होली के दिन उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में मुसलमानों के जुलूस के दौरान हिंसा भड़क उठी थी। दंगों को लेकर देशभर में काफी आरोप प्रत्यारोप हुए। कई प्रकार की बातें कही गईं। लेकिन इन दंगों की सत्यता क्या थी, इस बारे में देशभर की मीडिया लगभग मौन सी ही रही है। इन दंगों के संदर्भ में मैने काफी पड़ताल की है, उसके आधार पर ये बातें स्पष्ट तौर पर कही जा सकती हैं कि दंगों और उसके बाद के घटनाक्रम के संबंध में सरकार का रवैया तो पक्षपातपूर्ण रहा ही, मीडिया के एक वर्ग में भी निष्पक्षता का काफी अभाव दिखा। प्रस्तुत है एक रिपोर्ट -
बरेली में सांप्रदायिक दंगा राज्य की बसपा सरकार और कांग्रेस की मिलीभगत का परिणाम है। एक दम शांत माहौल में एकाएक दंगा भड़क उठना राज्य सरकार की कानून व्यवस्था और वोट बैंक की तुच्छ राजनीति पर कई प्रश्न खड़े करता है। पहली बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश काफी समय से सांप्रदायिक दंगों से मुक्त रहा है। पिछले वर्षो में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और वैमनस्य बढ़ाने के प्रयास किए गए लेकिन सांप्रदायिक हिंसा से यह प्रदेश बचा रहा।
दंगों की पृष्ठभूमि और शुरुआत
यह दंगा हिंदुओं के त्योहार होली के दिन इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के जन्म दिवस यानि बारावफात के उपलक्ष्य में मुसलमानों द्वारा निकाले जुलूस के दौरान हुई झड़प से शुरू हुआ। हालांकि, इसके लिए जमीन तो काफी पहले से बननी शुरू हो गई थी। किसी भी दंगे का तात्कालिक कारण चाहे जो भी हो लेकिन उसके लिए तैयारियां काफी पहले से की जाती हैं और यदि प्रशासन एवं समाज की नजरें तेज हों तो आमतौर पर हवा में तैरते अंदेशों को पढ़ा जा सकता है।
ये बातें भी कम प्रश्नवाचक नहीं हैं कि आखिर दो मार्च को होली के दिन भी मुहम्मद साहब के जन्मदिन के उपलक्ष्य में एक बार पुनः जुलूस-ए-मुहम्मदी निकालने का मुस्लिम समाज द्वारा निर्णय किया गया। जबकि, मोहम्मद साहब का जन्मदिवस तो 27 फरवरी को था, और इस अवसर पर निकाला जाने वाला परंपरागत ‘जुलूस-ए-मुहम्मदी’ उसी दिन निकाला जा चुका था। हालांकि, इससे पहले कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि उनके जन्मदिवस पर अलग-अलग दिनों में दो बार जुलूस निकाला गया हो।
सूत्र बताते हैं कि जुलूस की अनुमति प्रशासन ने आईएमसी प्रमुख मौलाना तौकीर रजा खाँ और एक कांग्रेसी सांसद के दबाव में आकर दिया। जबकि प्रशासन इसकी अनुमति न देकर इस हादसे को होने से रोक भी सकता था।
ध्यातव्य हो कि आईएमसी एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल है, जिसने बीते लोकसभा चुनाव में प्रदेश के 4 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इसके पहले यह दल अन्य दलों को चुनावों में समर्थन देता रहा है।
आखिर, एकाएक अमन पसंद मोहल्लों को दंगे की आग में कैसे और किसने झोंक दिया? पुलिस कहती है कि सबकुछ अचानक हो गया। मगर, हालात कुछ और ही कहानी बयां कर रहे हैं।
खुफिया एजेंसियों की पड़ताल भी पुलिस से अलग जा रही है। इशारा खतरनाक साजिश की तरफ है। दंगा पूर्व सुनियोजित था। जुलूस में शामिल कुछ मुसलमान युवक पूरी तैयारी से थे। भीड़ का फायदा उठाकर उपद्रवी हाथियारों से लैस होकर पहले हर तरफ फैल चुके थे। इसीलिए शहर के चाहबाई क्षेत्र में विवाद होते ही जगह-जगह आगजनी होने लगी। सबसे बड़ा सवाल यह है कि जुलूस में शामिल बाहर के लोगों के पास पेट्रोल से भरी बोतलें, माचिस और गड़ासे कहां से आए?
मंगलवार को करीब ढाई बजे जुलूस-ए-मुहम्मदी अपने पूरे रंग में था। अंजुमनों की टुकड़ियां शांति पूर्वक अपने रास्तों से होती हुई कोहाड़ापीर की तरफ बढ़ रही थीं। अचानक सबकुछ थम सा गया।
पुलिस के मुताबिक, अंजुमन चाहबाई के परंपरागत रास्ते की बजाय दूसरे रास्ते की तरफ बढ़ गई थी, जिसका दूसरे पक्ष ने विरोध किया। असल में वह रास्ता अंजुमन का नहीं था। पुलिस समझौता करा रही थी। इसी बीच बवाल शुरू हो गया, लेकिन सिर्फ इतनी बात पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएंगे? यह बात कम से कम उन लोगों के गले नहीं उतर रही, जिन्होंने दंगों का दंश झेला, बर्बादी झेली। मौत को आंखों के सामने नाचते देखा।
सामाजिक कार्यकर्ता श्री अरूण खुराना कहते हैं कि जिस जगह रास्ते को लेकर विवाद हुआ, वह झगड़ा तकरीबन शांत हो गया था। इसी दौरान भीड़ में शामिल कुछ खुराफातियों ने माहौल भड़काने के लिए राह चलती हिंदू लड़कियों और महिलाओं से छेड़छाड़ शुरू कर दी, जिस पर दूसरे पक्ष ने कड़ा विरोध जताया। किसी ने पत्थर भी फेंक दिया, जिसके जवाब में दूसरा पक्ष भी शोरशराबा करने लगा। मौका देखकर भीड़ में पहले से शामिल उपद्रवियों ने आगजनी और तोड़फोड़ शुरू कर दी। उनके हाथों में पेट्रोल से भरी बोतलें और माचिसें थीं, गड़ासे भी थे। वह पहले से चिन्हित घरों में लूटपाट करते और पेट्रोल छिड़ककर आग लगा देते। गंड़ासे गर्दन पर रखकर महिलाओं के गहने और नकदी लूटी गई।
उन्होंने बताया कि उपद्रवियों ने हिंदू लड़कियों और महिलाओं के साथ बदसलूकी की सारे हदें पार कर दीं। यही कोहाड़ापीर, शाहदाना, डेलापीर, संजयनगर, बानखाना क्षेत्रों में हुआ। वहां भी भीड़ में पहले से मौजूद दंगाइओं ने आगजनी शुरू कर दी।
हिंसक घटनाओं के मद्देनजर शहर के बारादरी, किला, प्रेमनगर और कोतवाली क्षेत्रों में उसी दिन शाम 6 बजे से बेमियादी कर्फ्यू लगा दिया गया, जो आज पंद्रहवें दिन भी जारी है। हालांकि, कर्फ्यू में ढील धीरे-धीरे बढ़ायी जा रही है। आज 17 मार्च को सुबह 6 बजे से शायंकाल 5 बजे तक ढील दी गई है।
सामाजिक कार्यकर्ता श्री रमेश बताते हैं कि दंगे की पूरी तैयारी कुछ दिन पहले ही कर ली गई थी। इसकी जानकारी पुलिस महकमे को भी थी लेकिन उसने चुप्पी साधे रखा। ज्यादातर दंगाई किला, कोतवाली और प्रेमनगर इलाके में हुए दंगे के बाद किला इलाके में जाकर छिपे जो कर्फ्यू में छूट मिलने के बाद अपने ठिकानों पर भाग निकले।
तौकीर रजा नाटकीय ढंग से गिरफ्तार एवं रिहा
जुलूस-ए-मुहम्मदी को नए रास्ते से ले जाने का विरोध करने वाले हिंदुओं के खिलाफ जहरबयानी करते हुए तौकीर रजा खाँ ने कहा, ‘जिस व्यक्ति ने हमारे अंजुमनों को रोकने का प्रयास किया है, हम उससे जरूर बदला लेंगे।’
तौकीर के इस बयाने के बाद शहरभर में हिंसा भड़क उठी थी। और उपद्रवियों ने आठ चिन्हित हिंदू घरों तथा करीब 12 दुकानों को आग के हवाले कर दिया। इसके अलावा दंगों के दिन से 17 हिंदू लड़कियां के गायब होने की सूचना मिली है, जिनमें से 6 लड़कियां वापस अपने घर आ गई हैं।
तौकीर रजा की गिरफ्तारी सात मार्च को हुई। उसकी गिरफ्तारी के विरोध में बरेली और आस-पास के जिलों से आकर करीब तीस हजार मुसलमान कर्फ्यू के बीच में ही इस्लामिया इंटर कालेज में लगातार 24 घंटे धरने पर बैठे रहे। इसी बीच राज्य शासन ने डीआईजी और डीएम का स्थानांतरण कर तौकीर रजा की रिहाई का मार्ग प्रशस्त कर दिया। नए डीआईजी और डीएम की नियुक्ति के बाद तौकीर रजा को रिहा कर दिया गया। उसकी रिहाई का समाचार सुनकर हिंदू समाज आक्रोशित हो गया।
ध्यातव्य हो कि जब हिंदू प्रताड़ित हो रहे थे तब सरकार को कोई सुधि नहीं थी लेकिन तौकीर रजा की गिरफ्तारी के बाद प्रशासन सक्रिय हो गया। प्रशासन का यह रवैया पक्षपातपूर्ण है।
वर्तमान में भारत जिस राह पर चल रहा है, उसमें धार्मिक या जातीय आधार पर झगड़ों के लिए गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। लेकिन बरेली में सांप्रदायिक दंगे हो रहे हैं। दंगों में कोई भी पक्ष जीतता या हारता नहीं है, जीतते सिर्फ वे लोग हैं जिनके स्वार्थ सांप्रदायिक हिंसा से सिद्ध होते हैं और आम जनता चाहे वह किसी भी संप्रदाय की हो, जरूर हारती है। जहां भी सांप्रदायिक दंगे हुए हैं, वहां स्थानीय निहित स्वार्थो ने योजनापूर्वक दंगे भड़काए हैं ।
बरेली में भी ऐसे तत्वों को पहचाना जा सकता है और प्रशासन को चाहिए कि उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करे और समाज को चाहिए कि उनका बहिष्कार करे। रोटी, कपड़ा, बिजली, पानी, विकास, सुरक्षा जैसे मुद्दे आम आदमी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो। इन समस्याओं को हल करते हुए समाज के लिए धर्म के नाम पर जूझने की फुरसत नहीं होनी चाहिए। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि बरेली की चिंगारी वहीं पर बुझा दी जाएगी और यह आग ओर नहीं भड़केगी।
गुरुवार, मार्च 18, 2010
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