शुक्रवार, नवंबर 16, 2012

शाखा ही संघ की मूल शक्ति (भाग 3)

पवन कुमार अरविंद
 
यह मृत्यु लोक है। यहां आत्मा और कीर्ति को छोड़कर कुछ भी अमर नहीं है। यदि आप अच्छा कार्य करते हैं तो मृत्यु के बाद भी आमजन के अन्तस में विराजमान रहेंगे। मृत्यु लोक का स्वभाव है अंत। इसलिए मनुष्य का जीवन निश्चित है। इसी प्रकार थलचर, नभचर व जलचरों सहित सभी प्राणियों का जीवन भी निश्चित है। लेकिन राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठनों का जीवन निश्चित नहीं होता है। उनका जीवन उनके विचारों और कार्य व्यवहारों पर निर्भर करता है। जिसको आधार मानकर जनता उनके प्रति अपना समर्थन और विश्वास व्यक्त करती रहती है। लेकिन इसके लिए परिवर्तन और समय व समाज के अनुसार स्वयं का समायोजन आवश्यक होता है। ऐसा करते हुए कोई भी संगठन अपना अस्तित्व दीर्घकाल तक बनाए रख सकता है।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई थी। कुछ लोगों का अनुमान है कि 2025 तक अपनी स्थापना के 100 वर्ष पूरा करते-करते संघ का अंतिम संस्कार निश्चित है। लेकिन ऐसा अनुमान महज बकवास के सिवाय और कुछ भी नहीं है। इस अनुमान के विपरीत संघ 2025 के बाद भी अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है लेकिन इसके लिए उसको अपनी कार्य पद्धति और कार्य व्यवहार पर गहन चिंतन करते हुए समय के अनुसार परिवर्तन और समायोजन के लिए तैयार रहना होगा। कुछ लोग यह भी अनुमान लगा रहे हैं कि संघ स्वयं समाप्त हो जाएगा लेकिन उसके विविध क्षेत्रों में कार्यरत संगठन प्रभावी रूप से जीवित रहेंगे। लेकिन ऐसा विचार जल के सतह पर उठे बुलबुल के समान है जो पलक झपकते ही फूट जाता है। 

संघ एक वैचारिक संगठन है। इस कारण उसकी एक विचारधारा है। विचार आत्मा के समान है और धारा शरीर के। शरीर का अंत निश्चित है लेकिन (श्रीमद्भग्वद्गीता के अनुसार) आत्मा अजन्मा, अविनाशी और सनातन है। संघ नहीं रहेगा तब भी उसके विचार विद्यामान रहेंगे। हालांकि संघ के रहने और न रहने का कोई सवाल ही नहीं है, बल्कि सवाल यह है कि यदि किसी प्रभावी संगठन का प्रभाव नगण्य हो जाए तो यह एक प्रकार से निधन के ही समान कहा जाएगा। निधन एक बात है और पतन दूसरी। दोनों में जमीन-आसमान से अधिक का अंतर है। निधन के बाद किसी व्यक्ति या संगठन का न तो उद्भव हो सकता है और न ही पराभव। क्योंकि निधन के कारण सारी संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। लेकन पतन की राह पर अग्रसर व्यक्ति अपने अंदर सकारात्मक परिवर्तन लाकर उत्थान या उद्भव की तरफ कदम बढ़ा सकता है।
 
संघ में अभी बहुत श्वांस शेष है। सके बावजूद संघ कमजोर हुआ है। संघ कार्य अब केवल बौद्धिक-भाषण तक ही सीमित हो गया है। वर्तमान संघ कार्य की प्रक्रिया में भोजन-बैठक तो है लेकिन विश्राम नदारद है। पहले कार्य होता था तो विश्राम की आवश्यकता पड़ती थी, लेकिन अब केवल विश्राम ही विश्राम है। इन बातों को तर्कों के तीर चलाकर काटा जा सकता है, लेकिन ऐसा करना वास्तविकता से मुख मोड़ना होगा। संघ में बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन चिंता और चिंतन की बात यह है कि इसकी कार्यपद्धति को आम युवा पसंद क्यों नहीं करते ? इस नापसंदगी के पीछे भी बहुत बड़ा कारण है। आप 87 वर्ष से एक ही लकीर पीटते चले आ रहे हैं। लकीर का फकीर बनने वाले न तो कोई नई लकीर खींच सकते हैं और न देश व समाज को को नई दिशा ही दे सकते हैं। दिशा देने के लिए स्वयं की दशा बदलनी पड़ती है, और स्वयं में बदलाव कई प्रकार के मार्ग खोलता है। संघ का जीवित और प्रभावी रहना देश व समाज हित में जरूरी है।

मंगलवार, नवंबर 06, 2012

शाखा ही संघ की मूल शक्ति (भाग 2)

पवन कुमार अरविंद

किसी व्यक्ति में संगठन के तत्व समाहित हो सकते हैं और संगठन कार्यों में तल्लीन होकर व्यक्ति स्वयं को विलीन कर सकता है, लेकिन व्यक्ति ही संगठन नहीं होता, व्यक्तियों से संगठन बनता है। किसी एक आदमी को ही पूरा संगठन कैसे मानलिया जाए ? यह ठीक उसी प्रकार अनुचित है जैसे यह कहा जाए कि अमुक व्यक्ति के नहीं रहने पर संगठन का अस्तित्व ही शून्य हो जाएगा।

नितिन गडकरी को भाजपा नहीं कहा जा सकता और न ही भाजपा को नितिन गडकरी। भाजपा संगठन को चलाने के लिए एक व्यवस्था के तहत गडकरी को अध्यक्ष पद पर बैठाया गया है। अध्यक्ष का पद स्थायी है और उस पर बैठने वाला अस्थायी। कभी अटल बिहारी वाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, कुशाभाऊ ठाकरे, के. जनाकृष्ण मूर्ति, एम. वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह अध्यक्ष हुए, तो आज गडकरी इस पद पर विराजमान हैं। यह परिवर्तन का क्रम चलता रहेगा।
गडकरी पर भ्रष्टाचार के कथित आरोप लग रहे हैं। इन आरोपों के लिए पूरी भाजपा को उत्तरदायी कैसे कहा जा सकता है ? मानलीजिए आरएसएस प्रमुख डॉ. मोहनराव मधुकर भागवत ने विशेष रूचि लेते हुए गडकरी को भाजपा का अध्यक्ष बनवा ही दिया तो इस कारण से समूचे संघ पर प्रश्नवाचक कैसे लगाया जा सकता है ? लेकिन इसके बावजूद नेतृत्व की सोच, आचार-विचार और कार्य व्यवहार कहीं न कहीं संगठन के कार्यकर्ताओं के मन-मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं, जिससे पूरा संगठन प्रभावित होता है। एक-एक कार्यकर्ता के आचरण से ही संगठन की छवि निर्मित होती है। इस छवि को संरक्षित रखते हुए उत्तरोत्तर निखारने का प्रयास करना नेतृत्व का काम है। लेकिन इसके लिए नेतृत्व को अनुभवी, समझशील और विवेकशील होना चाहिए। साथ ही उसमें स्वयं को सुधारते हुए संगठन कार्यों को गति देने की क्षमता भी होनी चाहिए।

समाज सेवा और राजनीति में किसान जैसा धैर्य चाहिए, तो लोहा गर्म रहते उस पर चोट करने का स्वभाव भी जरूरी है। बंदर स्वभाव का किसान अपने ही बोए आम के फल का स्वाद कभी नहीं चख सकता। सार्वजनिक जीवन में कभी-कभी ऐसी स्थितियां भी आती हैं जब केवल पद से चिपके रहने भर से ही व्यक्ति की महत्ता नहीं बढ़ती बल्कि पद छोड़ने के बाद भी व्यक्ति की महत्ता बढ़ जाया करती है। यदि गडकरी अपने ऊपर लग रहे कथित आरोपों के तत्काल बाद भाजपा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिए होते तो सार्वजनिक जीवन में वह और बड़ा नेता बनकर उभरते। ऐसी स्थिति में उनके समक्ष पार्टी के द्वितीय पंक्ति के सारे नेतागण कहीं नहीं ठहरते। लेकिन उन्होंने अपनी व्यवसायी बुद्धि लगाकर पद का मोह किया और स्वयं को छोटा बनाए रखा। हालांकि गडकरी को पद छोड़ने के लिए नैतिकता की प्रेरणा लेने के लिए बहुत दूर जाने की आवश्यकता नहीं थी। संघ और भाजपा में अगणित ऐसे लोग हैं जो नैतिकता के धुरंधरकहे जा सकते हैं। पार्टी के वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जैन हवाला मामले में अपना नाम आने के तत्काल बाद संसद की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था, और दोषमुक्त होने तक चुनाव न लड़ने की घोषणा की थी। खैर, गडकरी यदि अब इस्तीफा देते भी हैं तो उसका लाभ न तो संगठन को मिलेगा और न ही उनको। बीएस येदियुरप्पा के मसले पर कानून और नैतिकता की चर्चा करके उनका बचाव करने वाले गडकरी खुद नैतिकता के मसले पर पिछड़ गये हैं। समय की गाड़ी छूट चुकी है।

गडकरी ने एक और बड़ी गलती दिसंबर 2009 में भाजपा अध्यक्ष पद संभालने के तत्काल बाद की थी। अध्यक्ष पद संभालते ही वह स्वयं की बजाए दूसरों को ही ठीक करने के काम में जुट गए। स्पष्ट है कि जब आप ऐसा कहने लगते हैं कि मैं सबको ठीक कर दूंगा, तो आपके इस बयान पर अन्य लोग क्या सोचेंगे। परिणामत: वे लोग दबी जुबान में आपके विरोधी हो जाएंगे। पार्टी संगठन को ठीक करने का कार्य स्वयं में परिवर्तन लाते हुए मौन रहकर भी किया जा सकता है। लेकिन गडकरी यहीं विफल हो गये। वह अपने को ठीक करने की बजाए दूसरों को ही ठीक करने के काम में जुट गये। व्यक्ति के इस प्रकार के आचरण को सद्गुण विकृति कह सकते हैं, साथ ही ईमानदारी का अहंकार भी। शायद डॉ. भागवत चयन में यहीं चूक गये। चूकें भी क्यों न, जब कोई निर्णय आमसहमति और आपसी विश्वास को बनाए रखते हुए होता हो तो वह दूरगामी प्रभाव छोड़ता है, लेकिन दिन-प्रतिदिन कमजोर हो रहे संघ के नये नेतृत्व ने भाजपा पर अपना प्रभाव जमाने के मद्देनजर यह निर्णय किया, इसलिए चूक होना अवश्यंभावी ही था। यह चूक इसलिए भी हुई क्योंकि संघ स्वयं को न ठीक करते हुए भाजपा को ही ठीक करने के काम में जुट गया।

संघ का मूल कार्य व्यक्ति निर्माण है। इसके लिए दैनंदिनी लगने वाली शाखाओं को माध्यम माना गया है। किसी क्षेत्र में लगने वाली शाखाओं की संख्या जितनी बढ़ती है तो कहा जाता है कि उस क्षेत्र में संघ मजबूत हो रहा है। लेकिन आज किसी क्षेत्र विशेष में ही नहीं बल्कि देश भर में शाखाएं कहीं नहीं लग रही हैं और यदि लग भी रही हैं तो उसका प्रभाव नगण्य है। आज शाखाएं युवाओं को आकर्षित नहीं करतीं, उलटे अरूचि ही उत्पन्न करती हैं। इस कारण संघ समाज को प्रभावित नहीं कर रहा बल्कि स्वयं प्रभावित होता जा रहा है। देश भर में शाखा कार्य के लिए संघ के करीब 2355 प्रचारक हैं। इन प्रचारकों के पूर्णकालिक प्रयास के बाद भी शाखाओं में संख्या नहीं होती। संघ को अपनी शाखाएं बढ़ाने और उसको प्रभावी बनाने की ज्यादा चिंता करनी चाहिए। तभी संघ मजबूत होगा और मजबूत संघ के आगे भाजपा सदैव नतमस्तक रहेगी, उसको नियंत्रण में रखने के लिए कोई अन्य प्रयास की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। लेकिन यह न करके शार्ट कट का रास्ता अपनाया जा रहा है। (जारी...)  

शुक्रवार, नवंबर 02, 2012

शाखा ही संघ की मूल शक्ति (भाग एक)

पवन कुमार अरविंद

भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी वर्ष 2009 में महाराष्ट्र की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर अचानक आ धमके। गडकरी के इस अस्वाभाविक और अत्यंत तीव्र विकास के पीछे राजनीतिक हलकों में आरएसएस प्रमुख डॉ. मोहनराव मधुकर भागवत का आशीर्वाद बताया जाता है। ये बातें गडकरी की कंपनियों पर लग रहे भ्रष्टाचार के कथित मामलों से साफ भी हो गया है, क्योंकि भ्रष्टाचार के इन कथित मामलों के कारण गडकरी से ज्यादा चिंतित डॉ. भागवत और आरएसएस खेमा दिख रहा है। डॉ. भागवत की भाजपा में विशेष रूचि के कारण पूरे संघ परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर है। गडकरी की कंपनियों में घोटाला हुआ है या नहीं, यह बाद की बात है और जांच की बात है। लेकिन भ्रष्टाचार के लपेटे में गडकरी के आने से पूरा संघ निरुत्तर है। क्योंकि गडकरी परमपूज्यकी परम पसंदहैं।

संघ के सरसंघचालक का पद उससे जुड़े सभी संगठनों के लिए मार्गदर्शक का होता है। संघ से जुड़े विविध संगठनों की संख्या 60 से भी ज्यादा है। ये संगठन समाज के विभिन्न क्षेत्रों व वर्गों का संगठन करते हैं। जैसे- छात्रों के बीच कार्य करने वाली अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वकीलों का संगठन करने वाली अधिवक्ता परिषद, किसानों के क्षेत्र में सक्रिय भारतीय किसान संघ, मजदूरों के क्षेत्र में सक्रिय भारतीय मजदूर संघ, वनवासी व गिरिवासी क्षेत्रों में सक्रिय वनवासी कल्याण आश्रम, हिंदू जागरण मंच, भारत विकास परिषद, विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय सेविका समिति और राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करने वाली भारतीय जनता पार्टी सहित आदि संगठन हैं। इन संगठनों के कार्यकर्ताओं के लिए सरसंघचालक का पद पूजनीय माना जाता है। यहां तक कि सरसंघचालक का आदेश सभी संगठनों के लिए अंतिम है।

डॉ. भागवत संघ के छठें सरसंघचालक हैं। इसके पहले संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी, बाला साहब देवरस, प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जूभैया, कुप्पहल्ली सीतारामैया सुदर्शन जैसे महान व्यक्तित्व इस पद को सुशोभित कर चुके हैं। प्रथम सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार ने 1925 में संघ की स्थापना की थी और इस पद पर वह 1939 तक रहे। उसके बाद गुरूजी वर्ष 1939 से 1973 तक इस पद पर रहे। गुरूजी के कार्यकाल में 21 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ की स्थापनी हुई थी। गुरूजी प्रकाण्ड विद्वान थे, साथ ही सिद्ध पुरुष भी माने जाते थे। इस कारण वे राजनीति की काली कोठरी की कालिमा को जानते थे। वे राजनीतिक दल बनाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन सहयोगियों के आग्रह पर आधेमन से भारतीय जनसंघ की स्थापना के लिए तैयार हुए और संघ के कुछ पूर्णकालिक कर्यकर्ताओं को जनसंघ के कार्य के लिए भेजा। इसके बावजूद गुरूजी संघ कार्यकर्ताओं को अपने त्यागमयी व्यक्तित्व से राजनीति से आवश्यक दूरी बनाकर चलने के लिए प्रेरित करते रहे। हालांकि वे राजनीति के विरोधी नहीं थे लेकिन संघ के सांगठनिक कार्यों में राजनीति के घालमेल के सर्वथा खिलाफ थे। 
तीसरे सरसंघचालक बालासाहब देवरस भी गुरूजी के ही रास्ते पर चले। उनका जीवन गुरूजी की ही तरह निर्विवाद रहा। चौथे सरसंघचालक के रूप में रज्जूभैया भाजपा के काफी निकट आये लेकिन उन्होंने भी अपनी मर्यादा और गरिमा को बनाए रखा। इसके बाद प्रकांड विद्वान सुदर्शन वर्ष 2000 में संघ के पांचवे सरसंघचालक बने। उन्हीं के साथ डॉ. भागवत सरकार्यवाह के पद पर चुने गये थे। हालांकि बतौर सरसंघचालक सुदर्शन का कार्यकाल बहुत उतार-चढ़ाव भरा रहा। उन्होंने भाजपा के राजनीतिक मामलों में काफी रूचि भी ली, इसके बाजवजूद उन्होंने अपने पद की गरिमा और महिमा को बरकरार रखा। लेकिन मार्च 2009 में सरसंघचालक बने डॉ. भागवत ने अपनी स्थापित छवि के विपरीत भाजपा के राजनीतिक मामलों में अप्रत्यक्ष रूप से जोरदार रूचि लेनी शुरू कर दी।

आज गडकरी पर आरोप लग रहे हैं तो इसी कारण संघ चिंतित नजर आ रहा है। हालांकि सोनिया गांधी के दामाद राबर्ड वाड्रा पर आरोप लगने के बाद हरियाणा की कांग्रेस सरकार ने उनको पाक साफ करार दिया है। केंद्र सरकार भी वाड्रा के खिलाफ किसी भी जांच को तैयार नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अरविंद केजरीवाल की प्रेस कान्फ्रेंस के बाद कुछ मीडिया रिपोर्टों में गडकरी के खिलाफ कथित मामलों की चर्चा को सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम आदेश सरीखा मानलिया गया है। समाज के कुछ लोगों, राजनीतिक दलों और मीडिया का ऐसा रवैया सरासर अनुचित है। यहां तक कि गडकरी अपने खिलाफ लगे आरोपों की किसी भी जांच के लिए तैयार हैं। लेकिन वाड्रा जांच से घबरा रहे हैं और बिना जांच के ही अपने को पाक साफ साबित करने में जुटे हुए हैं। वाड्रा और गडकरी के खिलाफ लगे कथित आरोपों में कितना दम है और कितनी सच्चाई, यह जांच का विषय है। लेकिन बिना जांच के ही दोनों को अपराधी मान लेना अनुचित ही कहा जाएगा। संघ भी यही बात कह रहा है। लेकिन संघ यह बात डॉ. भागवत से गडकरी की निकटता के कारण कह रहा है। यह अत्यंत निकटता ही संघ की छवि धूमिल कर रही है। साथ ही संघ के निष्ठावान व त्यागमयी जीवन जीने वाले कार्यकर्ताओं को कई बातें सोचने पर भी मजबूर कर रही हैं। कार्यकर्ताओं की यह सोच ही संगठन के उद्भव या पराभव का मार्ग प्रशस्त करती है। (जारी….)

मंगलवार, अक्तूबर 23, 2012

भाजपा का कितना ‘कल्याण’ करेंगे कल्याण

पवन कुमार अरविंद 

बात 1999 की है, जब कल्याण सिंह और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के बीच वाक्-युद्ध शुरू होने के बाद राजनीतिक हलकों में उनके भाजपा छोड़ने की चर्चाएं गर्म थी। इसी बीच लखनऊ में पार्टी छोड़ने से संबधित एक पत्रकार के सवाल पर कल्याण ने उसकी बात का खंडन करते हुए तपाक से कहा था- “मैं भाजपा का निष्ठावान कार्यकर्ता हूं। अंत्येष्टि के समय मेरा शव केसरिया में लपेटकर ही मरघट जाएगा।” 

हालांकि इस बयान के कुछ ही दिनों बाद उन्होंने दिसंबर 1999 में भाजपा के लिए कब्र खोदने के संकल्प के साथ पार्टी छोड़ दी थी। इसके बाद की जनसभा और संवाददाता सम्मेलनों में उन्होंने भाजपा को पानी पी-पी कर खूब कोसा था, और उसको मरा सांप भी करार दिया था। यहां तक कि कल्याण सिंह को ‘कल्याण’ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी उन्होंने खूब खरी-खोटी सुनाई थी। कल्याण मई 2004 में होने वाले लोकसभा चुनाव के चार माह पहले यानी जनवरी में फिर भाजपा में शामिल हो गये थे। उनकी वापसी के पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की इच्छा और पार्टी के कद्दावर नेता स्वर्गीय प्रमोद महाजन के विशेष प्रयास ने अहम भूमिका निभाई। वापसी के बाद भाजपा ने उनको पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था। जिसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर संसदीय क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर चुनाव भी लड़ा और विजयी हुए। लेकिन जनवरी 2009 में उन्होंने भाजपा में अपनी उपेक्षा का आरोप लगाते हुए फिर पार्टी छोड़ दी थी। दरअसल, कल्याण 2009 के लोकसभा चुनाव में अपने कुछ समर्थकों को पार्टी का टिकट दिलाना चाहते थे, लेकिन तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनकी बात नहीं मानी। इसके बाद कल्याण ने मई 2009 में हुए लोकसभा के चुनाव में सपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उत्तर प्रदेश के एटा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विजयी हुए। राममंदिर आंदोलन के प्रमुख नेताओं में शुमार कल्याण ने हिंदुओं के बीच “कारसेवक गोली कांड” के मुख्य कसूरवार माने जाने वाले मुलायम सिंह के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा की लाल टोपी धारण कर उसके पक्ष में घूम-घूमकर प्रचार भी किया था। लेकिन चुनाव में सपा को कम सीटें मिलने के बाद मुलायम सिंह ने कल्याण से दूरी बना ली थी। 

पहली बार भाजपा छोड़ने के बाद कल्याण ने राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया, लेकिन 2002 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मात्र 4 सीटें ही मिल सकी थी। वहीं दूसरी बार भाजपा छोड़ने के बाद जनक्रांति पार्टी बनाई, लेकिन मार्च 2012 के विधानसभा चुनाव में उनको एक सीट भी मयस्सर नहीं हुई। इस विधानसभा चुनाव के परिणामों ने कल्याण को काफी हताश-निराश कर दिया था। जिसके बाद से ही कल्याण राजनीतिक फलक पर कहीं गुम से हो गये थे, और मौन रहकर फिर किसी नये ठिकाने की तलाश में थे। कहा जाता है कि नेपथ्य में जाने के बाद हर व्यक्ति को अपने जीवन के ‘शिखर दिनों की तालियां’ सदैव गूंजती हैं। इन तालियां की गड़गड़ाहट ने कल्याण को और बेचैन कर दिया था। जिसके बाद से ही वह फिर किसी बड़ी भूमिका की तलाश में थे। लेकिन सोच विचार में प्रश्न यहां आकर अटका कि जायें तो जायें कहां। हालांकि अपनी स्थिति को सजाने-संवारने में जुटी भाजपा भी कल्याण के स्वागत के लिए पलक-पांवड़े बिछाकर पहले से ही प्रतीक्षारत थी। कहा जाता है कि डूबते को तिनके का सहारा चाहिए, यह कथन भाजपा और कल्याण; दोनों पर समान रूप से लागू हो रहा है। 

हालांकि कल्याण की वापसी से भाजपा को कितना नफा-नुकसान होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन सतही अनुमान के मुताबिक, उनके आगमन से पार्टी को 3 से 3.5 फीसदी मतों का लाभ मिल सकता है। साथ ही कल्याण के भाजपा में शामिल होने से एक धुरंधर नेता का विरोध भी पार्टी को नहीं झेलना पड़ेगा, जो पार्टी के पक्ष में माहौल को ठीक करने का ही कार्य करेगा। कुल मिलाकर कल्याण के शामिल होने से न भाजपा का घाटा है और न ही कल्याण का। फायदा दोनों को है क्योंकि दोनों को दोनों की तलाश थी। भाजपा में दूसरी बार शामिल होने जा रहे कल्याण सिंह पार्टी में कितने दिनों तक टिकेंगे, यह कहना कठिन है। लेकिन राजनीति के धुरंधर कल्याण यह बखूबी समझते हैं।

मंगलवार, अगस्त 07, 2012

लिखित मजमून पर भी भ्रमित कर रहा मीडिया

पवन कुमार अरविंद

भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के हालिया ब्लाग पर जमकर हो-हल्ला मचा। कहते हैं कि “सुनी-सुनाई” बातों का गलत अर्थ निकालना कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, लेकिन “लिखा-पढ़ी” की बातों को भी अर्थ का अनर्थ कर देना; किसी प्रकार से क्षम्य नहीं कहा जा सकता। कहते हैं कि झूठ के पांव नहीं होते, पर झूठ का मुंह जरूर होता है। आडवाणी के ब्लॉग के संदर्भ में जो बातें उनके मुंह में डालकर मीडिया प्रस्तुत कर रहा है, वह वस्तुतः संप्रग सरकार के दो बड़े मंत्रियों द्वारा कही गयी हैं। मीडिया ने आडवाणी की बातों का गलत अर्थ निकालकर जनता के विश्वास का एक बार फिर भंजन किया है। सवाल यह है कि जो बातें सीधे-सीधे सरल रूप में समझ में आ जाती हों, उसको घुमा-फिराकर बात का बतंगड़ बना देने की क्या आवश्यकता है। हालांकि इस प्रकार की घटनाओं-दुर्घटनाओं के लिए कुछ कथित मीडियाकर्मी ही जिम्मेदार रहते हैं, लेकिन इसको लेकर समूची मीडिया पर अविश्वास का संकट पैदा होता है। दरअसल, 23 जुलाई को प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने निवर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के सम्मान में दिल्ली स्थित हैदराबाद हाउस में रात्रिभोज का आयोजन किया था। इस भोज में देश के करीब सभी राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं ने शिरकत की। भोज शुरू होने से पहले संप्रग सरकार के दो वरिष्ठ मंत्री अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। इस दौरान लालकृष्ण आडवाणी भी मौजूद थे। ये दोनों मंत्री आगामी आम चुनावों के बाद की स्थितियों की चर्चा करते हुए अपने भविष्य का आकलन कर रहे थे। इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों की चिंता थी कि 16वीं लोकसभा के चुनावों में न तो क्रांग्रेस और न ही भाजपा ऐसा कोई गठबंधन बना पाने में सफल होंगे, जिसका लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हो। इसलिए सन् 2013 या 2014 में, जब भी लोकसभा चुनाव होंगे,,संभवतया जिस ढंग की सरकार बनेगी वह तीसरे मोर्चे जैसी हो सकती है। कांग्रेसी मंत्रियों के मुताबिक यह न केवल भारतीय राजनीति की स्थिरता अपितु राष्ट्रीय हितों के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक होगी। उक्त बातें दोनों मंत्रियो ने आपस में की थी। इस संदर्भ में आडवाणी ने अपने ब्लाग में लिखा है- मैंने दोनों मंत्रियों के दिमाग में उमड़ रही इन चिंताओं को महसूस किया। इस बात पर मेरी प्रतिक्रिया थी- मैं आपकी चिंता को समझता हूं, मगर उससे सहमत नहीं हूं। इस मुद्दे पर मेरे अपने विचार हैं- पिछले ढाई दशकों में राष्ट्रीय राजनीति का जो स्वरूप बना है उसमें यह प्रत्यक्षत: असंभव है कि नई दिल्ली में कोई ऐसी सरकार बन पाए जिसे या तो कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन न हो। इसलिए तीसरे मोर्चे की सरकार की कोई संभावना नहीं है। हालांकि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार जिसे इन दोनों प्रमुख दलों में से किसी एक का समर्थन हो, बनना संभव है। ऐसा अतीत में भी हो चुका है। लेकिन, चौ. चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकारें और वीपी सिंह सरकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऐसी सरकारें ज्यादा नहीं टिक पातीं। केंद्र में तभी स्थायित्व रहा है जब सरकार का प्रधानमंत्री या तो कांग्रेस का हो या भाजपा का। दुर्भाग्यवश, 2004 से यूपीए-1 और यूपीए-2, दोनों सरकारें इतने खराब ढंग चल रहीं हैं कि सत्ता प्रतिष्ठान में घुमड़ रहीं वर्तमान चिंताओं को सहजता से समझा जा सकता है। सामान्यतया लोग मानते हैं कि लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का सर्वाधिक खराब चरण आपातकाल के पश्चात् 1977 के चुनावों में था। लेकिन इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आगामी लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का हाल 1952 से अब तक के इतिहास में सर्वाधिक खराब रहे। यह पहली बार होगा कि कांग्रेस पार्टी का स्कोर मात्र दो अंकों तक सिमट कर रह जाएगा, यानी कि सौ से भी कम! तो यह था आडवाणी के ब्लाग कां अंश, लेकिन मीडिया ने तो न जाने क्या-क्या अर्थ लगा लिया। जो घोर निराशाजनक है।

शनिवार, जुलाई 14, 2012

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय.....

दारा सिंह से मैं वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास पर मिला था। उस समय वह राज्यसभा के सदस्य थे। वह एक अद्भूत व्यक्ति थे। 12 जुलाई 2012 को प्रात: काल उनके निधन की खबर का मेसेज मेरे मोबाईल पर प्राप्त हुआ था, मैं कुछ देर तक आवाक् रह गया, और सहसा ही उनसे मुलाकात के लमहों में खो गया था। वह वास्तव में एक विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनमें राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने मुछे उस दौरान बताया था कि रामायण सीरियल में हनुमान की भूमिका ने उनके जीवन में बहुत परिवर्तन लाया। उनका कहना था, “मुझे उस समय कठिनाई होती थी जब लोग मुझे वास्तविक जीवन में भी हनुमान मानकर मेरे पैर छूते थे। लेकिन मैं कर भी क्या कर सकता था, सिवाय उन्हें रोकने के, लेकिन फिर भी लोग नहीं मानते थे।” रामायण के कुछ दृश्यों की चर्चा पर वह ठहाका मारकर हंसने लगते थे। उनसे मुलाकात के आधा घंटे का वह समय बातों ही बातों में कैसे बीत गया था, पता ही नहीं चला। जब मैं उनसे विदा लेने लगा तो मैंने उनसे कहा था कि दादा मैं फिर आपसे मिलूंगा, तो उन्होंने कहा था कि मिलना भी क्या है तुम पवन हो और मैं ‘हनुमान’। तुम भी हर जगह, मैं भी हर जगह। बालीवुड की कई फिल्मों में किरदार अदा करने के बाद उनकी प्रसिद्धि उस समय और व्यापक हो गयी जब उन्होंने रामानंद सागर द्वारा निर्देशित टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमान का किरदार निभाया। उसी दौर से वे भारतीय जनमानस पर छा गये थे और हम जैसे ग्रामीण परिवेश के लोगों का ध्यान भी अपनी ओर आकृष्ट करने में सफलता हासिल की थी। सचमुच वे अद्भुत थे। ...................... प्रभु उनकी आत्मा को शांति दें, यही विनती है।

शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012

किस ‘गणित’ का उत्सव?

प्रो. चंद्रकांत राजू

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2012 को ‘राष्ट्रीय मैथमेटिक्स वर्ष’ घोषित किया है। इसमें एक ऐसी गंभीर विडंबना छुपी है, जो सभी को जाननी चाहिए। इसे समझने के लिए पहले थोड़ा इतिहास में झांककर देखते हैं। यूरोप ने सामान्य गणित भारत से ही सीखा।

इससे पहले यूरोपीय आदिम अंकगणक (अबाकस) का प्रयोग करते थे। भारतीय गणित अपनी दक्षता के लिए विश्व प्रसिद्ध था। यहां से वह बगदाद गया, जहां अल ख्वारिज्मी ने नौवीं सदी में ‘हिसाब अल हिंद’ नामक किताब लिखी, जो अल ख्वारिज्मी के लातिनी नाम अल्गोरिस्मस से प्रसिद्ध हुई। फ्लोरेंस के व्यापारियों ने झट समझा कि बेहतर गणित से लेन-देन में फायदा है। उन्होंने अल्गोरिस्मस सीखा और अबाकस ठुकराया।

यूरोपीय कैलेंडर यूरोपियनों के गणित के अज्ञान की कहानी बताता है। चंद्र और सौर चक्र दोनों ही आंशिक दिनों में पूरे होते हैं, लेकिन यूरोपीय स्फुट भिन्न नहीं जानते थे। वे माह को चंद्र चक्र के साथ न जोड़ सके। इसके बजाय रोमन तानाशाहों की स्तुति के लिए जुलाई और अगस्त का नाम जूलियस और ऑगस्तस के नाम पर किया और उनके सम्मान में उन महीनों में एक-एक दिन और जोड़ दिए। यह दो दिन फरवरी से चुराए गए।

परिणाम एक पूरी तरह से अवैज्ञानिक कैलेंडर है, जिसमें महीने कभी 28, 29 या फिर 30 अथवा 31 दिनों के होते हैं। इसी कैलेंडर को पश्चिम ने अपना धार्मिक कैलेंडर बनाया, लेकिन भारत में तीसरी सदी के सूर्य सिद्धांत और पांचवीं सदी के आर्यभट दोनों ने (नाक्षत्र) वर्ष की कहीं अधिक सटीक अवधि दी है।राजसत्ता हाथ में होने के कारण रोमन साम्राज्य की किताबों तक पूरी पहुंच थी, लेकिन इसके बावजूद वे अपने कैलेंडर में सुधार नहीं कर पाए।

इन असफलताओं से साबित होता है कि दरअसल उनके पास खगोल विज्ञान की कोई अच्छी किताबें थीं ही नहीं। अरबी अल्माजेस्ट एक संवर्धनशील किताब है, लेकिन पश्चिमी इतिहासकार उसका एकमात्र लेखक क्लॉडियस टॉलेमी को बताते हैं। इस ग्रंथ में ऊष्णकटिबंधीय वर्ष की एक बेहतर अवधि है, लेकिन यह भी रोमन कैलेंडर में कभी शामिल नहीं हुआ।

विज्ञान के लिए गणित के उच्च अनुप्रयोगों के लिए कैलकुलस (कलन) जरूरी है। यह भी यूरोपियों ने भारत से ही सीखा। कलन का आविष्कार पांचवीं सदी में पटना के गणितज्ञ आर्यभट ने किया। आर्यभट ने कलन का इस्तेमाल कर ज्या (साइन) आदि का कला (पांच दशमलव स्थान) तक सही मान निकाला।

अगले हजार वर्षो में इस तकनीक को केरल के आर्यभट स्कूल ने आगे बढ़ाया। उत्तर-दक्षिण और जाति का विभाजन दोनों को मिटाते हुए इसमें उच्चतम जाति के नंबूदरी ब्राह्मण शामिल थे। उन्होंने ज्या आदि का सही मान विकला और तत्परा (9 दशमलव स्थान) तक निकाला। ऐसी अद्भुत परिछिन्नता क्यों? इसने कौन-सी सामाजिक जरूरत पूरी की? सरल जवाब यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वष्र आधारित थी, इसलिए वर्षा के मौसम को जानना बहुत जरूरी था।

अत: एक ऐसा कैलेंडर जरूरी है, जो वर्षा ऋतु का सही आकलन करे। ऐसा कैलेंडर बनाने के लिए सटीक खगोलीय मॉडल और सटीक त्रिकोणमितीय मान जरूरी थे। भारत में धन का अन्य स्रोत विदेशी व्यापार था, जिसके लिए सटीक नाविक शास्त्र जरूरी था, और इसलिए भी सही त्रिकोणमितीय मान आवश्यक थे।

पश्चिमी इतिहासकारों ने पांचवीं सदी से लगातार अपना महिमागान कर गैर-पश्चिमियों को नीचा ठहराया है, इसलिए उन्होंने भारत से कलन सीखना कभी नहीं स्वीकारा। सदियों तक कलन न्यूटन और लाइबनिट्स का आविष्कार बताया जाता रहा। इस झूठे इतिहास में बड़ी ताकत थी।

इसी के सहारे मैकॉले ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली चालू की, जो उपनिवेशवाद के लिए बहुत जरूरी थी। परिणाम यह कि अब स्कूल से ही बच्चे बड़े गर्व से टाई पहनना सीख जाते हैं और कभी कोई प्रश्न तक नहीं उठाता कि यह भारतीय मौसम के अनुकूल है या नहीं। आंख मूंदकर पश्चिम की गलतियों की भी नकल करने के कारण कुछ लोग हिंदी को अंग्रेजी लहजे में बोलते हैं तो कुछ के द्वारा ठाकुर को बदलकर टैगोर कर दिया जाता है।

जाहिर है, वे ग्रेगोरियन कैलेंडर और एडीबीसी अंधविश्वास सीखते हैं। ये पश्चिमी ‘शिक्षित’ भारतीय कैलेंडर पर महीने के नाम तक नहीं बता सकते। सभी भारतीय त्योहारों की तिथि भारतीय कैलेंडर द्वारा निर्धारित होती हैं, लेकिन ग्रेगोरियन कैलेंडर पर उनकी तारीख बदलती है। यह सांस्कृतिक अलगाव के लिए आमंत्रण है। कई त्योहार कृषि से जुड़े हैं, तो एक दुखद परिणाम समकालीन कृषि क्षेत्र में है। ग्रेगोरियन कैलेंडर में बरसात के मौसम की कोई अवधारणा ही नहीं है।

पिछले दशक में कई बार ग्रेगोरियन कैलेंडर पर मानसून देरी से आया। सूखे की झूठी प्रत्याशा के बाद हमने 2003, 2004 और 2009 में बाढ़ देखी। लेकिन बारिश भारतीय कैलेंडर के अनुसार समय पर आई थी। मानसून में देर थी या कैलेंडर गलत था? भरपूर वर्षा के बावजूद गरीब किसान बर्बाद हो गए।

अब हम विडंबना को समझ सकते हैं। विडंबना यह है कि ‘मैथमेटिक्स का राष्ट्रीय साल’ पश्चिमी मानकों पर आधारित है। क्या हम गणित में यूरोपीय ऐतिहासिक अज्ञान को प्रणाम करना चाहते हैं? कृषि के लिए भारतीय कैलेंडर की व्यावहारिक उपयोगिता को नकारना, किसानों की आत्महत्या के घाव पर नमक छिड़कना है।

यह कृषि के बहुराष्ट्रीयकरण और किसान के सर्वहाराकरण में मदद करना है। चांद पर मनुष्य को भेजने जैसे उच्च तकनीकी प्रयोजनों के लिए भी आज तक आर्यभट के अंतर समीकरणों को हल करने की सांख्यिकी विधि उपयोगी है तो सवाल उठता है कि सरकार किस गणित का जश्न मनाना चाहती है? करोड़ों छात्रों को गणित कठिन लगता है और वे इसे स्कूल में ही ड्रॉप कर देते हैं। क्या ‘राष्ट्रीय मैथमेटिक्स वर्ष’ में इसके लिए कोई उम्मीद है? मैथमेटिक्स और गणित में मौलिक भेद है।

गणित व्यवहार से जुड़ा है, जबकि मैथमेटिक्स का संबंध आत्मज्ञान से है। अफलातून ने कहा था कि संगीत की ही तरह मैथमेटिक्स को भी आत्मा की भलाई के लिए सीखना चाहिए। पश्चिमी तत्व मीमांसा ने मैथमेटिक्स को और जटिल बना दिया। लेकिन हमारी रुचि अनुप्रयोगों में है या तत्व मीमांसा में?

विज्ञान और इंजीनियरिंग के छात्र व्यावहारिक उपयोग के लिए गणित सीखते हैं तो सरल समाधान तो यही होगा कि हम उन्हें व्यावहारिक गणित ही पढ़ाएं। यह समाज वैज्ञानिकों के लिए भी उपयोगी है और उन प्रबंधकों के लिए भी, जो करोड़ों के निवेश के खतरे खुद समझना चाहते हैं। (Courtesy : Dainik Bhaskar)

(लेखक : प्रो. चंद्रकांत राजू, मलेशिया स्थित विज्ञान विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक हैं। उन्होंने विज्ञान और गणित पर कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से एक पुस्तक- “क्या विज्ञान पश्चिम में शुरू हुआ?” बहुत चर्चित है। इसका विमोचन 11 सितम्बर 2009 को नई दिल्ली स्थित हिंदी भवन में हुआ था।)

सोमवार, जनवरी 16, 2012

23वें निष्कासन दिवस (19 जनवरी) पर विशेष

आज भी अपने घरों से विस्थापित कश्मीरी हिन्दू

पवन कुमार अरविंद

26 जनवरी को भारत अपना 63वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है लेकिन विडम्बना है कि कश्मीर के हिन्दू आज भी अपने घरों से दूर विस्थापित जीवन जीने को मजबूर हैं। केन्द्र व राज्य सरकारों की भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण 19 जनवरी 1990 को कश्मीरी हिन्दुओं को अपने ही घरों से विस्थापित होना पड़ा।

कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी हिन्दुओं की सभ्यता व संस्कृति लगभग पांच हजार वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है। इनकी सभ्यता, संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरों को वर्ष 1989 से ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों व अलगाववादियों द्वारा कुचलने का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर से हिंदुओं का निर्मूलन आतंकियों तथा स्थानीय अलगाववादियों का एक प्रमुख मुद्दा रहा है, क्योंकि कश्मीरी हिन्दू अलगाववादियों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा थे। इसी कारण शांतिप्रिय हिन्दू समुदाय आतंकियों का प्रमुख निशाना बना।

04 जनवरी 1990 को कश्मीर के एक स्थानीय अखबार ‘आफ़ताब’ ने हिज्बुल मुजाहिदीन द्वारा जारी एक विज्ञप्ति प्रकाशित की। इसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिये कहा गया था। एक और स्थानीय अखबार ‘अल-सफा’ में भी यही विज्ञप्ति प्रकाशित हुई। विदित हो कि हिज्बुल मुजाहिदीन का गठन जमात-ए-इस्लामी द्वारा जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी व जिहादी गतिविधियों को संचालित करने के मद्देनजर वर्ष 1989 में हुआ।

आतंकियों के फरमान से जुड़ी खबरें प्रकाशित होने के बाद कश्मीर घाटी में अफरा-तफरी मच गयी। सड़कों पर बंदूकधारी आतंकी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुलेआम घूमते रहे। अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर घाटी जल उठी। जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे। दीवारें पोस्टरों से भर गयीं, सभी कश्मीरी हिन्दुओं को आदेश था कि वह इस्लाम का कड़ाई से पालन करें। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला की सरकार इस भयावह स्थिति को नियन्त्रित करने में विफल रही।

कश्मीरी हिन्दुओं के मकानों, दुकानों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को चिह्नित कर उस पर नोटिस चस्पा कर दिया गया। नोटिसों में लिखा था कि वे या तो 24 घंटे के भीतर कश्मीर छोड़ दें या फिर मरने के लिये तैयार रहें। आतंकियों ने कश्मीरी हिन्दुओं को प्रताड़ित करने के लिए मानवता की सारी हदें पार कर दीं। यहां तक कि अंग-विच्छेदन जैसे हृदयविदारक तरीके भी अपनाए गये। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह थी कि किसी को मारने के बाद ये आतंकी जश्न मनाते थे। कई शवों का समुचित दाह-संस्कार भी नहीं करने दिया गया।

19 जनवरी 1990 को श्री जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल का दूसरी बार पदभार संभाला। कश्मीर में व्यवस्था को बहाल करने के लिये सबसे पहले कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन यह भी आतंकियों को रोकने में नाकाम रहा। सारे दिन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) और हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी आम लोगों को कर्फ्यू तोड़ सड़क पर आने के लिए उकसाते रहे। विदित हो कि राज्य में 19 जनवरी से 9 अक्टूबर 1996 तक राष्ट्रपति शासन रहा।

अन्तत: 19 जनवरी की रात निराशा और अवसाद से जूझते लाखों कश्मीरी हिन्दुओं का साहस टूट गया। उन्होंने अपनी जान बचाने के लिये अपने घर-बार तथा खेती-बाड़ी को छोड़ अपने जन्मस्थान से पलायन का निर्णय लिया। इस प्रकार लगभग 3,50,000 कश्मीरी हिन्दू विस्थापित हो गये।

इससे पहले जेकेएलएफ ने भारतीय जनता पार्टी के नेता पंडित टीकालाल टपलू की श्रीनगर में 14 सितम्बर 1989 को दिन-दहाड़े हत्या कर दी। श्रीनगर के न्यायाधीश एन.के. गंजू की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी। इसके बाद क़रीब 320 कश्मीरी हिन्दुओं की नृशंस हत्या कर दी गयी जिसमें महिला, पुरूष और बच्चे शामिल थे।

विस्थापन के पांच वर्ष बाद तक कश्मीरी हिंदुओं में से लगभग 5500 लोग विभिन्न शिविरों तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये। इनमें से लगभग एक हजार से ज्यादा की मृत्यु 'सनस्ट्रोक' की वजह से हुई; क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के अभ्यस्त ये लोग देश में अन्य स्थानों पर पड़ने वाली भीषण गर्मी सहन नहीं कर सके। क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हुए।

यह विडंबना ही है कि इतना सब होने के बावजूद इस घटना को लेकर शायद ही कोई रिपोर्ट दर्ज हुई हो। यदि यह घटना एक समुदाय विशेष के साथ हुई होती तो केन्द्र व राज्य सरकारें धरती-आसमान एक कर देतीं। मीडिया भी छोटी से छोटी जानकारी को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करता। लेकिन चूंकि पीड़ित हिंदू थे इसलिये न तो कुछ लिखा गया, न ही कहा गया। सरकारी तौर पर भी कहा गया कि कश्मीरी हिन्दुओं ने पलायन का निर्णय स्वेच्छा से लिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक सतही जांच के बाद सभी तथ्यों को ताक पर रख इस घटना को नरसंहार मानने से साफ इन्कार कर दिया। जबकि सत्यता यह थी कि सैकड़ों महिला, पुरुष और बच्चों की नृशंस हत्या हुई थी।

भारत का संविधान देश में किसी भी व्यक्ति को जाति, मजहब, भाषा और प्रांत के आधार पर विभाजित किये बिना सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। कश्मीरी पंडितों का पलायन क्या इस अधिकार का हनन नहीं है? केवल सरकार ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर के मनवाधिकार संगठन भी इस मामले पर मौन रहे। विख्यात अंतरराष्ट्रीय संगठनों; जैसे- एशिया वॉच, एम्नेस्टी इंटरनेशनल तथा कई अन्य संस्थाओं में इस मामले पर सुनवाई आज भी लम्बित है। उनके प्रतिनिधि अभी तक दिल्ली, जम्मू तथा भारत के अन्य राज्यों में स्थित उन विभिन्न शिविरों का दौरा नहीं कर सके हैं जहां कश्मीरी हिन्दुओं के परिवार शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

इन कश्मीरी विस्थापितों की दुर्दशा राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से आज दलों के लिए सेल्फ रूल, स्वायत्तता और अफस्पा हटाना ही प्रमुख मुद्दा है। यह भी कम आश्चर्य नहीं कि निष्कासन के 22 वर्षों बाद भी इन हिन्दुओं की सुनने वाले कुछ लोग ही हैं।

बुधवार, जनवरी 11, 2012

चुनाव आयोग का हास्यास्पद फैसला

पवन कुमार अरविंद

बसपा सुप्रीमो कुमारी मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकवाने के बाद चुनाव आयोग समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल का क्या करेगा? साइकिल आमजन की सवारी है, जो हर नगर, ग्राम, डगर-डगर दिख जायेगी। तो क्या चुनाव सम्पन्न होने तक लोग साइकिल की सवारी करना छोड़ दें? साइकिल के दुकानदारों को चाहिए कि वे अपनी-अपनी दुकानें भी बंद कर दें!

कांग्रेस का चुनाव चिन्ह पंजा है, तो क्या कांग्रेसी उम्मीदवार अपने हाथों में दास्ताने पहनकर प्रचार के लिए जनता के बीच निकलेंगे? लालू यादव की राजद का चुनाव चिन्ह लालटेन है, जो अंधेरे का साथी है। क्या चुनाव आयोग रात में जलने वाले लालटेनों पर भी पर्दा डाल देगा? दुकानों में लालटेन की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा देना चाहिए।

भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह कमल का फूल है। कमल के फूल को लोग मंदिरों में भी चढ़ाते हैं। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह चुनाव सम्पन्न होने तक मंदिरों में कमल के फूल को प्रतिबन्धित कर दे। जो लोग कमल की खेती करते हैं, उन पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए! और कमल की खेती वाले जलाशयों को ढंकवाने का भी प्रबन्ध करना चाहिए।

चुनाव आयोग का यह फैसला बसपा के खिलाफ है या पक्ष में, या फिर आदर्श चुनाव आचार संहिता के हित में, इस पर भ्रम है; लेकिन इतना स्पष्ट है कि ढंकी हुई मूर्तियां जनता का ध्यान ज्यादा आकृष्ट करेंगी। इससे मायावती और बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी का तो बिना प्रयास ही जबर्दश्त प्रचार हो रहा है। यह आज के लगभग सभी समाचार पत्रों की लीड न्यूज है। बिना प्रयास भरपूर प्रचार हो रहा है।

हालांकि, इन मूर्तियों को ढंकने का फैसला चुनाव आयोग ने खुद आगे आकर नहीं किया है। उसके पास मायावती विरोधी दलों ने शिकायत की थी। इस शिकायत में केंद्र की कांग्रेस-नीत यूपीए के कुछ घटक दल भी शामिल थे। चुनाव आयोग पर उसका कितना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव पड़ा होगा, यह तो बाद की बात है लेकिन फैसला तो केवल मायावती और उनकी हाथी के खिलाफ हुआ।

फिलहाल, मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकवाने का चुनाव आयोग का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, हास्यास्पद भी। इन मूर्तियों को लगवाने में जनता का ही पैसा खर्च हुआ और अब ढंकवाने में भी हो रहा है। यानी दोहरा खर्च। चुनाव आयोग को यदि निर्णय लेना ही था तो उन मूर्तियों को तोड़वाने का लेना चाहिए था।

शनिवार, जनवरी 07, 2012

कट्टर हिंदू हैं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह

नीचे दिये गये चित्र 21 अक्टूबर 1997 में हरिद्वार में हुए विराट हिंदू सम्मेलन के हैं। इस कार्यक्रम के मंच पर कांग्रेस महासिचव व मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी उपस्थित थे। श्री सिंह मंच पर आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया और विहिप अध्यक्ष अशोक सिंहल के बीच में बैठे थे। मंच पर कांचि कामकोटि पीठ के शंकाराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती और नेपाल के तत्कालीन राजा व रानी भी उपस्थित थे। 65 वर्षीय श्री दिग्विजय सिंह 1993 से 2003 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं।





स्वामी जयेन्द्र सरस्वती का चरण छूकर आशीर्वाद लेते दिग्विजय सिंह।

नेपाल के तत्कालीन नरेश का अभिवादन करते दिग्विजय सिंह।









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