शनिवार, जून 12, 2010
कब तक खून चूसेंगे परदेसी और परजीवी
आशुतोष
दुनियां की सर्वाधिक लोमहर्षक औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी का मुख्य आरोपी और यूनियन कार्बाइड का निदेशक वॉरेन एंडरसन घटना के चार दिन बाद भोपाल आया और औपचारिक गिरफ्तारी के बाद 25 हजार रुपये के निजी मुचलके पर उसे छोड़ दिया गया।
15 हजार से अधिक लोगों की मौत और लाखों लोगों के जीवन पर स्थायी असर डालने वाले इस आपराधिक कृत्य के आरोपी एंडरसन को केन्द्र और राज्य सरकार की सहमति से भोपाल से किसी शाही मेहमान की तरह विदा किया गया। उसके लिये राज्य सरकार के विशेष विमान की व्यवस्था की गयी और जिले का कलक्टर और पुलिस कप्तान उसे विमान तल तक छोड़ने के लिये गये। इस कवायद को अंजाम देने के लिये मुख्यमंत्री कार्यालय भी सक्रिय था और दिल्ली स्थित प्रधानमंत्री कार्यालय भी।
8 दिसंबर 1984 के सी.आई.ए. के दस्तावेज बताते हैं कि यह सारी प्रक्रिया स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की देख-रेख में चली। निचली अदालत द्वारा दिये गये फैसले में भी केन्द्र सरकार का उल्लेख करते हुए उसे लापरवाही के लिये जिम्मेदार माना है।
जानकारी हो कि बिना उपयुक्त सुरक्षा उपायों के कंपनी को अत्यंत विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनेट आधारित 5 हजार टन कीटनाशक बनाने का लाइसेंस न केवल जारी किया गया अपितु 1982 में इसका नवीनीकरण भी कर दिया गया।
घटना की प्रथमिकी दर्ज कराते समय गैर इरादतन हत्या (धारा-304) के तहत मामला दर्ज किया गया, जिसकी जमानत केवल अदालत से ही मिल सकती थी किन्तु चार दिन बाद ही पुलिस ने मुख्य आरोपी से उपरोक्त धारा हटा ली। शेष बची हल्की धाराओं के तहत पुलिस थाने से ही उसे निजी मुचलके पर इस शर्त के साथ रिहा कर दिया गया कि उसे जब और जहां हाजिर होने का हुक्म दिया जायेगा, वह उसका पालन करेगा। मजे की बात यह है कि जिस मुचलके पर एंडरसन ने हस्ताक्षर किये वह हिन्दी में लिखा गया था।
राज्य में उस समय तैनात रहे जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारी कह रहे हैं कि सारा मामला मुख्यमंत्री कार्यालय से संचालित हुआ। प्रधानमंत्री कार्यालय में प्रमुख सचिव रहे पीसी अलेक्जेंडर का अनुमान है कि राजीव गांधी और अर्जुन सिंह के बीच इस मामले में विमर्श हुआ होगा।
चर्चा यह भी चल पड़ी है कि एंडरसन ने दिल्ली आ कर तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से भी भेंट की थी । इस सबके बीच कांग्रेस प्रवक्ता का बयान आया है कि– मैं इस मामले में केन्द्र की तत्कालीन सरकार के शामिल होने की बात को खारिज करती हूं।
पूरे प्रकरण से राजीव गांधी का नाम न जुड़ने पाये इसके लिये 10 जनपथ के सिपहसालार सक्रिय हो गये हैं। उनकी चिन्ता भोपाल के गैस पीड़ितों को न्याय मिलने से अधिक इस बात पर है कि राजीव गांधी का नाम जुड़ने से मामले की आंच कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी तक न जा पहुंचे।
गनीमत तो यह है कि अर्जुन सिंह ने अभी तक मुंह नहीं खोला है। किन्तु जिस तरह से अर्जुन को बलि का बकरा बना कर राजीव को बचाने के संकेत मिल रहे हैं, अर्जुन सिंह का बयान पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व को कठघरे में खड़ा कर सकता है।
दिक्कत एक और भी है। क्वात्रोच्चि का मामला भी लगभग इसी प्रकार से अंजाम दिया गया था। सीबीआई की भूमिका क्वात्रोच्चि के मामले में भी संदिग्ध थी। न तो सीबीआई उसका प्रत्यर्पण करा सकी और ना ही विदेश में उसकी गिरफ्तारी के बाद भी उसे भारत ला सकी। बोफोर्स घोटाले में आज तक मुख्य अभियुक्त को न्यायालय से सजा नहीं मिल सकी । किन्तु जनता की अदालत में राजीव अपने-आप को निर्दोष साबित नहीं कर सके। जिस जनता ने उनकी जवानी और मासूमियत पर रीझ कर ऐतिहासिक बहुमत प्रदान किया था उसी ने उन्हें पटखनी देने में भी देर नहीं की।
कांग्रेस के रणनीतिकारों की चिन्ता है कि मामला अगर आगे बढ़ा तो राहुल बाबा का चेहरा संवारने में जो मशक्कत की जा रही है वह पल भर में ढ़ेर हो जायेगी। वे यह भी जानते हैं कि उनकी निपुणता कोटरी में रचे जाने वाले खेल में तो है लेकिन अपनी लोकसभा से चुनाव जीतने के लिये भी उन्हें गांधी खानदान के इस एकमात्र रोशन चिराग की जरूरत पड़ेगी। इसलिये हर आंधी से उसकी हिफाजत उनकी जिम्मेदारी ही नहीं धर्म भी है।
उल्लेखनीय है कि भोपाल गैस कांड जब हुआ तब राजीव को प्रधानमंत्री बने दो महीने भी नहीं हुए थे। उनकी मंडली में भी वे सभी लोग शामिल थे जो आज सोनिया और राहुल के खास नजदीकी और सलाहकार है। राजीव और सोनिया के रिश्ते या सरोकार अगर क्वात्रोच्चि या एंडरसन के साथ थे, अथवा संदेह का लाभ दें तो कह सकते हैं कि अदृश्य दवाब उन पर काम कर रहा था तो भी, उनके कैबिनेट के वे मंत्री जो इस देश की मिट्टी से जुड़े होने का दावा करते हैं, क्यों कुछ नहीं बोले ?
कारण साफ है। कांग्रेस में नेहरू-गांधी खानदान के इर्द-गिर्द मंडराने वाले राजनेताओं से खानदान के प्रति वफादारी की अपेक्षा है, उनकी सत्यनिष्ठा की नहीं। रीढ़विहीन यह राजनेता उस परजीवी की भांति ही व्यवहार करते हैं जिसका अपने-आप में कोई वजूद नहीं होता। दूसरे के रक्त से अपनी खुराक लेने वाले इन परजीवियों को रक्त चाहिये। यह रक्त राजीव का हो, सोनिया का हो, राहुल का हो या एंडरसन का ।
देश की दृष्टि से देखा जाय तो चाहे परदेसी हो या परजीवी, उसका काम सिर्फ खून चूसना है और अपना काम निकल जाने के बाद उसका पलट कर न देखना नितांत स्वाभाविक है। यही क्वात्रोच्चि ने किया, यही एंडरसन ने। जो क्वत्रोच्चि के हमदर्द थे, वही एंडरसन को भी सहारा दे रहे थे। जिनके चेहरे बेनकाब हो चुके हैं, उनकी चर्चा क्या करना। निर्णय तो यह किया जाना है कि इन परदेसियों और परजीवियों को कब तक देश के साथ छल करने की इजाजत दी जायेगी।
(लेखक : हिंदुस्थान समाचार के पूर्व सम्पादक हैं।)
मंगलवार, जून 08, 2010
'नेपाल' शब्द की व्युत्पत्ति
बालमुकुन्द पाण्डेय
प्राचीन ग्रन्थों में नेपाल शब्द नहीं मिलता। रामायण, महाभारत, वेद, ब्राह्मण, जातक, यहां तक कि जैन और बौद्ध ग्रन्थों में भी नेपाल का कहीं जिक्र नहीं आता है।
पूर्व में सम्पूर्ण भारत वर्ष विभिन्न रियासतों में बंटा था, उसी के अन्तर्गत वर्तमान नेपाली क्षेत्र भी 'बाइसी और चौबीसी' यानी 46 रियासतों में बंटा था, जिसमें अवध और मिथिला का क्षेत्र नहीं था।
लोक-कथाओं के आधार पर नेपाली जनता का दृढ़ विश्वास है कि वर्तमान काठमाण्डू ही प्रारम्भ में नेपाल के नाम से जाना जाता था। आज भी जब तराई से नेपाली काठमाण्डू जाता है, तो कहता है कि, 'नेपाल जा रहा हूं।'
नेपाली ग्रन्थों के आधार पर काठमाण्डू तथा आस-पास के हिमालय क्षेत्र को 'शिवक्षेत्र' कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा के पौत्र हरिष्ट नेमि को अपभ्रंश में 'नेमुनि' कहा जाता था। ऐसे नेमुनि दारा पालित शिवक्षेत्र को नेपाल कहा गया होगा।
एक दूसरे विचार के आधार पर, जो नेपाल में प्रचलित है कि घाटी जल से भरी हुई थी। वासुदेव श्रीकृष्ण ने घाटी के मुहाने को काटकर जल बाहर निकाल दिया और वहां गाय पालने वाला वंश स्थापित हुआ, जिसे कालांतर में गोपालवंश कहा गया। उसका अपभ्रंश गोपाल से नेपाल हो गया होगा।
एक अन्य जानकारी एवं लोक-कथाओं के आधार पर, माना जाता है कि पहाड़ी पर बकरियों और भेड़ों के बहुतायत के कारण वहां ऊन का कारोबार था। ऊन का कारोबार करने वाले को पाल कहा जाता है। इसके कारण भी वर्तमान काठमाण्डू का नाम नेपाल पड़ा होगा।
'काठमाण्डू'
जगद्गुरू शंकराचार्य के दारा सनातन धर्म के प्रसार एवं उत्थान के लिए किए गये प्रयास के क्रम में, शिवक्षेत्र नेपाल में पशुपतिनाथ की स्थापना की गयी थी। शिवपुराण के अनुसार, केदारनाथ से लेकर वर्तमान काठमाण्डू तक भगवान का एक ही विग्रह है, जिसका सिर काठमाण्डू में और पैर केदारनाथ में है। इसीलिए, द्वादश ज्योतिर्लिंगों के दर्शन के साथ पशुपतिनाथ का दर्शन, दर्शन की पूर्णता के लिए अनिवार्य किया गया।
पशुपतिनाथ की स्थापना के बाद मंदिर का निर्माण लकड़ियों के द्वारा हुआ। संस्कृत में लकड़ी को 'काष्ठ' कहते हैं। काष्ठ-मण्डपम् के अपभ्रंश से ही काठमाण्डू शब्द की व्युत्पत्ति हुई।
आज भी हनुमान ढोका, पाटन ढोका और पशुपतिनाथ मंदिर लकड़ी के उत्कृष्ट इमारतों के रुप में देखे जा सकते हैं। ढोका का अर्थ है दरवाजा।
(लेखक : अ.भा. इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय सह-संगठन मंत्री हैं)
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