“बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का, जो चीरा तो कतरा ए खून न निकला।”
उपरोक्त कथन श्रीराम जन्मभूमि स्वामित्व विवाद के फैसले के बाद सच ही साबित हो रहा है। क्योंकि इसके पहले इस फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। कहा जा रहा था कि फैसले के बाद देश भर में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क सकती है। दंगे-फसाद हो सकते हैं।
संभावित हिंसा के मद्देनजर देश के सभी सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता व नेतृत्वकर्ता, मीडियाकर्मी व राजनेता और यहां तक कि अभिनेता भी समाज के सभी वर्गों से शांति व भाईचारा बनाए रखने की अपील कर रहे थे, या करते हुए देखे जा रहे थे। सभी उपदेशक की भूमिका में आ गए थे। मानो समाज इन्हीं लोगों के नियंत्रण में है और इन्हीं लोगों के आदर्शों एंव आदेशों से संचालित हो रहा हो।
भारत एक लोकतंत्रिक देश है, इस कारण उन नेताओं का उपदेश कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, जो प्रत्यक्ष चुनाव में जीतकर जनता के प्रतिनिधि बने हैं। लेकिन ऐसे नेताओं का उपदेश हास्यास्पद ही कहा जाएगा जो केवल मनोनीत होते आ रहे हैं। इन मनोनीत होने वालों में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी शामिल हैं। हालांकि, प्रधानमंत्री की बात अलग है, उनको ऐसा अपील करने का अधिकार है। वे देश के प्रमुख पद पर बैठे एक प्रमुख व्यक्ति हैं। कहने का मतलब है कि फैसले को लेकर ऐसे लोग भी उपदेशक की भूमिका निभाने लगे थे जिनका जनता में कहीं कोई आधार या जनाधार नहीं है।
इन नेताओं के उपदेश से ऐसा लग रहा था कि फैसले के बाद जनता सचमुच में हिंसा फैला देगी या तोप-तमंचा लेकर इसके लिए तैयार बैठी है। दरअसल, वास्तविकता यह है कि जनता को केवल फैसले का इन्तजार था और फैसले के किसी भी स्थिति में वह शांति व सौहार्द बनाए रखने के लिए उद्यत थी। क्योंकि 6 दिसम्बर 1992 के दिन से अयोध्या के सरयू का जल करोड़ों किलोमीटर की लम्बी दूरी तय कर चुका है। इस लंबे समयावधि में जनता का मिजाज भी बदला है और व्यवहार भी। जनता अब परिपक्व हो चुकी है। खास बात यह है कि आज का युवा भी शांतिप्रिय है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग अपने करियर को संवारने में लगाना चाहता है। सभी लोग सुख, शांति और समृद्धि के ख्वाहिशमंद हैं। इतना तक तो ठीक है और इन बातों से किसी को कोई शिकवा या शिकायत भी नहीं है। लेकिन शिकायत है तो केवल उन नेताओं से जो चाहते थे कि फैसले के बाद हिंसा भड़क जाए और इसको आधार बनाकर हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सके तथा इसके आधार पर इन संगठनों को प्रतिबंधित किया जा सके।
लेकिन देश की शांतिप्रिय जनता ने फैसले के बाद कहीं कोई खटर-पटर की आवाज तक नहीं की। हिंसा फैलने के सारे दावे और आशंकाएं धूल चाटती नजर आईं। राजनेताओं की सारी आकांक्षाओं पर पानी फिर गया। प्रतिबंध तो दूर की कौड़ी रही, इन हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों पर कोई प्रश्नचिन्ह तक नहीं लग सका।
मामले पर फैसला आने के बाद एक प्रतिष्ठित चैनल के एंकर अपने लखनऊ स्थित संवाददाता से ये बातें बार-बार पूछ रहे थे कि ‘फैसले के बाद कहीं कोई हिंसा तो नहीं भड़की है।’
उस एंकर ने 25 मिनट में ये वाक्य करीब चौदह या पंद्रह बार दुहराया होगा। लखनऊ संवाददाता से बार-बार यही जवाब मिलता रहा कि- ‘नहीं, शांति व सौहार्द कायम है, कहीं कोई ऐसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है’।
अब प्रश्न उठता है कि यह समाचार चैनल आखिर किस अभियान में लगा हुआ था ? हिंसा भड़काने में या लोगों को ये बातें याद दिलाने में कि हिंसा भड़काने का समय आ गया है, तैयार हो जाओ। हालांकि, कुछ को छोड़कर करीब-करीब सभी चैनलों का ऐसा ही रुख देखने को मिला। और भी कई बातें ऐसी थीं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि चैनलों का रवैया देश और समाज के हित में नहीं था।
उल्लेखनीय है कि अयोध्या मामले का फैसला इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने सुनाया। इस कारण राजधानी सहित पूरे प्रदेश को हिंसा की दृष्टि से काफी संवेदनशील माना जा रहा था। इसके साथ ही देश के कई प्रमुख स्थानों पर संभावित खतरों के मद्देनजर सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए गए थे।
चाहे जो कुछ भी हो लेकिन इस फैसले के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े हुए विभिन्न हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के प्रति समाज की धारणा और सकारात्मक हुई है। समाज की यह सकारात्मक सोच और विश्वास इन संगठनों को एक नई ऊर्जा देगी, इसमें कहीं कोई संदेह नहीं है। इसलिए इस फैसले को इनके लिए रामबाण कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
रविवार, अक्तूबर 03, 2010
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