पवन कुमार अरविंद
बात 1999 की है, जब कल्याण सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के बीच वाक्-युद्ध शुरू होने के बाद राजनीतिक हलकों में उनके भाजपा छोड़ने की चर्चाएं गर्म थी। इसी बीच लखनऊ में पार्टी छोड़ने से संबधित एक पत्रकार के सवाल पर कल्याण ने उसकी बात का खंडन करते हुए तपाक से कहा था- “मैं भाजपा का निष्ठावान कार्यकर्ता हूं। अंत्येष्टि के समय मेरा शव केसरिया में लपेटकर ही मरघट जाएगा।”
हालांकि इस बयान के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने दिसंबर 1999 में भाजपा के लिए कब्र खोदने के संकल्प के साथ पार्टी छोड़ दी थी। इसके बाद की जनसभा और संवाददाता सम्मेलनों में उन्होंने भाजपा को पानी पी-पी कर खूब कोसा था, और उसको मरा सांप भी करार दिया था। यहां तक कि कल्याण सिंह को ‘कल्याण’ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई थी।
कल्याण मई 2004 में होने वाले लोकसभा चुनाव के चार माह पहले यानी जनवरी में फिर भाजपा में शामिल हो गये थे। उनकी वापसी के पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की इच्छा और पार्टी के कद्दावर नेता स्वर्गीय प्रमोद महाजन के विशेष प्रयास ने अहम भूमिका निभाई। वापसी के बाद भाजपा ने उनको पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था। जिसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर संसदीय क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर चुनाव भी लड़ा और विजयी हुए। लेकिन जनवरी 2009 में उन्होंने भाजपा में अपनी उपेक्षा का आरोप लगाते हुए फिर पार्टी छोड़ दी थी।
दरअसल, कल्याण 2009 के लोकसभा चुनाव में अपने कुछ समर्थकों को पार्टी का टिकट दिलाना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद कल्याण ने मई 2009 में हुए लोकसभा के चुनाव में सपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उत्तर प्रदेश के एटा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विजयी हुए। राममंदिर आंदोलन के प्रमुख नेताओं में शुमार कल्याण ने हिंदुओं के बीच “कारसेवक गोली कांड” के मुख्य कसूरवार माने जाने वाले मुलायम सिंह के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा की लाल टोपी धारण कर उसके पक्ष में घूम-घूमकर प्रचार भी किया था। लेकिन चुनाव में सपा को कम सीटें मिलने के बाद मुलायम सिंह ने कल्याण से दूरी बना ली थी।
पहली बार भाजपा छोड़ने के बाद कल्याण ने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया, लेकिन 2002 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मात्र 4 सीटें ही मिल सकी थी। वहीं दूसरी बार भाजपा छोड़ने के बाद जनक्रांति पार्टी बनाई, लेकिन मार्च 2012 के विधानसभा चुनाव में उनको एक सीट भी मयस्सर नहीं हुई। इस विधानसभा चुनाव के परिणामों ने कल्याण को काफी हताश-निराश कर दिया था। जिसके बाद से ही कल्याण राजनीतिक फलक पर कहीं गुम से हो गये थे, और मौन रहकर फिर किसी नये ठिकाने की तलाश में थे। कहा जाता है कि नेपथ्य में जाने के बाद हर व्यक्ति को अपने जीवन के ‘शिखर दिनों की तालियां’ सदैव गूंजती हैं। इन तालियां की गड़गड़ाहट ने कल्याण को और बेचैन कर दिया था। जिसके बाद से ही वह फिर किसी बड़ी भूमिका की तलाश में थे। लेकिन सोच विचार में प्रश्न यहां आकर अटका कि जायें तो जायें कहां। हालांकि अपनी स्थिति को सजाने-संवारने में जुटी भाजपा भी कल्याण के स्वागत के लिए पलक-पांवड़े बिछाकर पहले से ही प्रतीक्षारत थी। कहा जाता है कि डूबते को तिनके का सहारा चाहिए, यह कथन भाजपा और कल्याण; दोनों पर समान रूप से लागू हो रहा है।
हालांकि कल्याण की वापसी से भाजपा को कितना नफा-नुकसान होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन सतही अनुमान के मुताबिक, उनके आगमन से पार्टी को 3 से 3.5 फीसदी मतों का लाभ मिल सकता है। साथ ही कल्याण के भाजपा में शामिल होने से एक धुरंधर नेता का विरोध भी पार्टी को नहीं झेलना पड़ेगा, जो पार्टी के पक्ष में माहौल को ठीक करने का ही कार्य करेगा। कुल मिलाकर कल्याण के शामिल होने से न भाजपा का घाटा है और न ही कल्याण का। फायदा दोनों को है क्योंकि दोनों को दोनों की तलाश थी। भाजपा में दूसरी बार शामिल होने जा रहे कल्याण सिंह पार्टी में कितने दिनों तक टिकेंगे, यह कहना कठिन है। लेकिन राजनीति के धुरंधर कल्याण यह बखूबी समझते हैं।
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