मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. विनायक सेन नक्सली ही हैं। उनको निकट से जानने वाले के लिए इसमें कोई किंतु-परंतु की बात ही नहीं है। भले ही इस देश की सर्वोच्च अदालत ने पिछले दिनों उनको जमानत पर रिहा कर दिया हो, लेकिन मात्र जमानत के कारण ही कोई आरोपी दूध का धुला नहीं कहा जा सकता है। हालांकि मामले में अंतिम फैसला आना शेष है। जमानत का आधार तर्क और सबूत होते हैं; लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जायेगा कि अभियोजन पक्ष के हाथ वे सबूत नहीं लग सके जो विनायक सेन को उचित और कठोर दण्ड दिलवाने में मदद करते। क्या छत्तीसगढ़ सरकार की डॉ. सेन से कोई जातीय दुश्मनी थी, जो उनके खिलाफ उठ खड़ी हुई? वहां की सरकार तो पिछले कई वर्षों से हिंसक नक्सली गतिविधियों के खिलाफ जूझ रही है और राज्य में शांति व्यवस्था की स्थापना के लिए कटिबद्ध है।
सबसे दु:खद है कि शीर्ष अदालत से जमानत मिलने के बाद केंद्र की कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने उनको योजना आयोग की स्वास्थ्य संबंधी सलाहकार समिति का सदस्य नामित कर दिया। केंद्र का यह रवैया घातक ही साबित हो रहा है। क्योंकि रिहाई के बाद सेन पुन: नक्सली गतिविधियों में प्राण-पण से लग गये हैं। सेन की नक्सल गतिविधियों के संदर्भ में खुफिया ब्यूरो (आईबी) ने अभी हाल में एक रिपोर्ट केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंपी है। इसमें स्पष्ट कहा गया है कि रिहाई के बाद सेन नक्सली गतिविधियों में पूरी तरह सक्रिय हैं और सरकार के खिलाफ रणनीति बनाने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। हालांकि इस रिपोर्ट के पहले आईबी ने पिछले पांच महीने में कई बार विनायक सेन की हर गतिविधि के बारे में गृह मंत्रालय को लगातार सूचित किया था, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गयी।
आईबी के अनुसार, सेन ने 10 सितंबर को डेमोक्रेटिक राइट आर्गनाइजेशन की बैठक में भी हिस्सा लिया था। यह नक्सलियों के 20 संगठनों का शीर्ष संगठन है। कोलकाता में हुई इस बैठक में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून और गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम कानूनों को हटाने के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान शुरू करने का फैसला किया गया। हैरानी की बात यह है कि आईबी की रिपोर्ट के बावजूद अभी तक विनायक सेन की योजना आयोग की सलाहकार समिति की सदस्यता को रद्द करने की कोई पहल नहीं की गई है।
उल्लेखनीय है कि रायपुर की अदालत ने 24 दिसम्बर 2010 को सेन को देशद्रोह का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी। न्यायालय ने सेन के साथ दो अन्य लोगों को भी देशद्रोह का दोषी करार दिया था, जिसमें प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) से जुड़े नारायण सान्याल और कोलकाता के तेंदू पत्ता व्यवसायी पीयूष गुहा शामिल हैं। सेन ने निचली अदालत के फैसले के खिलाफ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में अपील की थी, जिसको न्यायालय ने ठुकरा दी थी। इसके बाद उन्होंने शीर्ष न्यायालय में अपील की, जहां उनको 15 अप्रैल 2011 को जमानत मिल गयी। सेन पर आरोप था कि उन्होंने प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) का शहरों में नेटवर्क ख़डा करने में अहम भूमिका अदा की है। इसके अलावा उन पर बिलासपुर जेल में बंद माओवादी नेता नारायण सान्याल की चिट्ठियां अन्य माओवादियों तक पहुंचाने के भी आरोप लगे थे। वहीं गुहा पर भी सान्याल का संदेश चोरी-छिपे माओवादियों तक पहुंचाने के आरोप लगे थे।
विनायक सेन को समिति का सदस्य नामित करने पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने गहरी नाराजगी जताते हुए योजना आयोग के पदेन अध्यक्ष प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया को पत्र लिखा था। मुख्यमंत्री ने कहा था- “डॉ. विनायक सेन को अदालत ने राजद्रोह का दोषी पाते हुए सजा दी है। वे इसके सहित कुछ और कानूनों के तहत सजा काट रहे हैं। उनकी अपील हाईकोर्ट में लंबित है लेकिन उनकी सजा पर रोक नहीं लगाई गई है। योजना आयोग की साख बहुत महत्वपूर्ण है और इस नाते ऐसी संस्था में डॉ. विनायक सेन को रखा जाना बहुत ही सदमे का मुद्दा है। यह तमाम तौर-तरीकों के खिलाफ भी है क्योंकि उन्हें राज्य के खिलाफ युद्ध छेडऩे के आरोप में सजा मिली हुई है।”
यह एक मान्य सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति जो उम्र कैद की सजा काट रहा है, उसे राष्ट्रीय स्तर की किसी समिति में या ऐसे किसी मंच पर कभी सदस्य नहीं बनाया जाता। देश में ऐसी कोई दूसरी मिसाल भी नहीं है। यह भी कम हैरानी की बाद नहीं है कि इस समिति में रखने के लिए देशभर में योजना आयोग को विनायक सेन से ज्यादा योग्य कोई और व्यक्ति नहीं मिला। पत्र में डॉ. रमन सिंह ने यह भी कहा था कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में डॉ. सेन के योगदान को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा रहा है, जबकि हकीकत में ऐसी किसी बात के सुबूत नहीं हैं।
डॉ. रमन सिंह ने प्रधानमंत्री से इस मनोनयन पर पुनर्विचार करने का भी अनुरोध किया था और घोषणा करते हुए कहा- “मैं बहुत भारी मन के साथ यह फैसला ले रहा हूँ कि जब तक विनायक सेन के मनोनयन पर पुनर्विचार नहीं किया जाता, मैं योजना आयोग की बैठकों में हिस्सा नहीं लूंगा।”
अब प्रश्न उठता है कि एक तरफ प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं ही कई अवसरों पर नक्सलवाद को इस देश की आंतरिक सुरक्षा और लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। ऐसे में एक ऐसी समिति जिसके पदेन अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री हैं, में संदिग्ध व्यक्ति को शामिल करना केंद्र द्वारा नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई के सारे दावे को खोखला ही साबित करता है। हालांकि केंद्र नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में छत्तीसगढ़ सरकार की मदद करने की बार-बार दुहाई देता है, लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के पत्र पर पुनर्विचार करने को कतई गंभीर नहीं था। फिलहाल चाहे जो कुछ भी हो लेकिन केंद्र की खुफिया एजेंसी आईबी की रिपोर्ट ने मुख्यमंत्री के दावे को और मजबूती प्रदान की है। अत: यह कहा जा सकता है कि आंतरिक सुरक्षा के मुद्दे पर कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार का रवैया कांग्रेस की अधोगति का शोकगीत बनेगी। इस कारण कांग्रेस को इतिहास के काले अध्याय में जगह मिलेगी।
सोमवार, अक्तूबर 10, 2011
नक्सली ही हैं विनायक सेन
पवन कुमार अरविंद
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