्रमुख हैं। राम जन्मभूमि के लिए यह लड़ाई सामाजिक और कानूनी दो मोर्चों पर लड़ी गयी। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय उपाध्यक्ष चंपत राय ऐसे व्यक्तित्व हैं जो वर्ष 1985 से सामाजिक मोर्चे पर तो सक्रिय थे ही, बाद में कानूनी लड़ाई के लिए भी दिन-रात पूरी तन्मयता के साथ जुटे रहे। जन्मभूमि के स्वामित्व को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद चंपत राय से हिन्दुस्थान समाचार के मुख्य उप-संपादक पवन कुमार अरविंद ने बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के संपादित अंश-
प्रश्न- श्रीराम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आप किस रूप में देखते हैं?
उत्तर- मैं बहुत अच्छे रूप में देखता हूं। बहुत प्रसन्न हूं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में हिन्दू संस्कृति, हिन्दू मूल्य और हिन्दुओं की भावनाओं को न्यायालय ने स्वीकार किया है। यह शायद स्वतंत्र भारत की न्यायिक प्रक्रिया का पहला केस है। मैं निजी रूप में सोच रहा हूं कि 130 करोड़ की अधिकांश जनता का समाधान इसमें हुआ है। कोई हार गया, कोई जीत गया, ऐसा इस केस में नहीं हुआ है। निर्मोही अखाड़े का केस समय-सीमा के बाहर काल बाह्य घोषित हो गया, लेकिन उनको संतुष्ट भी किया कि सरकार मंदिर के प्रबंध तंत्र में उनको रखे। यह कितनी बड़ी बात है। बैलेंस कर दिया। हाईकोर्ट ने मुसलमानों का मुकदमा रद्द किया। सुप्रीम कोर्ट ने उस मुकदमे को स्वीकार किया, लेकिन उस स्थान पर उनका अधिकार नहीं है। उनका मालिकाना हक नहीं है। उनका एडवर्स पजेशन यानी विपरीत कब्जा भी नहीं है। यह भी कह दिया। उनको संतुष्ट कर दिया कि मुस्लिम समुदाय को कहीं जमीन दो। संतुलन किया। वैज्ञानिक तथ्यों को स्वीकार किया। इतिहास के दस्तावेज, किताबें, गजेटियर, विदेशी यात्रियों के द्वारा लिखी गयी पुस्तकों में वर्णन, इन सबको उन्होंने स्वीकार किया। यह बहुत ही संतुलित निर्णय है। न्यायाधीशों ने जिस परिपक्वता का परिचय दिया है, मैं तो वकील नहीं हूं लेकिन एक फरियादी के रूप में मुझे बहुत समाधान हुआ। 40 दिन तक रोज चार घंटे एक ही बात सुनते रहना, कोई वकील एक ही बात को आठ-आठ बार, दस बार रिपीट कर रहा है, धैर्य से सुनते रहना, मैं तो समझता हूं कि बड़ी भारी तपस्या है। इस रूप में जो न्यायाधीश वर्ग ने तपस्या की है 40 दिन की, अपने धैर्य का प्रदर्शन किया है, वह प्रणम्य है।
प्रश्न- इस फैसले में चीफ जस्टिस की दृढ़ता की भी कोई भूमिका है?
उत्तर- बहुत बड़ी। वो जैसे दृढ़ व्यक्ति हैं, अगर दृढ़ न होते तो शायद दूसरा कोई आदमी कर पाता कि नहीं कर पाता, यह कल्पना से परे है। बड़ी दृढ़ता से उन्होंने काम लिया। सभी न्यायाधीश एक जैसे होते हैं। केवल प्रशासनिक कार्यों के लिए किसी एक वरिष्ठतम की जिम्मेदारी होती है। उन्होंने अपनी वरिष्ठता का पूरा-पूरा उपयोग किया।
प्रश्न- मुस्लिम पक्ष को पांच एकड़ भूमि क्या 14 कोसीय परिक्रमा मार्ग के बाहर दी जाएगी, आपका क्या कहना है?
उत्तर- कुछ मालूम नहीं। शासन के पास जमीन कहां है, जमीन खोजी जाएगी, लंबी प्रक्रिया है। हम इतने तक ही संतुष्ट हैं कि आज वो सारा स्थान हिंदू समाज का हो गया, भगवान का हो गया। वहां केवल मंदिर बनेगा। जनता की भावनाएं तो केवल इतनी ही थीं। जनता की भावनाएं पूरी हो गयीं। जमीन कहां देंगे, अभी तक कुछ तय नहीं। मुझे तो नहीं मालूम। इसलिए अभी कोई ज्यादा चिंता नहीं कर रहे हैं।
प्रश्न- हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कितनी साम्यता है?
उत्तर- हाईकोर्ट ने अपनी सीमाओं के बाहर जाकर विचाराधीन भूमि के तीन टुकड़े किए थे। सुप्रीम कोर्ट ने वह भूमि भगवान को सौंप दी। हाईकोर्ट ने भी निर्मोही अखाड़े का सूट रद्द किया था, इन्होंने भी कर दिया। सब ठीक है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय को कहीं भी पलटा नहीं और एक-आध फाइंडिंग (निर्णय) तो पलटती ही है, तभी तो अपील है।
प्रश्न- सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त मध्यस्थता पैनल असफल रहा, इस बारे में अब कुछ बताना चाहेंगे?
उत्तर- सफलता पर बोलना अच्छा लगता है, विफलता पर क्या बोलें। उनके सुझाव ही कुछ ऐसे थे जो मान्य नहीं हो सकते थे। इसलिए वे विफल हो गए। मुझे नहीं समझ में आ रहा है कि जो उन्होंने सुझाव प्रस्तुत किये थे, वो उनको दिये किसने। वो किसके दिमाग की उपज थी। मैं चाहूंगा कि स्वयं उस मध्यस्थता पैनल के मुखिया इब्राहिम कलीफुल्ला जो सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज हैं, वह अपने मुंह से बखान करें कि हमने ये समाधान दिया था। मेरा बोलना अच्छा नहीं। वार्तालाप गुप्त थी, लेकिन उसके बाद भी उन्होंने लिखित में दिये थे। उनको ही स्वयं प्रस्तुत करना चाहिए। देश की 130 करोड़ जनता अपने आप उसका फैसला कर लेगी कि वो स्वाकार्य थे कि नहीं थे। उसको तो असफल होना ही था। वो सुझाव ही सब ऐसे थे।
प्रश्न- मंदिर निर्माण एवं उसके प्रबंधन के लिए बनने वाले ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़े को शामिल करने की बात है। इस पर क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर- यह बहुत अच्छा है। मैं इसीलिए कह रहा हूं कि चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया और जजेज की टोली ने सबका समाधान कर दिया है। उनका मुकदमा रद्द कर दिया। उन्होंने अपने मुकदमे में मंदिर का प्रबंधन सौंपने की मांग की थी। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि भारत सरकार जो प्रबंध तंत्र बनाए उसमें निर्मोही अखाड़े को भी शामिल करे। सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों को संतुष्ट कर दिया। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
प्रश्न- रामलला विराजमान पक्ष का दावा था कि जो जन्मस्थान है वो भी देवता है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह दावा नहीं माना?
उत्तर- नहीं माना कोई बात नहीं। वह स्थान तो मान लिया कि यह जन्मभूमि है। न्यायालय सारी बातें मान लेगा, यह अपेक्षा करना भी गलत है। न्यायालय इसी का तो नाम है कि उसने सबकी बात मान ली। थोड़ी-थोड़ी मान ली और थोड़ी-थोड़ी छोड़ दी।
प्रश्न- फैसले से आप पूरी तरह से संतुष्ट हैं?
उत्तर- हां, पूरी तरह से। हम चाहते हैं कि देश के अंदर इसे हार और जीत के रूप में नहीं लेना चाहिए। ये राष्ट्र के गौरव और राष्ट्र के सम्मान की पुनर्प्रतिष्ठा का विषय है। इसे हिंदू और मुसलमान का विषय नहीं बनाना चाहिए। यह राष्ट्र हिंदू और मुसलमान सबका है। एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में इसको स्वीकारना चाहिए कि आखिर पांच शताब्दी के बाद एक समस्या का कोई हल सामने आ गया।
प्रश्न- राममंदिर आंदोलन के विचार का प्रादुर्भाव कैसे हुआ?
उत्तर- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदू जागरण मंच नाम की एक संस्था बना ली। यह मंच है, संगठन नहीं। उसके मुखिया वर्ष 1983 में थे दिनेश त्यागी। वह संघ के प्रचारक थे। बाद में वह संघ से मुक्त हुए और हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने। अध्यक्ष पद से मुक्त होने के बाद विश्व हिंदू परिषद के कार्यालय में रहने लगे। इस समय अस्वस्थ हैं। वो मुजफ्फरनगर में 23 मार्च 1983 को हुए हिंदू जागरण मंच के सम्मेलन के संयोजक थे। उसमें उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना और गुलजारी लाल नंदा आए थे। खन्ना ने अपने भाषण में हिंदुओं का आह्वान किया कि देश आजाद हुए इतने वर्ष हो गए हैं। अब अयोध्या, मथुरा और काशी को मुक्त कराना चाहिए। उनका आह्वान एक तरह से संघ के स्वयंसेवकों के लिए ज्यादा था। वह हिंदू सम्मेलन था, स्वयंसेवकों का सम्मेलन नहीं था। उनके इस बात को अशोक सिंहल जी ने समझने की चेष्टा की। अशोक जी विश्व हिंदू परिषद में संयुक्त महामंत्री बन चुके थे। फिर ये बात आयी कि ये बात तो संतों को समझना चाहिए। इसके बाद दिल्ली के विज्ञान भवन में सात व आठ अप्रैल 1984 को देशभर के संतों का दो दिवसीय अधिवेशन हुआ। इसको विश्व हिंदू परिषद ने धर्म संसद नाम दिया। यहां भी दाऊ दयाल खन्ना ने अयोध्या, मथुरा और काशी को मुक्त कराने का आह्वान किया। संतों को आनंद आ गया। यहीं से विश्व हिंदू परिषद का राममंदिर आंदोलन में प्रवेश हुआ। धर्म संसद में ही श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन किया गया था।
प्रश्न- क्या अब मथुरा की बारी है?
उत्तर- ये भविष्य की बात है। जिम्मेदार संगठन के लिए यह महत्वपूर्ण बात है कि जो प्रश्न हाथ में लिया पहले उसका पूरा समाधान कर दो। पूरा समाधान तब होगा जब मंदिर बन जाएगा, भगवान की प्रतिष्ठा हो जाएगी। पताका चढ़ जाएगा। इसके बाद अगला सोचो। जब तक आंदोलन चल रहा था तब तक मर्यादा में कुछ भी बोलते रहने के लिए हम स्वतंत्र थे। तब कुछ करना तो था ही नहीं, केवल बोलना था। अब हमें करना है। बोलने और करने का अंतर हम समझते हैं। इसलिए हम ये कहेंगे कि पहले इसको पूरा देख लो। एक कार्य पूरा हुआ, दुनिया उसको स्वीकार कर ले। उसके बाद की पीढ़ी उसको सोचेगी। अभी हम तो इसी एक मिशन के लिए अपने को समर्पित किये हुए हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें