सोमवार, सितंबर 06, 2010

‘भगवा आतंकवाद’ नहीं ‘हत्यावादी आतंकवाद’ कहिए चिदंबरम जी !

केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम यह बखूबी जानते थे कि ‘भगवा आतंकवाद’ संबंधी उनकी टिप्पणी पर भाजपा सहित देश के हिंदुत्वनिष्ठ संगठन जोरदार विरोध करेंगे। लेकिन इसको लेकर कांग्रेस भी उनके खिलाफ हो जाएगी, चिदंबरम को यह क़तई नहीं पता था, नहीं तो वे बोलकर खतरा मोल क्यों लेते।

चिदंबरम के बयान के बाद पूरी कांग्रेस पार्टी ही हरकत में आ गयी। पार्टी ने तत्काल ‘डैमेज कंट्रोल’ के तहत एक आधिकारिक बयान जारी किया और चिदंबरम की खिंचाई की। बेचारे चिदंबरम भी ‘भगवा आतंकवाद’ पर अपनी ही पार्टी का अपने खिलाफ रुख देखकर आश्चर्य में पड़ गए होंगे। एक क्षण उनको यह भी विश्वास नहीं हुआ होगा कि वास्तव में यह कांग्रेस का ही बयान है या फिर किसी और का।

बेचारे बोल तो दिए लेकिन अंदर ही अंदर पश्चाताप के सिवाय उनके पास और कोई चारा भी नहीं बचा था। अपना बयान वापस भी कैसे लेते। क्योंकि प्रधानमंत्री और कांग्रेस सुप्रीमो के निजी सलाहकारों सहित केंद्रीय मंत्रिपरिषद में चिदंबरम को नापसंद करने वालों की संख्या ज्यादा है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको चिदंबरम फूटी आंखों भी नहीं सुहाते। ऐसी स्थिति क्यों है, यह चिदंबरम और उनको नापसंद करने वालों के सिवाय और कौन ठीक से बता सकता है।

हालांकि चिदंबरम के बयान के बाद कांग्रेस पार्टी का रुख भी वोट के जोड़-घटाने के लिहाज से ठीक ही था। क्योंकि कांग्रेस पार्टी को देश के हर लोकतांत्रित संस्थानों में जितना वोट मिलता है, उसका करीब 80 प्रतिशत वोट हिंदुओं का होता है। यही जोड़-घटाना लगाकर कांग्रेस पार्टी ने गंभीर रुख अपना लिया। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस भगवा और भगवाधारियों का बड़ा सम्मान करती है। वह उसी का सम्मान करती है जिससे कि वोट मिले। यही नहीं कांग्रेस ने चिदंबरम सहित पार्टी के सभी नेताओं को सोच-समझकर शब्दों के इस्तेमाल करने और बोलने की नसीहत भी दे दी।

बेचारे चिदंबरम अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पढ़े-लिखे हैं, क्या जानते हैं कि यहां कि जमीनी हकीकत क्या है। मुड में आया और बोल दिए, बोल के फंस भी गए। यदि बयान वापस लेते तो पार्टी में उनके विरोधियों की प्रत्यक्ष जीत मानी जाती। अतः उन्होंने खंडन करते हुए कहा कि ‘भगवा आतंकवाद’ के प्रयोग से मैं जो संदेश देना चाहता था वो दे दिया है। बयान वापस लेने की बात अब कहां से आ जाती है।

भगवा और केसरिया
चिदंबरम ने यह बयान दिल्ली में आयोजित राज्य के पुलिस प्रमुखों की बैठक में दिया था। उन्होंने ‘सेफ्रन’ शब्द का प्रयोग किया था। सेफ्रन का मतलब होता है केसर या केसरिया। केसरिया और भगवा दोनों अलग-अलग शब्द हैं और दोनों का अर्थ भी अलग-अलग है। सेफ्रन को हिंदी में केसरिया कहा जाता है। लेकिन आप सेफ्रन को भगवा कैसे कह सकते हैं। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ (Religion) शब्द को हिंदी में ‘सम्प्रदाय’ न कहकर ‘धर्म’ कह दिया जाए। खैर, इन बातों से अंग्रेजी भाषा के शब्द-सामर्थ्य का ही पता चलता है। अंग्रेजी में न तो ‘भगवा’ के लिए कोई एक शब्द है और न ही ‘धर्म’ के लिए। लेकिन ये शब्द जब आ जाते हैं तो Saffron और Religion लिखकर काम चलाना पड़ता है। वैसे, Saffron शब्द प्रयोग करके चिदंबरम चाहे जो कुछ भी कहना चाह रहे हों, लेकिन इस शब्द का लोगों ने वही अर्थ लगाया जो लगाना चाहिए था। यानी लोगों ने एकदम सटीक अर्थ निकाला।

चिदंबरम से कुछ सवाल
वैसे चिदंबरम को इसी विवाद के बीच में इसका भी स्पष्टीकरण कर देना चाहिए कि सूर्य के उदय और अस्त होने के समय उदयाचल और अस्ताचल का रंग भी भगवा होता है। तो क्या यह मान लिया जाए कि आतंकी गतिविधियों के लिए सूर्य भी जिम्मेदार हैं, या सूर्य के उदयाचल और अस्ताचल के समय आतंकी गतिविधियों में वृद्धि हो जाती है?

भगवा/ केसरिया रंग तिरंगे में भी है और वह भी सबसे ऊपर। तो क्या यह कहा जाए कि तिरंगा राष्ट्रध्वज न होकर आतंकवाद का प्रतीक है?

केसरिया/ भगवा रंग को त्याग, शौर्य और वीरता का प्रतीक माना जाता है। यही मानकर राष्ट्रध्वज में स्थान भी दिया गया है। 1931 की करांची कांग्रेस अधिवेश में गठित सात सदस्यीय ‘झंडा समिति’ ने भगवा को ही राष्टध्वज के रूप में स्वीकार करने का सुझाव दिया था। उल्लेखनीय है कि इस झंडा समिति में सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरू, डॉ. पट्टाभि सीतारामैय्या, आचार्य काका कालेलकर, मौलाना आजाद, डॉ. ना.सु. हार्डीकर और सरदार तारासिंह; जैसे कांग्रेस के सात धुरंधर और देशभक्त नेता शामिल थे। तो क्या यह मानलिया जाए कि ये सभी महान नेता आतंकवादी थे? या उनको इस रंग को लेकर कोई भ्रम था?

दरअसल, आतंकवाद का कोई रंग नहीं होता। आतंकवाद का रंग न तो भगवा है और न ही लाल, नीला, पीला व काला इत्यादि। यह भी सत्य है कि आतंकवाद का कोई आकार नहीं होता, अर्थात वह निराकार है, तो निराकार वस्तु पर रंग कैसे चढ़ाओगे ? कैसे रंगोगे उसको ?

माननीय चिदंबरम जी!
जैसे लोकतंत्र निराकार है और साकार रूप उसकी पंचायतें हैं; यानी- लोकसभा, विधानसभा, जिला पंचायत, नगर पंचायत, क्षेत्र पंचायत, न्यायपंचायत, ग्राम पंचायत इत्यादि। उसी प्रकार आतंकवाद भी निराकार है और उसका साकार रूप है- रक्तपात, लाशें, तबाही का मंजर, स्वजनों के बिछुड़ने के गम में रोते-बिलखते और आंसू बहाते लोग, विस्फोट में ध्वस्त इमारतें, विस्फोट के परिणामस्वरूप जमीन में हुए गड्ढे इत्यादि। इसलिए चिदंबरम जी! ‘भगवा आतंकवाद’ की बजाए ‘हत्यावादी आतंकवाद’ कहना ही मानसिक संतुलन का प्रतीक कहा जाएगा।

यदि आपका इशारा उन आरोपियों की तरफ है जो 'भगवा' पहनते हैं और जिनके ऊपर देश में हुए कुछ विस्फोटों में संलिप्तता के आरोप हैं या मामले की जांच के बाद उन आरोपियों के खिलाफ न्यायालय में आरोपपत्र दायर हैं, तो क्या किसी के खिलाफ मात्र आरोपपत्र दायर होने से ही वह व्यक्ति दोषी हो जाता है? आरोपपत्र दायर होना और उन आरोपों का न्यायालय में सिद्ध हो जाना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। वह व्यक्ति तब तक दोषी नहीं माना जाएगा जब तक कि देश की आखिरी अदालत उसे दोषी न सिद्ध कर दे। वैसे आखिरी अदालत से मामले का फैसला आने दीजिए दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। न्यायालय का फैसला आने तक धैर्य रखने की आवश्यकता है।

लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि अंतिम अदालत से फैसला आने के पूर्व ही आरोपियों को दोषी मान लिया गया है। यह तो सरासर भारतीय संविधान का उल्लंघन है।

वैसे जो कुछ भी हो लेकिन भगवा प्रकरण के बाद कांग्रेस गंभीर मुद्रा में आ गई है। यह प्रकरण चौराहों और चायखाने की चर्चा का विषय बन चुका है। चर्चा तो यहां तक है कि चिदंबरम को गृह मंत्री पद से हटाए जाने के लिए कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी और राहुल गांधी गंभीरता से विचार कर रहे हैं। हालांकि इन अफवाहों की सत्यता क्या है, यह सोनिया और राहुल के सिवाय और कौन ठीक से बता सकता है। लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि चिदंबरम को लेकर कांग्रेस नेतृत्व सहज नहीं है।

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