गुरुवार, अप्रैल 16, 2015

राजनीति का ‘इंटर्नशिप’ और स्वघोषित अज्ञातवास



पवन कुमार अरविंद

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का स्वघोषित अज्ञातवास पर जाना अपने में एक खबर है। प्रगट होना तो खबर बनती ही है। उनका प्रगट होना कांग्रेस के लिए एक महोत्सव की तरह है, तो सोनिया गांधी के लिए अवर्णनीय खुशी का अवसर। या यूं कहें कि उनका प्रगट होना भिन्न-भिन्न लोगों के लिए अलग-अलग अनुभूति का विषय है। कुछ लोगों के लिए अपशकुन भी है!
हालांकि, राजनीति कोई लुका-छिपी का खेल नहीं है कि जब चाहे प्रगट हो गए और जब चाहे अंतर्धान। यह कोई पिकनिक स्पॉट भी नहीं है जहां ‘ईट, ड्रिंक एंड बी मेरी’ की संस्कृति लागू की जा सके। बल्कि यह, देश और राष्ट्र निर्माण का एक महायज्ञ है, जिसके लिए शुद्ध-सात्विक मन से सतत संघर्ष जरूरी है। राजनेता का प्रमुख धर्म जनता से कटे रहकर नहीं बल्कि जनता के बीच डंटे रहकर और उसकी समस्याओं से रूबरू होकर देश व समाज के हित में राजकाज की नीतियों के िनर्माण में सहयोग देना है। लेकिन राहुल गांधी में ऐसा कोई गुण नहीं दिखता और वे अपनी जिम्मेदारियों से लगातार बचते दिख रहे हैं। ऐसा लगता है कि राजनीति उनके लिए एक ‘पार्ट टाईम जॉब’ की तरह है। इसलिए देश की जनता के दुख-दर्द को लेकर उनके संवेदना का स्तर भी आंशिक ही है। भला ऐसे व्यक्ति को जनता देश की सत्ता क्यों सौंपे? संगठन के कार्यकार्ता भी उसकी जय-जयकार क्यों करें?
वैसे भी, जुगनू के प्रकाश में नलिनी नहीं खिला करती। उसके लिए तो सूर्य का प्रकाश चाहिए। खैर! राहुल के सूर्य बनने की राह में रोड़ा कौन बन रहा है? उनके लिए अपना पुरुषार्थ व पराक्रम दिखाने के लिए पूरा मैदान ही खाली पड़ा है। उनको राजनीति में सक्रिय हुए 10 वर्ष से भी ज्यादा हो गए, लेकिन अब भी उनका ‘इंटर्नशिप’ ही चल रहा है। इस बात को दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने एक तरह से पुष्टि ही कर दी। शीला ने कहा, ‘राहुल को अभी हमने परफॉर्म करते नहीं देखा है। इसलिए उनके नेतृत्व क्षमता पर संदेह है। सोनिया को पार्टी का अध्यक्ष बने रहना चाहिए। एक और पहलू हमें समझना होगा कि सोनिया अपनी जिम्मेदारियों और चुनौतियों से भागती नहीं हैं। पार्टी अपनी वापसी के लिए उन पर निर्भर रह सकती है। मुझे ऐसा कोई नहीं मिला, जिसने उनके नेतृत्व की आलोचना की हो। मैं यह बात पूरे विश्वास से कह सकती हूं।’
बहरहाल, राहुल गांधी के प्रकट होने को लेकर भी कांग्रेस नेताओं के अलग-अलग दावे थे। किसी नेता के दावे में समानता नहीं दिख रही थी। हो भी क्यों न, वे नाराज होकर जो गए थे। उनकी वापसी के बारे में कोई क्या बता सकता था? नाराज हुए भी क्यों? हुए इसलिए क्योंकि पार्टी में अहमियत नहीं मिल रही है। उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है। कोई उनकी सुनता ही नहीं। जो जय-जयकार करता है वो भी उनकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहता। सवाल उठता है कि राहुल को ढूंढ कौन रहा है? ढूंढ वही रहा है जो उनसे कुछ चाहता है और जिसको कांग्रेस की कम बल्कि अपनी चिंता ज्यादा है।
दरअसल, सत्ता के वैभव में एक ऐसा आलोक होता है कि जिसके प्रचंड तेज में अनेक प्रतिभावान व्यक्ति विलुप्त हो गए हैं। इस प्रचंड तेज का असर देश पर सर्वाधिक शासन करने वाली कांग्रेस व कांग्रेसजनों पर भी देखा जा सकता है। सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहने के कारण कांग्रेसजनों के लिए सत्ता ‘एक आदत सी’ हो गयी है। उनमें न तो धैर्य है और न ही संघर्ष की क्षमता ही दिखायी देती है। हालांकि पार्टी में एक से बढ़कर एक प्रतिभावान नेता मौजूद हैं। लेकिन जल्द सत्तारूढ़ होने की अधीरता उनकी प्रतिभा को ही लील रही है और वे अपने को ऋढ़विहीन मान बैठे हैं। इस देश की सबसे पुरानी पार्टी की इससे ज्यादा दुर्दशा और क्या हो सकता है कि उसके नेता अपना ‘स्व’ ही भूल गए हैं।
वैसे देखें तो कांग्रेस का अतीत बहुत ही स्वर्णिम रहा है। यह पार्टी रातों-रात अचानक नहीं खड़ी हो गयी है, बल्कि इसको खड़ा करने में एक से बढ़कर एक मनीषी सदृश्य नेताओं का योगदान रहा है। यह पार्टी स्वतंत्रता आंदोलन की भट्‌ठी में तपे महान नेताओं की तपस्या का प्रतिफल है। इसलिए कांग्रेस एक ऐतिहासिक पार्टी है। पार्टी का विस्तार भी देश में सर्वाधिक है। उसके कार्यकर्ता नगर, ग्राम, डगर-डगर मौजूद हैं। अब सवाल उठता है कि ऐसी ऐतिहासिक पार्टी को किसी परिवार विशेष या व्यक्ति विशेष के सहारे क्यों छोड़ना? कांग्रेस का मजबूत होना भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए भी आवश्यक है। फिलहाल, कुछ लोगों का दावा था कि राहुल गांधी आत्म-मंथन के लिए गए थे। यदि यह बात सत्य है तो विश्वास किया जाना चाहिए कि उनके अज्ञातवास के दौरान मंथन से अमृत ही निकला होगा, जो उनको और कांग्रेस संगठन को पुनर्जीवन देने में महती भूमिका निभाएगा।

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