केंद्र सरकार चाहे लाख दावा कर ले कि राष्ट्रमंडल खेलों से देश को बहुत फायदा होगा लेकिन वास्तविकता यह है कि इससे कुछ फायदा-वायदा नहीं होने वाला, उल्टे भारतीय जनता को ही अपनी जेब से इन खेलों की कीमत बरसों-बरस चुकानी होगी।
राष्ट्रमंडल खेलों का आयोजन 3 से 14 अक्टूबर तक दिल्ली में होना है। इस 11 दिवसीय आयोजन पर 40 हजार करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। जबकि इसमें बुनियादी सुविधाओं के विकास पर होने वाले खर्च शामिल नहीं हैं। यदि ये खर्चे भी जोड़ दिए जाएं तो यह राशि एक हजार अरब के करीब पहुंच जाएगी।
पर्यावरण, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर काम करने वाली संस्था हजार्ड्स सेंटर ने अपने एक ताजा अध्ययन में दावा किया है कि ऐसे खेल आयोजनों से सिर्फ कुछ लोगों का फायदा होता है और बाकी लोग इसके कर्ज को दशकों तक झेलने के लिए मजबूर होते हैं।
संस्था से जुड़े डुनू रॉय का कहना है कि राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन से होने वाले घाटे की भरपाई 25 से 30 वर्षों के भीतर दिल्ली के हर नागरिक को ज़मीन, बुनियादी चीजों और पेट्रोल के बढ़े हुए दाम चुका कर करनी होगी।
अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया के कई देशों ने बड़े पैमाने पर आयोजित ओलंपिक जैसे खेलों से उपजे कर्ज के संकट को झेला है। इस मामले में सबसे ताज़ा उदाहरण ग्रीस का है। ग्रीस की राजधानी एथेंस में 2004 में ओलंपिक आयोजित किया गया था।
ध्यातव्य है कि ग्रीस इस समय अभूतपूर्व वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। ओलंपिक, कॉमनवेल्थ गेम जैसे आयोजनों के चलते बुनियादी जरूरत की चीजों पर सीधा असर पड़ता है।
हालांकि इस प्रकार के बड़े आयोजन इस उम्मीद के साथ किए जाते हैं कि इससे जबर्दस्त राजस्व कमाया जा सकता है। नए ढांचों के निर्माण और बुनियादी सहूलियतों के विकास से कारोबार बढ़ने और पर्यटकों की संख्या बढ़ने की उम्मीद जुड़ी होती है।
आयोजक इस बात पर जोर देते हैं कि खेल आयोजन से भारी भरकम विज्ञापन राजस्व और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक्सपोज़र हासिल किया जा सकता है।
भारत सरकार ने भी ऐसा ही दावा राष्टमंडल खेलों को लेकर किया है। सरकार का कहना है कि इन खेलों से देश को विशेषकर दिल्ली को बहुत फायदा होगा। लेकिन हाउसिंग एंड लैंड राइट्स नेटवर्क नामक संस्था ने चेतावनी दी है कि राष्टमंडल खेलों के आयोजन अपने पीछे 'गंभीर वित्तीय संकट' छोड़ जाएंगे।
वैसे भी, राजस्व कमाने के किसी दावे पर राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति अभी तक खरी नहीं उतरी है। खेलों के प्रायोजक मिल नहीं रहे हैं और यहां तक कि टिकटों की बिक्री भी संतोषजनक नहीं है। जबकि इन खेलों पर खर्च के पीछे यह दावा किया जा रहा है कि देश को आगे चलकर बहुत फायदा होगा।
हजार्ड्स सेंटर का कहना है कि बड़े खेल जिस भी शहर में आयोजित होते हैं वहां के लोगों को इसी तरह के फायदे की बात बताई जाती है।
राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी के मुताबिक, 'भारत के लिए चित भी अपनी और पट भी अपनी जैसी स्थिति है। हम इन खेलों पर जितना खर्चा कर रहे हैं उसका दोगुना कमाएंगे।'
जबकि अध्ययन के अनुसार, 'ज़्यादातर मामलों में जब आप सभी खर्चे जिसमें जनता का पैसा, ज़मीन हस्तांतरण, बुनियादी ढांचा, सुरक्षा जैसी चीजों पर हुए खर्च को शामिल कर लेते हैं तो साफ हो जाता है कि बड़े खेल आयोजनों से कोई मुनाफा हासिल नहीं होता है बल्कि बड़ा घाटा होता है, जिसकी भरपाई जनता करती है।'
जिन देशों में ये खेल होते हैं उन देशों पर कर्ज का भारी बोझ लद जाता है और जिन लोगों पर इस कर्ज की सबसे ज़्यादा मार पड़ती है वे आम लोग होते हैं, जो कई वर्षों तक कर चुकाकर खेल आयोजन से हुए नुकसान की भरपाई करते हैं। कानूनी रूप से ओलंपिक या राष्ट्रमंडल के आयोजन के खर्चे से उपजे कर्ज की जिम्मेदारी करदाता पर होती है।
रिपोर्ट के अनुसार आयोजक देश इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी के साथ ऐसे समझौते पर साइन करते हैं, जिसके मुताबिक उस देश पर सभी वित्तीय, बढ़े खर्च की जिम्मेदारी होती है।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ऐसे आयोजन के पीछे सब्सिडी, बेहिसाब खर्चे और होशियारी से बनाए गए बही खाते जैसी कई चीजें छुपी होती हैं।
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