रविवार, जून 20, 2010

लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रबल हिमायती थे जेपी

केंद्र में प्रथम गैर-कांग्रेसी सरकार के सूत्रधार लोकनायक जयप्रकाश नारायण किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। भारत और भारतीय जनता उनको ''भारत की दूसरी आजादी'' के जनक के रूप में देखती है। जयप्रकाश जी भारतीय समाजवाद के प्रथम पांक्ति के नेता थे।

यूँ तो समाजवाद का जन्म एवं विकास यूरोप में 19वीं शताब्दी में ही हो गया था लेकिन वर्षों बाद 20वीं शताब्दी में भारत में इसका आगमन हो पाया। भारत में इस विचारधार के प्रणेता आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य जे.बी. कृपलानी, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता तथा यूसुफ मेहर अली जैसे उच्चकोटि के नेता थे।

भारत में समाजवादियों का पहला अखिल भारतीय सम्मेलन 17 मई, 1934 को पटना में नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में हुआ था, जिसकी सफलता मे जयप्रकाश जी का बहुत बड़ा योगदान था।

महान चिन्तक और दूरद्रष्टा जयप्रकाश जी ने 1974 में भारतीय जनता को जगाकर इंदिरा गांधी की संभावित तानाशाही के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया था।

सन् 1974 में पटना की एक सभा में उन्होंने कहा था, ''आज हमारे देश की केन्द्रीय सत्ता के द्वारा जो माहौल बनाया जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि भारत की जनता इंदिरा गांधी की गलत नीतियों के खिलाफ विद्रोह कर देगी और लोकतान्त्रिक विकल्प के अभाव में सेना देश की सत्ता अपने हाथ में ले सकती है।''

एक सुटृढ़ एवं सचेत लोकतन्त्रवादी होने के नाते जयप्रकाश नारायण कभी नहीं चाहते थे कि सेना देश के भाग्य का फैसला करे, लेकिन उन्हें भय था कि विकल्प के अभाव में ऐसा हो सकता है।


उनका यह कथन तब सत्य प्रतीत होने लगा जब तत्कालीन राष्ट्रपति फरूखदीन अली अहमद ने 25 जून, 1975 की रात्रि 12:30 बजे आपातकाल की घोषणा की।

वास्तव में आपातकाल के रूप में कायम इंदिरा गांधी की तानाशाही भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास का एक काला अध्याय ही है।

स्वतंत्र भारत में कायम इस देशी तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश जी ने जैसा युद्ध छेड़ा यह अपने आप में अभूतपूर्व है। उसका लक्ष्य सम्पूर्ण क्रान्ति के तहत व्यवस्था परिवर्तन और समाज परिवर्तन करना था। लेकिन 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित जनता पार्टी की सरकार ने प्रबुद्धजनों एवं छात्र-छात्राओं के हित में जो कदम उठाने चाहिए, नहीं उठाए गए। इसलिए यह क्रान्ति अधूरी रह गयी।

इस देश में जो उथल-पुथल सन् 1974-75 में शुरू हुई और उसके जो राजनीतिक, सामाजिक परिणाम सन् 1977 में सामने आये, उनका असर दुनिया के तमाम छोटे बड़े मुल्कों पर बेशक पड़ा था।

विश्वभर के राजनेता और लोकनेता, राज्यशास्त्री और समाजशास्त्री, लोकतंत्र के पक्षधर और विरोधी तथा विभिन्न देशों में कायम तानाशाहियों के सूत्रधार और पैरोकार, दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्रिक देश की घटनाओं पर नजर लगाए बैठे थे और 1977 में हुए लोकसभा चुनाव संघर्ष के परिणामों का बेसब्री से इन्तजार कर रहे थे।

बताया जाता है कि वह ऐसा चुनाव था जिसमें नेता पीछे थे, जनता आगे थी। इस प्रकार उन्होनें देश का करिश्माई नेतृत्व देखा, इंदिराशाही का दौर देखा, युवा एवं छात्र-शक्ति का कमाल देखा और अन्त में भारत के प्रौढ़ मतदाताओं के मतदान का निर्णायक प्रभाव देखा।

वह एक अनूठा चुनाव था, जिसमें चुनाव की घोषणा के बाद भी आपात स्थिति लागू रही, केवल चुनाव प्रचार के लिए आपातकालीन प्रतिबन्धों में थोड़ा ढील दी जाती थी।

अगर इस चुनाव में कांग्रेस की जीत होती तो आपातकालीन तानाशाही एक लंबे अरसे तक कायम रह जाती। श्रीमती गाँधी को पूर्ण विश्वास था कि चुनाव में उनकी जीत होगी और उसके फलस्वरूप् एक दलीय व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में वे कदम बढ़ाती, इसमें सन्देह नहीं था। आपातकाल की घोषणा के पीछे उनकी यही मंशा थी।

उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश के शेख मुजीबुर्रहमान ने लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली को अध्यक्षीय लोकतन्त्र में बदलकर जब एक दलीय व्यवस्था कायम करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो इंदिरा जी ने शेख के इस कदम स्वागत किया था।


साढ़े तीन दशक पूर्व जब वे केनिया के दौरे पर गयीं थीं तो वहाँ भी उन्होंने कहा था, ''इस देश को मजबूत बनाने के लिए गरीबी का निराकरण और अशिक्षा का उन्मूलन करना जरूरी है। इसके लिए बेहतर होगा कि विपक्षी दल न रहे।'' तभी से एकदलीय व्यवस्था के तहत तानाशाह बनने की आकांक्षा इंदिरा जी के मन में पल रही थी, जिसका प्रस्फुटन 25 जून, 1975 को हुआ।

जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी की गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे। अत: उन्होंने 1974 में छात्र एवं युवाओं को जगाया, उनको संघर्ष के लिए ललकारा। जयप्रकाश जी को जबाब देने के लिए श्रीमती गांधी ने आपातकाल लगाया, लेकिन 1977 के ऐतिहासिक चुनाव परिणामों ने उनकी अधिनायकवादी आकाक्षांओ पर पानी फेर दिया।

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