भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के हालिया ब्लाग पर जमकर हो-हल्ला मचा। कहते हैं कि “सुनी-सुनाई” बातों का गलत अर्थ निकालना कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, लेकिन “लिखा-पढ़ी” की बातों को भी अर्थ का अनर्थ कर देना; किसी प्रकार से क्षम्य नहीं कहा जा सकता। कहते हैं कि झूठ के पांव नहीं होते, पर झूठ का मुंह जरूर होता है। आडवाणी के ब्लॉग के संदर्भ में जो बातें उनके मुंह में डालकर मीडिया प्रस्तुत कर रहा है, वह वस्तुतः संप्रग सरकार के दो बड़े मंत्रियों द्वारा कही गयी हैं। मीडिया ने आडवाणी की बातों का गलत अर्थ निकालकर जनता के विश्वास का एक बार फिर भंजन किया है। सवाल यह है कि जो बातें सीधे-सीधे सरल रूप में समझ में आ जाती हों, उसको घुमा-फिराकर बात का बतंगड़ बना देने की क्या आवश्यकता है। हालांकि इस प्रकार की घटनाओं-दुर्घटनाओं के लिए कुछ कथित मीडियाकर्मी ही जिम्मेदार रहते हैं, लेकिन इसको लेकर समूची मीडिया पर अविश्वास का संकट पैदा होता है। दरअसल, 23 जुलाई को प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने निवर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के सम्मान में दिल्ली स्थित हैदराबाद हाउस में रात्रिभोज का आयोजन किया था। इस भोज में देश के करीब सभी राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं ने शिरकत की। भोज शुरू होने से पहले संप्रग सरकार के दो वरिष्ठ मंत्री अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। इस दौरान लालकृष्ण आडवाणी भी मौजूद थे। ये दोनों मंत्री आगामी आम चुनावों के बाद की स्थितियों की चर्चा करते हुए अपने भविष्य का आकलन कर रहे थे। इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों की चिंता थी कि 16वीं लोकसभा के चुनावों में न तो क्रांग्रेस और न ही भाजपा ऐसा कोई गठबंधन बना पाने में सफल होंगे, जिसका लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हो। इसलिए सन् 2013 या 2014 में, जब भी लोकसभा चुनाव होंगे,,संभवतया जिस ढंग की सरकार बनेगी वह तीसरे मोर्चे जैसी हो सकती है। कांग्रेसी मंत्रियों के मुताबिक यह न केवल भारतीय राजनीति की स्थिरता अपितु राष्ट्रीय हितों के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक होगी। उक्त बातें दोनों मंत्रियो ने आपस में की थी। इस संदर्भ में आडवाणी ने अपने ब्लाग में लिखा है- मैंने दोनों मंत्रियों के दिमाग में उमड़ रही इन चिंताओं को महसूस किया। इस बात पर मेरी प्रतिक्रिया थी- मैं आपकी चिंता को समझता हूं, मगर उससे सहमत नहीं हूं। इस मुद्दे पर मेरे अपने विचार हैं- पिछले ढाई दशकों में राष्ट्रीय राजनीति का जो स्वरूप बना है उसमें यह प्रत्यक्षत: असंभव है कि नई दिल्ली में कोई ऐसी सरकार बन पाए जिसे या तो कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन न हो। इसलिए तीसरे मोर्चे की सरकार की कोई संभावना नहीं है। हालांकि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार जिसे इन दोनों प्रमुख दलों में से किसी एक का समर्थन हो, बनना संभव है। ऐसा अतीत में भी हो चुका है। लेकिन, चौ. चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकारें और वीपी सिंह सरकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऐसी सरकारें ज्यादा नहीं टिक पातीं। केंद्र में तभी स्थायित्व रहा है जब सरकार का प्रधानमंत्री या तो कांग्रेस का हो या भाजपा का। दुर्भाग्यवश, 2004 से यूपीए-1 और यूपीए-2, दोनों सरकारें इतने खराब ढंग चल रहीं हैं कि सत्ता प्रतिष्ठान में घुमड़ रहीं वर्तमान चिंताओं को सहजता से समझा जा सकता है। सामान्यतया लोग मानते हैं कि लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का सर्वाधिक खराब चरण आपातकाल के पश्चात् 1977 के चुनावों में था। लेकिन इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आगामी लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का हाल 1952 से अब तक के इतिहास में सर्वाधिक खराब रहे। यह पहली बार होगा कि कांग्रेस पार्टी का स्कोर मात्र दो अंकों तक सिमट कर रह जाएगा, यानी कि सौ से भी कम! तो यह था आडवाणी के ब्लाग कां अंश, लेकिन मीडिया ने तो न जाने क्या-क्या अर्थ लगा लिया। जो घोर निराशाजनक है।
मंगलवार, अगस्त 07, 2012
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