गुरुवार, मार्च 17, 2011

मनमोहन का नेतृत्व और उसके मायने

पुराने जमाने में किसान जब बैल से खेत की जुताई करता था तो कभी-कभी ऐसी भी स्थितियां आ जाती थीं कि बैल खेत की एक भी क्यारी जोतने या आगे बढ़ने से ही इन्कार कर देता था। ऐसी परिस्थिति में किसान बैल के हर मर्म को समझता था। वह कोई और उपाय न कर बैल की पूंछ मरोड़ता था और बैल आगे बढ़ने लगता था। ठीक वैसी ही स्थिति कांग्रेस-नीत यू.पी.ए. सरकार की हो गई है, जिसको न्यायालय रूपी किसान को सरकार के कर्तव्यों और यहां तक कि उसके अधिकारों की याद दिलाने के लिए लगातार उसकी पूंछ मरोड़नी पड़ रही है।

न्यायालय मौजूदा दौर में किसान की भूमिका में आ गया है। भ्रष्टाचार के इस माहौल में न्यायालय ही देश की प्राणवायु बना हुआ है। यही नहीं न्यायालय ने सरकार को कई मुद्दों पर फटकार भी लगाई है। शीर्ष न्यायालय ने कालेधन के संदर्भ में एक मामले की सुनवाई के दौरान सरकार को यहां तक कहा- “इस देश में हो क्या रहा है?” इसके बाद अब न्यायालय के पास सरकार को कहने के लिए बचता ही क्या है? न्यायालय आखिर अब किन शब्दों में सरकार को फटकार लगाए?

हालांकि किसी देश की चुनी हुई सरकार की तुलना जानवर से करना कतई उचित नहीं है। लेकिन वर्तमान यू.पी.ए. सरकार के रवैये के कारण बैल का उदाहरण ही सटीक मालूम पड़ता है। इस संदर्भ में यदि यह कहें कि मौजूदा दौर में न्यायपालिका ही देश की नैतिक सत्ता का संचालन कर रही है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी और जनता द्वारा जनता के लिए चुनी गई सरकार अपने कर्तव्यों को भूलकर लगातार बगलें झांक रही है।


देश की यह ऐसी पहली सरकार है जिसको शीर्ष न्यायालय ने सबसे अधिक बार फटकार लगाई है और जिसके मुखिया को अपनी गलती स्वीकारते हुए सबसे अधिक बार शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है। लेकिन केवल गलती स्वीकार लेना ही पर्याप्त है क्या?

इस सरकार ने भ्रष्टाचार के अपने सारे कीर्तिमान स्वयं ही ध्वस्त कर दिए हैं। भष्टाचार के मसले पर बेशर्मी की भी हद है! इस कारण यह सरकार जनता के चित्त से उतर गई है। जनता इस सरकार को धूल चटाने के इंतजार में मौन बैठी है। बस आम चुनाव भर की देर है। यदि चुनाव हुआ तो फिर किसी यू.पी.ए.-2 का यू.पी.ए.-3 के रूप में प्रकट होकर सत्तासीन हो जाना संभव नहीं दिखता है।

यू.पी.ए.-2 के रूप में केंद्र की यह ऐसी पहली सरकार है जो भ्रष्टाचार के कारण एक दिन भी ठीक से चैन की नींद नहीं ले पा रही है। एक घोटाले की पोल खुलती है और उस पर जांच की प्रक्रिया अभी शुरू ही हुई कि तब तक दूसरे घोटाले का धुआं उड़ने लगता है। पाकिस्तान में जैसे हर रोज कहीं न कहीं आतंकी धमाके होते हैं, ठीक उसी तरह भारत में घोटालों का होना आम बात हो गई है।

2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, आदर्श हाउसिंग घोटाला, सीवीसी की नियुक्ति में हेराफेरी, एस-बैंड स्पेक्ट्रम घोटाला, ये तमाम घोटाले इस सरकार की उपलब्धियों में शुमार हैं। इसके अलावा कई घोटाले ऐसे हैं जिनका पोल खुलना अभी शेष है। वैसे, घोटाले की इस रफ्तार को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2014 में सरकार के कार्यकाल पूरा करने तक सैंकड़ों और घोटालों का वारा-न्यारा कर दिया जाएगा।

अभी सीवीसी पर नियुक्ति का विवादित मसला समाप्त नहीं हुआ कि विकीलीक्स के खुलासे से सरकार की सांसें अटक गई हैं। इस खुलासे में कहा गया है कि 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु करार के मुद्दे पर वामपंथियों के समर्थन वापसी के बाद जब मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली यू.पी.ए.-1 की सरकार अल्पमत में आ गई थी, तो सरकार को बचाए रखने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त हुई थी। हालांकि सरकार ने इस खरीद-फरोख्त की जांच के लिए कुछ सांसदों की एक समिति भी बनाई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट का भी वही हश्र हुआ जो सबका होता है, या होता रहा है। उससे कुछ स्पष्ट बातें निकल कर सामने नहीं आ सकीं।

अर्थात- ‘मिस्टर क्लीन’ मनमोहन सिंह ने जिस यू.पी.ए.-1 की सरकार का नेतृत्व किया था, वह भी मौजूदा यू.पी.ए.-2 की ही तरह भ्रष्ट थी। बार-बार इस बात की चर्चा होती है कि मनमोहन सिंह बहुत शालीन, ईमानदार, विद्वान, गंभीर और स्वच्छ छवि के हैं। वास्तव में यदि डॉ. सिंह के अंदर इतने सारे गुण हैं तो उनकी सरकार अब तक की सबसे भ्रष्टतम सरकार कैसे साबित हो रही है। यदि यह सरकार भ्रष्टतम है तो फिर उनको स्वच्छ छवि का कैसे कहा जा सकता है? उनके अंदर चाहे जितने भी गुण हों; मगर यदि यह सरकार उनके नेतृत्व में नैतिकता के धरातल से लगातार दूर जा रही है तो इसके दोषी प्रत्यक्ष रूप से डॉ. सिंह ही कहे जाएंगे। इसके लिए सोनिया गांधी कैसे जिम्मेदार कही जा सकती हैं, चाहे भले अंदर की बात कुछ और ही क्यों न हो ? आखिर सत्ता का प्रत्यक्ष संचालन तो मनमोहन ही कर रहे हैं, फिर सोनिया कैसे जिम्मेदार हैं? इसका सारा दोष डॉ. सिंह का है, जो सोनिया के प्यादे की तरह कार्य कर रहे हैं।

मनमोहन सिंह इस देश के बड़े अर्थशास्त्री हैं। ज्ञान, प्रतिभा, कॉलेज की डिग्री, और विद्वता की दृष्टि से भी देश में उनके जैसा कोई अर्थशास्त्री नहीं है। लेकिन यह विद्वता किस काम की, जो केवल कहने के लिए है और जिसका व्यावहारिक धरातल पर प्रभाव शून्य से भी नीचे हो। वैसे डॉ. सिंह जब स्वर्गीय नरसिंहा राव के प्रधानमंत्रित्वकाल में वित्त मंत्री थे, उस दौरान भी उनकी प्रतिभा अपना प्रभाव नहीं छोड़ पा रही थी। उनके वित्त मंत्री रहते हुए महंगाई तब तक के सभी सरकारों के सारे रिकॉर्ड्स ध्वस्त कर चुकी थी। इस संदर्भ में यह भी कहा जाता है कि डॉ. सिंह को विश्व बैंक के दबाव में देश का वित्त मंत्री बनाया गया था। हालांकि इन बातों में कितनी सत्यता है, ये गंभीर जांच के विषय हैं।

लेकिन हर मोर्चे पर यदि मनमोहन सिंह विफल साबित हो रहे हैं तो यह किसका दोष है। माना कि वह राजनेता नहीं हैं; इसलिए राजनीति के दांव-पेंच नहीं समझते और अपने सहयोगियों के बहकावे में आकर गलत निर्णय कर बैठते हैं। लेकिन क्या यह भी मान लिया जाए कि वह प्रकाण्ड अर्थशास्त्री नहीं हैं? यह मानना तो संभव ही नहीं है, क्योंकि उनका अर्थशास्त्री होना ही सत्य है, तो फिर महंगाई अपने चरम पर कैसे पहुंच गई? यही नहीं लगातार बढ़ती भी जा रही है; यानी डॉ. सिंह को जिन विषयों की जानकारी है उसमें भी लगातार मात खाते जा रहे हैं। इन बातों से यही कहा जा सकता है कि डॉ. सिंह के पास अर्थशास्त्र के साथ-साथ अन्य किसी भी विषय का व्यावहारिक ज्ञान नहीं है, केवल किताबी ज्ञान ही समेटे हुए हैं। अर्थात- महंगाई के साथ ही उन सभी मुद्दों पर डॉ. सिंह ‘आर्थिक अखाड़े के किताबी पहलवान’ ही साबित हो रहे हैं; और आप इसका अंदाजा सहज ही लगा सकते हैं कि किताबी पहलवान की वास्तविक अखाड़े में कितनी दुर्दशा हो सकती है; और होती है।

फ़ॉलोअर

लोकप्रिय पोस्ट

ब्‍लॉग की दुनिया

NARAD:Hindi Blog Aggregator blogvani चिट्ठाजगत Hindi Blogs. Com - हिन्दी चिट्ठों की जीवनधारा Submit

यह ब्लॉग खोजें

Blog Archives