पवन कुमार अरविंद
कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार के नीति नियंताओं को अन्ना हजारे के आंदोलन के प्रति अपार जन-समर्थन का शायद अंदाजा नहीं था, नहीं तो एक ही सरकार, एक ही मुद्दे पर, एक ही व्यक्ति के समक्ष दो बार शाष्टांग डंडवत् क्यों करती। पहली बार जंतर-मंतर प्रकरण में तो केवल घुटने टेकने से ही काम चल सकता था लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों के कारण केंद्र ने शाष्टांग डंडवत् कर मामले को जल्दबाजी में रफा-दफा करना ही उचित समझा।
सरकार के इस रवैये ने अन्ना टीम को प्रोत्साहित ही किया, नहीं तो अन्ना की क्या मजाल जो फिर अनशन करने की सोचते। यह तो केंद्र सरकार के नीति नियंताओं की ही गलती है जिसने सरकार को लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए दस सदस्यीय संयुक्त समिति के गठन पर राजी किया और फिर समिति की कुछ बैठकों के बाद अन्ना टीम को ठेंगा भी दिखा दिया। हालांकि सरकार के ये ‘चौमुखी प्रतिभा के धनी’ नीति नियंता सत्ता के नशे में अपने को ‘बहुमुखी प्रतिभा का धनी’ समझने लगे थे, इसलिए दूसरा अनशन अवश्यंभावी ही था।
अन्ना हजारे ने जब 16 अगस्त के अपने दूसरे चरण के अनशन की घोषणा की तो कांग्रेस के नेता और कुछ मंत्री उनके ऊपर भिन्न-भिन्न कोणों से अमर्यादित हमला बोलने लगे। उनको भ्रष्टाचार में लिप्त भी बताया गया। अपने आरोपों के समर्थन में कांग्रेस नेताओं ने न्यायमूर्ति पी.बी. सावंत आयोग की रिपोर्ट का भी हवाला दिया। पार्टी प्रवक्ता मनीष तिवारी तो अपना आपा ही खो बैठे। उन्होंने हमला बोलते हुए कहा था, "अन्ना तुम तो खुद ही भ्रष्ट हो। यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि अदालत की ओर से नियुक्त किये गये जांच आयोग ने ऐसा कहा है।” हालांकि अन्ना पर किये गये इस व्यक्तिगत हमले की चारों तरफ कड़ी आलोचना हुई थी और पार्टी को अपने सुर बदलने पड़े।
इस मसले पर सरकार की जो किरकिरी हुई, उसका प्रत्यक्ष कारण पार्टी और सरकार में शामिल वे लोग हैं जिनको न तो समाज का व्यावहारिक ज्ञान है और न ही जनता के नब्ज का। इसी कारण केंद्र सरकार को वही करना पड़ा जो वह नहीं चाहती थी। अर्थात्- अन्ना के समक्ष एक बार फिर शाष्टांग डंडवत्। इस संदर्भ में यदि यह कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सरकार ने अन्ना प्रकरण पर ‘सौ प्याज और सौ जूते भी’ वाली कहानी को हूबहू चरितार्थ किया है।
गुरुवार, अगस्त 18, 2011
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