पुस्तक समीक्षा
व्यंग्य की विधा साहित्य में कुछ विशेष प्रकार की है। जैसे क्रिकेट में सफल गेंदबाज वही है, जिसकी गेंद की गति, दिशा और उछाल का बल्लेबाज को अंतिम समय तक अनुमान न हो पाये। सफल फिल्म और उपन्यास भी वही होता है, जिसका रहस्य और निष्कर्ष, अंत में जाकर ही पता लगता है। इसी प्रकार व्यंग्यकार जो संदेश देना चाहता है, वह प्राय: अंतिम दो तीन वाक्यों में ही स्पष्ट हो पाता है और पाठक को यात्रा करते-करते अचानक अपने लक्ष्य पर पहुंचने जैसी संतुष्टि प्राप्त होती है।
हँसने-हँसाने का रुझान भी अपने में अनूठा होता है। कुछ लोग चुटकुले पढ़ना और उन्हें याद कर ठीक समय पर सुनाने के शौकीन होते हैं। इससे सभा या बैठक का माहौल खुशनुमा होता ही है साथ ही उपस्थित लोगों की थकान भी क्षण भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। समाज में कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो बातचीत में कुछ व्यंग्यात्मक बातें प्राय: बोल देते हैं। भले ही वे साफ मन से बोली जायें; पर सुनने वाले बुरा मान जाते हैं। इससे लोगों को कभी-कभार हानि भी उठानी पड़ जाती है। हालांकि, व्यंग्य में थोड़ा सा हास्य भोजन की थाली में, चटनी और अचार जैसा मजा देता है। “मारो कहीं, लगे कहीं” और “कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना” की तरह इन विशेषताओं को ‘कुरसी तू बड़भागिनी’ नामक हास्य-व्यंग्य पुस्तक में बखूबी शामिल किया गया है। इसके लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार विजय कुमार।
इस पुस्तक की एक दूसरी विशेषता यह है कि इसमें विदेशी भाषाओं का घालमेल नहीं है। हालांकि आजकल हिंदी में विदेशी भाषाओं के घालमेल की एक भेड़चाल सी चल पड़ी है। फिलहाल, लेखक ने इससे यथा संभव बचने का प्रयास किया है। पुस्तक में शामिल लेखों के सामयिक होने के कारण इनकी मार के दायरे में; पुलिस, प्रशासन, पत्रकार, लेखक और व्यापारी, कर्मचारी, चिकित्सक, वकील सब आये हैं।

पुस्तक : कुरसी तू बड़भागिनी
लेखक : विजय कुमार
पृष्ठ 136, मूल्य रु. 175/-
प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली