शुक्रवार, नवंबर 16, 2012
शाखा ही संघ की मूल शक्ति (भाग 3)
मंगलवार, नवंबर 06, 2012
शाखा ही संघ की मूल शक्ति (भाग 2)
शुक्रवार, नवंबर 02, 2012
शाखा ही संघ की मूल शक्ति (भाग एक)
मंगलवार, अक्टूबर 23, 2012
भाजपा का कितना ‘कल्याण’ करेंगे कल्याण
मंगलवार, अगस्त 07, 2012
लिखित मजमून पर भी भ्रमित कर रहा मीडिया
भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के हालिया ब्लाग पर जमकर हो-हल्ला मचा। कहते हैं कि “सुनी-सुनाई” बातों का गलत अर्थ निकालना कुछ हद तक तो ठीक कहा जा सकता है, लेकिन “लिखा-पढ़ी” की बातों को भी अर्थ का अनर्थ कर देना; किसी प्रकार से क्षम्य नहीं कहा जा सकता। कहते हैं कि झूठ के पांव नहीं होते, पर झूठ का मुंह जरूर होता है। आडवाणी के ब्लॉग के संदर्भ में जो बातें उनके मुंह में डालकर मीडिया प्रस्तुत कर रहा है, वह वस्तुतः संप्रग सरकार के दो बड़े मंत्रियों द्वारा कही गयी हैं। मीडिया ने आडवाणी की बातों का गलत अर्थ निकालकर जनता के विश्वास का एक बार फिर भंजन किया है। सवाल यह है कि जो बातें सीधे-सीधे सरल रूप में समझ में आ जाती हों, उसको घुमा-फिराकर बात का बतंगड़ बना देने की क्या आवश्यकता है। हालांकि इस प्रकार की घटनाओं-दुर्घटनाओं के लिए कुछ कथित मीडियाकर्मी ही जिम्मेदार रहते हैं, लेकिन इसको लेकर समूची मीडिया पर अविश्वास का संकट पैदा होता है। दरअसल, 23 जुलाई को प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने निवर्तमान राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के सम्मान में दिल्ली स्थित हैदराबाद हाउस में रात्रिभोज का आयोजन किया था। इस भोज में देश के करीब सभी राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं ने शिरकत की। भोज शुरू होने से पहले संप्रग सरकार के दो वरिष्ठ मंत्री अनौपचारिक बातचीत कर रहे थे। इस दौरान लालकृष्ण आडवाणी भी मौजूद थे। ये दोनों मंत्री आगामी आम चुनावों के बाद की स्थितियों की चर्चा करते हुए अपने भविष्य का आकलन कर रहे थे। इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों की चिंता थी कि 16वीं लोकसभा के चुनावों में न तो क्रांग्रेस और न ही भाजपा ऐसा कोई गठबंधन बना पाने में सफल होंगे, जिसका लोकसभा में स्पष्ट बहुमत हो। इसलिए सन् 2013 या 2014 में, जब भी लोकसभा चुनाव होंगे,,संभवतया जिस ढंग की सरकार बनेगी वह तीसरे मोर्चे जैसी हो सकती है। कांग्रेसी मंत्रियों के मुताबिक यह न केवल भारतीय राजनीति की स्थिरता अपितु राष्ट्रीय हितों के लिए भी अत्यन्त नुकसानदायक होगी। उक्त बातें दोनों मंत्रियो ने आपस में की थी। इस संदर्भ में आडवाणी ने अपने ब्लाग में लिखा है- मैंने दोनों मंत्रियों के दिमाग में उमड़ रही इन चिंताओं को महसूस किया। इस बात पर मेरी प्रतिक्रिया थी- मैं आपकी चिंता को समझता हूं, मगर उससे सहमत नहीं हूं। इस मुद्दे पर मेरे अपने विचार हैं- पिछले ढाई दशकों में राष्ट्रीय राजनीति का जो स्वरूप बना है उसमें यह प्रत्यक्षत: असंभव है कि नई दिल्ली में कोई ऐसी सरकार बन पाए जिसे या तो कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन न हो। इसलिए तीसरे मोर्चे की सरकार की कोई संभावना नहीं है। हालांकि एक गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली सरकार जिसे इन दोनों प्रमुख दलों में से किसी एक का समर्थन हो, बनना संभव है। ऐसा अतीत में भी हो चुका है। लेकिन, चौ. चरण सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा और इन्द्रकुमार गुजराल के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकारें और वीपी सिंह सरकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि ऐसी सरकारें ज्यादा नहीं टिक पातीं। केंद्र में तभी स्थायित्व रहा है जब सरकार का प्रधानमंत्री या तो कांग्रेस का हो या भाजपा का। दुर्भाग्यवश, 2004 से यूपीए-1 और यूपीए-2, दोनों सरकारें इतने खराब ढंग चल रहीं हैं कि सत्ता प्रतिष्ठान में घुमड़ रहीं वर्तमान चिंताओं को सहजता से समझा जा सकता है। सामान्यतया लोग मानते हैं कि लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का सर्वाधिक खराब चरण आपातकाल के पश्चात् 1977 के चुनावों में था। लेकिन इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि आगामी लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस का हाल 1952 से अब तक के इतिहास में सर्वाधिक खराब रहे। यह पहली बार होगा कि कांग्रेस पार्टी का स्कोर मात्र दो अंकों तक सिमट कर रह जाएगा, यानी कि सौ से भी कम! तो यह था आडवाणी के ब्लाग कां अंश, लेकिन मीडिया ने तो न जाने क्या-क्या अर्थ लगा लिया। जो घोर निराशाजनक है।
शनिवार, जुलाई 14, 2012
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय.....
दारा सिंह से मैं वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास पर मिला था। उस समय वह राज्यसभा के सदस्य थे। वह एक अद्भूत व्यक्ति थे। 12 जुलाई 2012 को प्रात: काल उनके निधन की खबर का मेसेज मेरे मोबाईल पर प्राप्त हुआ था, मैं कुछ देर तक आवाक् रह गया, और सहसा ही उनसे मुलाकात के लमहों में खो गया था। वह वास्तव में एक विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उनमें राष्ट्रीय भावना कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने मुछे उस दौरान बताया था कि रामायण सीरियल में हनुमान की भूमिका ने उनके जीवन में बहुत परिवर्तन लाया। उनका कहना था, “मुझे उस समय कठिनाई होती थी जब लोग मुझे वास्तविक जीवन में भी हनुमान मानकर मेरे पैर छूते थे। लेकिन मैं कर भी क्या कर सकता था, सिवाय उन्हें रोकने के, लेकिन फिर भी लोग नहीं मानते थे।” रामायण के कुछ दृश्यों की चर्चा पर वह ठहाका मारकर हंसने लगते थे। उनसे मुलाकात के आधा घंटे का वह समय बातों ही बातों में कैसे बीत गया था, पता ही नहीं चला। जब मैं उनसे विदा लेने लगा तो मैंने उनसे कहा था कि दादा मैं फिर आपसे मिलूंगा, तो उन्होंने कहा था कि मिलना भी क्या है तुम पवन हो और मैं ‘हनुमान’। तुम भी हर जगह, मैं भी हर जगह। बालीवुड की कई फिल्मों में किरदार अदा करने के बाद उनकी प्रसिद्धि उस समय और व्यापक हो गयी जब उन्होंने रामानंद सागर द्वारा निर्देशित टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमान का किरदार निभाया। उसी दौर से वे भारतीय जनमानस पर छा गये थे और हम जैसे ग्रामीण परिवेश के लोगों का ध्यान भी अपनी ओर आकृष्ट करने में सफलता हासिल की थी। सचमुच वे अद्भुत थे। ...................... प्रभु उनकी आत्मा को शांति दें, यही विनती है।
शुक्रवार, अप्रैल 13, 2012
किस ‘गणित’ का उत्सव?
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 2012 को ‘राष्ट्रीय मैथमेटिक्स वर्ष’ घोषित किया है। इसमें एक ऐसी गंभीर विडंबना छुपी है, जो सभी को जाननी चाहिए। इसे समझने के लिए पहले थोड़ा इतिहास में झांककर देखते हैं। यूरोप ने सामान्य गणित भारत से ही सीखा।
इससे पहले यूरोपीय आदिम अंकगणक (अबाकस) का प्रयोग करते थे। भारतीय गणित अपनी दक्षता के लिए विश्व प्रसिद्ध था। यहां से वह बगदाद गया, जहां अल ख्वारिज्मी ने नौवीं सदी में ‘हिसाब अल हिंद’ नामक किताब लिखी, जो अल ख्वारिज्मी के लातिनी नाम अल्गोरिस्मस से प्रसिद्ध हुई। फ्लोरेंस के व्यापारियों ने झट समझा कि बेहतर गणित से लेन-देन में फायदा है। उन्होंने अल्गोरिस्मस सीखा और अबाकस ठुकराया।
यूरोपीय कैलेंडर यूरोपियनों के गणित के अज्ञान की कहानी बताता है। चंद्र और सौर चक्र दोनों ही आंशिक दिनों में पूरे होते हैं, लेकिन यूरोपीय स्फुट भिन्न नहीं जानते थे। वे माह को चंद्र चक्र के साथ न जोड़ सके। इसके बजाय रोमन तानाशाहों की स्तुति के लिए जुलाई और अगस्त का नाम जूलियस और ऑगस्तस के नाम पर किया और उनके सम्मान में उन महीनों में एक-एक दिन और जोड़ दिए। यह दो दिन फरवरी से चुराए गए।
परिणाम एक पूरी तरह से अवैज्ञानिक कैलेंडर है, जिसमें महीने कभी 28, 29 या फिर 30 अथवा 31 दिनों के होते हैं। इसी कैलेंडर को पश्चिम ने अपना धार्मिक कैलेंडर बनाया, लेकिन भारत में तीसरी सदी के सूर्य सिद्धांत और पांचवीं सदी के आर्यभट दोनों ने (नाक्षत्र) वर्ष की कहीं अधिक सटीक अवधि दी है।राजसत्ता हाथ में होने के कारण रोमन साम्राज्य की किताबों तक पूरी पहुंच थी, लेकिन इसके बावजूद वे अपने कैलेंडर में सुधार नहीं कर पाए।
इन असफलताओं से साबित होता है कि दरअसल उनके पास खगोल विज्ञान की कोई अच्छी किताबें थीं ही नहीं। अरबी अल्माजेस्ट एक संवर्धनशील किताब है, लेकिन पश्चिमी इतिहासकार उसका एकमात्र लेखक क्लॉडियस टॉलेमी को बताते हैं। इस ग्रंथ में ऊष्णकटिबंधीय वर्ष की एक बेहतर अवधि है, लेकिन यह भी रोमन कैलेंडर में कभी शामिल नहीं हुआ।
विज्ञान के लिए गणित के उच्च अनुप्रयोगों के लिए कैलकुलस (कलन) जरूरी है। यह भी यूरोपियों ने भारत से ही सीखा। कलन का आविष्कार पांचवीं सदी में पटना के गणितज्ञ आर्यभट ने किया। आर्यभट ने कलन का इस्तेमाल कर ज्या (साइन) आदि का कला (पांच दशमलव स्थान) तक सही मान निकाला।
अगले हजार वर्षो में इस तकनीक को केरल के आर्यभट स्कूल ने आगे बढ़ाया। उत्तर-दक्षिण और जाति का विभाजन दोनों को मिटाते हुए इसमें उच्चतम जाति के नंबूदरी ब्राह्मण शामिल थे। उन्होंने ज्या आदि का सही मान विकला और तत्परा (9 दशमलव स्थान) तक निकाला। ऐसी अद्भुत परिछिन्नता क्यों? इसने कौन-सी सामाजिक जरूरत पूरी की? सरल जवाब यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वष्र आधारित थी, इसलिए वर्षा के मौसम को जानना बहुत जरूरी था।
अत: एक ऐसा कैलेंडर जरूरी है, जो वर्षा ऋतु का सही आकलन करे। ऐसा कैलेंडर बनाने के लिए सटीक खगोलीय मॉडल और सटीक त्रिकोणमितीय मान जरूरी थे। भारत में धन का अन्य स्रोत विदेशी व्यापार था, जिसके लिए सटीक नाविक शास्त्र जरूरी था, और इसलिए भी सही त्रिकोणमितीय मान आवश्यक थे।
पश्चिमी इतिहासकारों ने पांचवीं सदी से लगातार अपना महिमागान कर गैर-पश्चिमियों को नीचा ठहराया है, इसलिए उन्होंने भारत से कलन सीखना कभी नहीं स्वीकारा। सदियों तक कलन न्यूटन और लाइबनिट्स का आविष्कार बताया जाता रहा। इस झूठे इतिहास में बड़ी ताकत थी।
इसी के सहारे मैकॉले ने भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली चालू की, जो उपनिवेशवाद के लिए बहुत जरूरी थी। परिणाम यह कि अब स्कूल से ही बच्चे बड़े गर्व से टाई पहनना सीख जाते हैं और कभी कोई प्रश्न तक नहीं उठाता कि यह भारतीय मौसम के अनुकूल है या नहीं। आंख मूंदकर पश्चिम की गलतियों की भी नकल करने के कारण कुछ लोग हिंदी को अंग्रेजी लहजे में बोलते हैं तो कुछ के द्वारा ठाकुर को बदलकर टैगोर कर दिया जाता है।
जाहिर है, वे ग्रेगोरियन कैलेंडर और एडीबीसी अंधविश्वास सीखते हैं। ये पश्चिमी ‘शिक्षित’ भारतीय कैलेंडर पर महीने के नाम तक नहीं बता सकते। सभी भारतीय त्योहारों की तिथि भारतीय कैलेंडर द्वारा निर्धारित होती हैं, लेकिन ग्रेगोरियन कैलेंडर पर उनकी तारीख बदलती है। यह सांस्कृतिक अलगाव के लिए आमंत्रण है। कई त्योहार कृषि से जुड़े हैं, तो एक दुखद परिणाम समकालीन कृषि क्षेत्र में है। ग्रेगोरियन कैलेंडर में बरसात के मौसम की कोई अवधारणा ही नहीं है।
पिछले दशक में कई बार ग्रेगोरियन कैलेंडर पर मानसून देरी से आया। सूखे की झूठी प्रत्याशा के बाद हमने 2003, 2004 और 2009 में बाढ़ देखी। लेकिन बारिश भारतीय कैलेंडर के अनुसार समय पर आई थी। मानसून में देर थी या कैलेंडर गलत था? भरपूर वर्षा के बावजूद गरीब किसान बर्बाद हो गए।
अब हम विडंबना को समझ सकते हैं। विडंबना यह है कि ‘मैथमेटिक्स का राष्ट्रीय साल’ पश्चिमी मानकों पर आधारित है। क्या हम गणित में यूरोपीय ऐतिहासिक अज्ञान को प्रणाम करना चाहते हैं? कृषि के लिए भारतीय कैलेंडर की व्यावहारिक उपयोगिता को नकारना, किसानों की आत्महत्या के घाव पर नमक छिड़कना है।
यह कृषि के बहुराष्ट्रीयकरण और किसान के सर्वहाराकरण में मदद करना है। चांद पर मनुष्य को भेजने जैसे उच्च तकनीकी प्रयोजनों के लिए भी आज तक आर्यभट के अंतर समीकरणों को हल करने की सांख्यिकी विधि उपयोगी है तो सवाल उठता है कि सरकार किस गणित का जश्न मनाना चाहती है? करोड़ों छात्रों को गणित कठिन लगता है और वे इसे स्कूल में ही ड्रॉप कर देते हैं। क्या ‘राष्ट्रीय मैथमेटिक्स वर्ष’ में इसके लिए कोई उम्मीद है? मैथमेटिक्स और गणित में मौलिक भेद है।
गणित व्यवहार से जुड़ा है, जबकि मैथमेटिक्स का संबंध आत्मज्ञान से है। अफलातून ने कहा था कि संगीत की ही तरह मैथमेटिक्स को भी आत्मा की भलाई के लिए सीखना चाहिए। पश्चिमी तत्व मीमांसा ने मैथमेटिक्स को और जटिल बना दिया। लेकिन हमारी रुचि अनुप्रयोगों में है या तत्व मीमांसा में?
विज्ञान और इंजीनियरिंग के छात्र व्यावहारिक उपयोग के लिए गणित सीखते हैं तो सरल समाधान तो यही होगा कि हम उन्हें व्यावहारिक गणित ही पढ़ाएं। यह समाज वैज्ञानिकों के लिए भी उपयोगी है और उन प्रबंधकों के लिए भी, जो करोड़ों के निवेश के खतरे खुद समझना चाहते हैं। (Courtesy : Dainik Bhaskar)
(लेखक : प्रो. चंद्रकांत राजू, मलेशिया स्थित विज्ञान विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक हैं। उन्होंने विज्ञान और गणित पर कई पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से एक पुस्तक- “क्या विज्ञान पश्चिम में शुरू हुआ?” बहुत चर्चित है। इसका विमोचन 11 सितम्बर 2009 को नई दिल्ली स्थित हिंदी भवन में हुआ था।)
सोमवार, जनवरी 16, 2012
23वें निष्कासन दिवस (19 जनवरी) पर विशेष
पवन कुमार अरविंद
26 जनवरी को भारत अपना 63वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है लेकिन विडम्बना है कि कश्मीर के हिन्दू आज भी अपने घरों से दूर विस्थापित जीवन जीने को मजबूर हैं। केन्द्र व राज्य सरकारों की भेदभावपूर्ण नीतियों के कारण 19 जनवरी 1990 को कश्मीरी हिन्दुओं को अपने ही घरों से विस्थापित होना पड़ा।
कश्मीर के मूल निवासी कश्मीरी हिन्दुओं की सभ्यता व संस्कृति लगभग पांच हजार वर्ष से भी ज्यादा पुरानी है। इनकी सभ्यता, संस्कृति और सांस्कृतिक धरोहरों को वर्ष 1989 से ही पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों व अलगाववादियों द्वारा कुचलने का प्रयास किया जा रहा है। कश्मीर से हिंदुओं का निर्मूलन आतंकियों तथा स्थानीय अलगाववादियों का एक प्रमुख मुद्दा रहा है, क्योंकि कश्मीरी हिन्दू अलगाववादियों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा थे। इसी कारण शांतिप्रिय हिन्दू समुदाय आतंकियों का प्रमुख निशाना बना।
04 जनवरी 1990 को कश्मीर के एक स्थानीय अखबार ‘आफ़ताब’ ने हिज्बुल मुजाहिदीन द्वारा जारी एक विज्ञप्ति प्रकाशित की। इसमें सभी हिंदुओं को कश्मीर छोड़ने के लिये कहा गया था। एक और स्थानीय अखबार ‘अल-सफा’ में भी यही विज्ञप्ति प्रकाशित हुई। विदित हो कि हिज्बुल मुजाहिदीन का गठन जमात-ए-इस्लामी द्वारा जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी व जिहादी गतिविधियों को संचालित करने के मद्देनजर वर्ष 1989 में हुआ।
आतंकियों के फरमान से जुड़ी खबरें प्रकाशित होने के बाद कश्मीर घाटी में अफरा-तफरी मच गयी। सड़कों पर बंदूकधारी आतंकी और कट्टरपंथी क़त्ल-ए-आम करते और भारत-विरोधी नारे लगाते खुलेआम घूमते रहे। अमन और ख़ूबसूरती की मिसाल कश्मीर घाटी जल उठी। जगह-जगह धमाके हो रहे थे, मस्जिदों से अज़ान की जगह भड़काऊ भाषण गूंज रहे थे। दीवारें पोस्टरों से भर गयीं, सभी कश्मीरी हिन्दुओं को आदेश था कि वह इस्लाम का कड़ाई से पालन करें। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला की सरकार इस भयावह स्थिति को नियन्त्रित करने में विफल रही।
कश्मीरी हिन्दुओं के मकानों, दुकानों तथा अन्य प्रतिष्ठानों को चिह्नित कर उस पर नोटिस चस्पा कर दिया गया। नोटिसों में लिखा था कि वे या तो 24 घंटे के भीतर कश्मीर छोड़ दें या फिर मरने के लिये तैयार रहें। आतंकियों ने कश्मीरी हिन्दुओं को प्रताड़ित करने के लिए मानवता की सारी हदें पार कर दीं। यहां तक कि अंग-विच्छेदन जैसे हृदयविदारक तरीके भी अपनाए गये। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा यह थी कि किसी को मारने के बाद ये आतंकी जश्न मनाते थे। कई शवों का समुचित दाह-संस्कार भी नहीं करने दिया गया।
19 जनवरी 1990 को श्री जगमोहन ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल का दूसरी बार पदभार संभाला। कश्मीर में व्यवस्था को बहाल करने के लिये सबसे पहले कर्फ्यू लगा दिया गया लेकिन यह भी आतंकियों को रोकने में नाकाम रहा। सारे दिन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) और हिज्बुल मुजाहिदीन के आतंकी आम लोगों को कर्फ्यू तोड़ सड़क पर आने के लिए उकसाते रहे। विदित हो कि राज्य में 19 जनवरी से 9 अक्टूबर 1996 तक राष्ट्रपति शासन रहा।
अन्तत: 19 जनवरी की रात निराशा और अवसाद से जूझते लाखों कश्मीरी हिन्दुओं का साहस टूट गया। उन्होंने अपनी जान बचाने के लिये अपने घर-बार तथा खेती-बाड़ी को छोड़ अपने जन्मस्थान से पलायन का निर्णय लिया। इस प्रकार लगभग 3,50,000 कश्मीरी हिन्दू विस्थापित हो गये।
इससे पहले जेकेएलएफ ने भारतीय जनता पार्टी के नेता पंडित टीकालाल टपलू की श्रीनगर में 14 सितम्बर 1989 को दिन-दहाड़े हत्या कर दी। श्रीनगर के न्यायाधीश एन.के. गंजू की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी। इसके बाद क़रीब 320 कश्मीरी हिन्दुओं की नृशंस हत्या कर दी गयी जिसमें महिला, पुरूष और बच्चे शामिल थे।
विस्थापन के पांच वर्ष बाद तक कश्मीरी हिंदुओं में से लगभग 5500 लोग विभिन्न शिविरों तथा अन्य स्थानों पर काल का ग्रास बन गये। इनमें से लगभग एक हजार से ज्यादा की मृत्यु 'सनस्ट्रोक' की वजह से हुई; क्योंकि कश्मीर की सर्द जलवायु के अभ्यस्त ये लोग देश में अन्य स्थानों पर पड़ने वाली भीषण गर्मी सहन नहीं कर सके। क़ई अन्य दुर्घटनाओं तथा हृदयाघात का शिकार हुए।
यह विडंबना ही है कि इतना सब होने के बावजूद इस घटना को लेकर शायद ही कोई रिपोर्ट दर्ज हुई हो। यदि यह घटना एक समुदाय विशेष के साथ हुई होती तो केन्द्र व राज्य सरकारें धरती-आसमान एक कर देतीं। मीडिया भी छोटी से छोटी जानकारी को बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करता। लेकिन चूंकि पीड़ित हिंदू थे इसलिये न तो कुछ लिखा गया, न ही कहा गया। सरकारी तौर पर भी कहा गया कि कश्मीरी हिन्दुओं ने पलायन का निर्णय स्वेच्छा से लिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक सतही जांच के बाद सभी तथ्यों को ताक पर रख इस घटना को नरसंहार मानने से साफ इन्कार कर दिया। जबकि सत्यता यह थी कि सैकड़ों महिला, पुरुष और बच्चों की नृशंस हत्या हुई थी।
भारत का संविधान देश में किसी भी व्यक्ति को जाति, मजहब, भाषा और प्रांत के आधार पर विभाजित किये बिना सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार देता है। कश्मीरी पंडितों का पलायन क्या इस अधिकार का हनन नहीं है? केवल सरकार ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर के मनवाधिकार संगठन भी इस मामले पर मौन रहे। विख्यात अंतरराष्ट्रीय संगठनों; जैसे- एशिया वॉच, एम्नेस्टी इंटरनेशनल तथा कई अन्य संस्थाओं में इस मामले पर सुनवाई आज भी लम्बित है। उनके प्रतिनिधि अभी तक दिल्ली, जम्मू तथा भारत के अन्य राज्यों में स्थित उन विभिन्न शिविरों का दौरा नहीं कर सके हैं जहां कश्मीरी हिन्दुओं के परिवार शरणार्थियों का जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
इन कश्मीरी विस्थापितों की दुर्दशा राजनीतिक दलों द्वारा राष्ट्रीय मुद्दा बनाया जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से आज दलों के लिए सेल्फ रूल, स्वायत्तता और अफस्पा हटाना ही प्रमुख मुद्दा है। यह भी कम आश्चर्य नहीं कि निष्कासन के 22 वर्षों बाद भी इन हिन्दुओं की सुनने वाले कुछ लोग ही हैं।
बुधवार, जनवरी 11, 2012
चुनाव आयोग का हास्यास्पद फैसला
बसपा सुप्रीमो कुमारी मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकवाने के बाद चुनाव आयोग समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह साइकिल का क्या करेगा? साइकिल आमजन की सवारी है, जो हर नगर, ग्राम, डगर-डगर दिख जायेगी। तो क्या चुनाव सम्पन्न होने तक लोग साइकिल की सवारी करना छोड़ दें? साइकिल के दुकानदारों को चाहिए कि वे अपनी-अपनी दुकानें भी बंद कर दें!
कांग्रेस का चुनाव चिन्ह पंजा है, तो क्या कांग्रेसी उम्मीदवार अपने हाथों में दास्ताने पहनकर प्रचार के लिए जनता के बीच निकलेंगे? लालू यादव की राजद का चुनाव चिन्ह लालटेन है, जो अंधेरे का साथी है। क्या चुनाव आयोग रात में जलने वाले लालटेनों पर भी पर्दा डाल देगा? दुकानों में लालटेन की बिक्री पर भी प्रतिबंध लगा देना चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी का चुनाव चिन्ह कमल का फूल है। कमल के फूल को लोग मंदिरों में भी चढ़ाते हैं। चुनाव आयोग को चाहिए कि वह चुनाव सम्पन्न होने तक मंदिरों में कमल के फूल को प्रतिबन्धित कर दे। जो लोग कमल की खेती करते हैं, उन पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए! और कमल की खेती वाले जलाशयों को ढंकवाने का भी प्रबन्ध करना चाहिए।
चुनाव आयोग का यह फैसला बसपा के खिलाफ है या पक्ष में, या फिर आदर्श चुनाव आचार संहिता के हित में, इस पर भ्रम है; लेकिन इतना स्पष्ट है कि ढंकी हुई मूर्तियां जनता का ध्यान ज्यादा आकृष्ट करेंगी। इससे मायावती और बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी का तो बिना प्रयास ही जबर्दश्त प्रचार हो रहा है। यह आज के लगभग सभी समाचार पत्रों की लीड न्यूज है। बिना प्रयास भरपूर प्रचार हो रहा है।
हालांकि, इन मूर्तियों को ढंकने का फैसला चुनाव आयोग ने खुद आगे आकर नहीं किया है। उसके पास मायावती विरोधी दलों ने शिकायत की थी। इस शिकायत में केंद्र की कांग्रेस-नीत यूपीए के कुछ घटक दल भी शामिल थे। चुनाव आयोग पर उसका कितना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दबाव पड़ा होगा, यह तो बाद की बात है लेकिन फैसला तो केवल मायावती और उनकी हाथी के खिलाफ हुआ।
फिलहाल, मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढंकवाने का चुनाव आयोग का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, हास्यास्पद भी। इन मूर्तियों को लगवाने में जनता का ही पैसा खर्च हुआ और अब ढंकवाने में भी हो रहा है। यानी दोहरा खर्च। चुनाव आयोग को यदि निर्णय लेना ही था तो उन मूर्तियों को तोड़वाने का लेना चाहिए था।
शनिवार, जनवरी 07, 2012
कट्टर हिंदू हैं कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह









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