सोमवार, अप्रैल 18, 2011

लोकपाल बिल बनाम लोक व तंत्र की मर्यादा

पवन कुमार अरविंद

सत्ता के संचालन की लोकतांत्रिक प्रणाली; इस सृष्टि की सर्वोच्च शासन व्यवस्था मानी गई है। क्योंकि अब तक शासन के संचालन की जितनी भी पद्धतियां ज्ञात हैं, उनमें लोकतांत्रिक प्रणाली सर्वाधिक मानवीय है। यह एक ऐसा तंत्र है जिसमें इकाई राज्य के सभी जन की सहभागिता अपेक्षित है। इस तंत्र में न तो कोई आम है और न ही कोई खास, बल्कि लोकतांत्रिक सत्ता की दृष्टि में सभी समान हैं। लोकतांत्रिक देश यानी सभी जन की सहभागिता से निर्मित तंत्र।

भारत इस सर्वोत्कृष्ट शासन प्रणाली का जन्मदाता है। कुछ लोग ब्रिटेन को भी मानते हैं; पर यह सत्य नहीं है, भले ही भारत को आजादी मिलने तक देश के सभी रियासतों में राजतंत्र रहा हो और इस राजतांत्रिक पद्धति से सत्ता संचालन का सिलसिला अयोध्या के राजा दशरथ के शासनकाल के बहुत पहले से चलता रहा हो, फिर भी जनता के प्रति सत्ता की जवाबदेही के परिप्रेक्ष्य में भारत ही लोकतांत्रिक प्रणाली का जन्मदाता कहा जाएगा।

दशरथ पुत्र मर्यादापुरुषोत्तम राम का शासन राजतांत्रिक होते हुए भी लोकतांत्रिक था। क्योंकि उनके राज्य की सत्ता जनता के प्रति पूर्ण-रूपेण जवाबदेह थी। उनकी पत्नी सीता की आलोचना अयोध्या के मात्र एक व्यक्ति ने की थी, राजा राम ने इसको गंभीरता से लिया और राजधर्म का पालन करते हुए सीता को जंगल में भेज दिया। यहां सवाल यह नहीं है कि राम ने सीता के प्रति अपने पति धर्म का पालन किया या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि आलोचना करने वाले की संख्या मात्र एक थी, फिर भी कार्रवाई कठोर हुई। उनके जैसा संवेदनशील राजतंत्र अब तक देखने या सुनने को नहीं मिला है। वह एक ऐसा तंत्र था जो लोकतंत्र से भी बढ़कर था। हांलाकि, राज्य के राजा का चयन सत्ता उत्तराधिकार की अग्रजाधिकार विधि के तहत होता था। यानी राजा का ज्येष्ठ पुत्र सत्ता का उत्तराधिकारी।

वर्तमान लोकतांत्रिक पद्धति में सैद्धांतिक रूप से सत्ता जनता के प्रति जवाबदेह होती है लेकिन व्यवहारतः ऐसा नहीं है। पूरा विपक्ष यहां तक कि देश की आधी जनता भी यदि सरकार से इस्तीफा मांगे, तो भी बड़ी साफगोई से इन्कार कर दिया जाता है, और अपने पक्ष में ढेर सारे तर्क गढ़ दिये जाते हैं।

अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि यदि किसी देश की सत्ता, उस देश की जनता के द्वारा चुनी गई हो, जनता के हित में कार्य करती हो और जनता के लिए समर्पित हो; तो ऐसी सरकार को लोकतांत्रिक कह सकते हैं (By the people, of the people and for the people.)। यानी उनके कहने का अर्थ यह भी है कि सरकार के निर्माण या चयन में लोकतांत्रिक इकाई के सभी लोगों की समान सहभागिता होनी चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि क्या वर्तमान सत्ता का चाल, चरित्र, चेहरा व मोहरा; जनता व देश के लिए हितकारी है? यदि ऐसा होता तो प्रख्यात गांधीवादी 73 वर्षीय अन्ना हजारे अनशन पर क्यों बैठते? क्या अन्ना का अनशन किसी शौक की अभिव्यक्ति था? दुनिया का कोई भी तंत्र हो, वह लोक की व्यवस्थाओं को सुव्यवस्थित व सुगम बनाने में सहयोग करने के लिए होता है। लोक का कार्य तंत्र पर निगरानी रखते हुए उसको अमर्यादित और भटकाव की दिशा में जाने से रोकना है। तंत्र की लगाम लोक के हाथों में होनी चाहिए। इसके बावजूद दोनों की अपनी-अपनी मर्यादाएं हैं। इस तंत्र को संचालित करने के लिए कुछ परम्पराएं भी स्थापित करनी पड़ती हैं, या निर्मित हो जाती हैं।


तो क्या यह मान लिया जाय की इन परम्पराओं के समक्ष लोक को हमेशा नतमस्तक रहना चाहिए। कुछ राजनेताओं व बुद्धिजीवियों का कहना है अन्ना ने अनशन को हथियार बनाकर सत्ता के साथ ब्लैकमेंलिंग की है। वर्षों से चली आ रही देश की स्थापित संसदीय परम्परा को तोड़ा है। अन्ना के कारण संसदीय तंत्र की संप्रभुता को झटका लगा है। लिहाजा उनका अनशन किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के हित में नहीं कहा जा सकता। हालांकि ये सब बेकार की बातें हैं। आखिर परम्पराएं क्यों बनायी जाती हैं? परम्पराएं टूटने के लिए भी होती हैं। क्या ये परम्पराएं लोक और लोकहित से भी बड़ी हैं? परम्पराएं लोक के लिए बनायी जाती हैं, परम्पराओं के लिए लोक नहीं बनता। कभी-कभी ऐसी भी स्थितियां आ जाती हैं कि परम्पराएं जीवित रहती हैं और उन परम्पराओं के कारण ‘लोक’ मरता रहता है। क्या हम लोगों को ‘मरते रहना’ ही पसंद है?

अन्ना के अनशन की सफलता का श्रेय पूरी तरह से भ्रष्टाचारी कांग्रेस को है। क्योंकि उसके ‘शूरमाओं’ द्वारा लगातार किये जा रहे बड़े-बड़े घोटालों से जनता बौखला उठी थी और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में किसी ईमानदार नेतृत्व की तलाश में थी। कहते हैं कि डूबते को तिनके का सहारा चाहिए। अतः जनता ने भ्रष्टाचार के खिलाफ हथियार के रूप में अन्ना रूपी उस तिनके का सहारा लिया। जनता के समर्थन के कारण यह तिनका सरकार पर भारी पड़ गया। फलतः सरकार को झुकना पड़ा। हालांकि, इस अनशन को केवल इतने से ही सफल नहीं मान लेना चाहिए। अभी तो सरकार और सिविल सोसायटी के बीच क्रिकेट का टी-20 जैसा खेल ही हो रहा था और पूरे 50-50 ओवरों की कई श्रृंखलाएं खेला जाना शेष है।

जो कानून पिछले 43 वर्षों से अधर में लटका हो, या जानबूझकर लटकाया गया हो, के लिए अब तक की सरकारें क्या करती रहीं। क्या इन सरकारों में शामिल कुछ लोगों द्वारा अपनी गर्दन फंस जाने के खतरे से इस कानून के बनने के खिलाफ कई प्रकार के तर्क पेश किये जाते रहे और किये जा रहे हैं? हालांकि, ‘जन-लोकपाल बनाम लोकपाल का संघर्ष’ को कितनी सफलता मिलती है, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन यह गंभीर मसला है कि लोकपाल का मसौदा तैयार हो जाने के बाद संसद में पेश किया जाएगा, तो ठीक उसी रूप में पारित हो सकेगा? संसद के दोनों सदनों के 795 सदस्य क्या आंख मूदकर इस विधेयक के पक्ष में हाथ उठा देंगे? एक आंकड़े के मुताबिक, संसद के 35 प्रतिशत सदस्य किसी न किसी प्रकार से भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। यदि यह विधेयक पारित हो जाता है तो सबसे बड़ा पहाड़ इन माननीय सदस्यों के ऊपर ही टूट पड़ेगा। इस कारण लोकपाल विधेयक संसद में पारित करा लेना उससे भी ज्यादा कठिन है जितना अन्ना समझते हैं।


शायद इसी कारण अन्ना ने संयुक्त समिति की पहली बैठक के एक दिन बाद लोकपाल विधेयक पर अपने रुख में नरमी का संकेत दिया और कहा कि संसद सर्वोच्च है, यदि वह विधेयक को खारिज कर देती है तो वह इसे स्वीकार करेंगे। अन्ना ने संसद द्वारा लोकपाल विधेयक पारित करने के संबंध में अपनी ओर से निर्धारित 15 अगस्त की समयसीमा पर भी लचीला रुख अपना लिया है। उन्होंने कहा- “अगर मुझे लगेगा कि सरकार सही मार्ग पर आगे बढ़ रही है तो इस विषय पर मैं सहयोग करने को तैयार हूँ।”

प्रश्न यह है कि आप अपने ही खिलाफ कितना कठोर कानून बनाएंगे? शायद इसी कारण लोकपाल विधेयक 1968 से अधर में लटका पड़ा है। इस बात पर कोई ईमानदार और निष्कलंक अन्ना क्या कर सकेगा? सिविल सोसायटी के पांच महानुभाव लोग क्या कर सकेंगे? इन सभी वास्तविकताओं को अन्ना बखूबी समझते हैं। इसीलिए अन्ना को अपनी व इस संसदीय प्रणाली की मर्यादा का ध्यान रखना पड़ रहा है।

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